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सरकारी यानी घटिया!

जागरण मेहमान कोना
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तमिलनाडु के एक पिछड़े जिले इरोड के जिलाधीश यानी कलेक्टर डॉ. आर आनंद कुमार ने अपनी छह साल की बेटी को एक सरकारी स्कूल में भर्ती करवाया है। जब वे इस स्कूल में अपनी बच्ची के दाखिले के लिए पहुंचे तो दूसरे मां-बाप की तरह कतार में खड़े हुए। दिल्ली के एक अखबार में इस खबर का प्रकाशित होना ही साबित करता है कि यह कुछ असामान्य-सी बात है। यकीनन जिलाधीश को उनके साथी अधिकारियों ने समझाया भी होगा, लेकिन वे नहीं माने। उन्होंने अखबार से भी बात करने से इनकार कर दिया कि यह उनका निजी फैसला है। किसी अफसर की बेटी सरकारी स्कूल में, आम लोगों के बच्चों के साथ कैसे पढ़ सकती है? वहां किसानों और मजदूरों के बच्चे पढ़ते हैं। उस सर्वहारा वर्ग के बच्चे, जिनके लिए दो जून की रोटी के बाद इतना पैसा बचता ही नहीं कि वे सरकारी स्कूल के अलावा कहीं और अपने बच्चे को पढ़ा सकें।


अब सरकारी स्कूल में किसी अफसर, नेता, उद्योगपति, डॉक्टर और ऐसे ही किसी ऐसे व्यक्ति के बच्चे नहीं पढ़ते, जो उच्च या मध्यवर्ग में आते हैं। जो महंगे निजी स्कूल में नहीं जा सकते, वे किसी सस्ते निजी स्कूल में जाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल में नहीं जाते। ठीक वैसे ही, जैसे इस वर्ग के लोग और उनके रिश्तेदार सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए नहीं जाते। एम्स, पीजीआइ जैसे कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वहां भी वे तब जाते हैं, जब जेब जवाब दे जाती है या और कोई चारा नहीं होता। वे सरकारी बसों में नहीं चढ़ते, सरकारी डाक व्यवस्था के इस्तेमाल को भरसक टालते हैं।


एक प्रोफेसर का आकलन है कि संपन्न वर्ग को तो छोड़ दीजिए, अब मध्यवर्ग के लोग भी हर उस सुविधा के इस्तेमाल को अपनी तौहीन समझते हैं, जो सरकारी है। वैसे तो यह सरकार के लिए चिंता की बात होनी चाहिए, लेकिन सरकार को चलाने वाले राजनेता और अधिकारी दोनों को इसकी चिंता नहीं दिखती। आज से दो दशक पहले स्थिति इतनी खराब नहीं थी। यकीन न हो तो उन राजनेताओं, अधिकारियों और न्यायाधीशों से बात करके देखिए, जो आज से बीस साल पहले किसी छोटे शहर के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। उनमें से अधिकांश आपको किसी न किसी सरकारी स्कूल में पढ़े हुए मिल जाएंगे। उनका जन्म किसी न किसी सरकारी अस्पताल में हुआ होगा। लेकिन आज क्या वे अपने बच्चों का जन्म किसी सरकारी अस्पताल में होने की कल्पना कर सकते हैं? क्या वे अपने बच्चे को किसी सरकारी स्कूल में पढ़ने भेजेंगे?


बीबीसी ब्लॉग में विनोद वर्मा


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