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क्‍या बुराई है जनमत संग्रह कराने में

जागरण मेहमान कोना
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vinay kaura अपनी कालजयी कृति द प्रिंस में मैकियावली लिखते हैं, किसी व्यवस्था में नयापन लाने की तुलना में ऐसा कोई काम नहीं है, जिसकी शुरुआत कठिनाई भरी हो या जिसे लागू करना अत्यंत जोखिम भरा। एक कारगर लोकपाल संस्था के गठन पर चल रही खींचतान से मुक्ति पाने के लिए जनमत संग्रह का सुझाव पहली नजर में कठिनाई और जोखिम भरा प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह असंभव एवं अव्यावहारिक नहीं है। क्या भ्रष्टाचार के आरोपी की राजनीतिक हैसियत देखकर उसके खिलाफ जांच की जानी चाहिए? इस प्रश्न पर जनमत संग्रह के सुझाव को संसदीय लोकतंत्र की परंपराओं के विपरीत और स्वप्नदर्शी करार देकर खारिज कर दिया जाए, इससे पहले कुछ पहलुओं पर गौर करना प्रासंगिक होगा। भले ही ब्रिटेन ने भारत पर दो सौ साल राज किया, अनगिनत अत्याचार किए, बेहिसाब धन-दौलत लूटी। लेकिन आजाद भारत बहुत मायने में ब्रिटेन का ऋणी है। संसदीय लोकतंत्र पर आधारित शासन व्यवस्था, न्याय पद्धति और शिक्षा प्रणाली हमने विरासत में अंग्रेजों से ही ग्रहण की है। इस विरासत के शुभ और अशुभ को देखने का नजरिया क्या हो, बेशक इस पर एक राय नहीं हो सकती। हमारे प्रधानमंत्री तो इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से ही देखते हैं। स्मरण रहे कि 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मानद उपाधि ग्रहण करते हुए जो भाषण दिया, उसमें ब्रिटिश साम्राज्य के कई लाभकारी परिणामों को उन्होंने सहर्ष और बेहिचक स्वीकार किया था। भारत में विद्यमान विधि का शासन, संवैधानिक सरकार, आजाद प्रेस, पेशेवर सिविल सेवा और आधुनिक विश्वविद्यालयों की तारीफ करते हुए प्रधानमंत्री ने गर्व से कहा था कि हमारी न्यायपालिका, हमारी कानून व्यवस्था, हमारी नौकरशाही और हमारी पुलिस वे महान संस्थाएं हैं, जो ब्रिटिश भारतीय प्रशासन से ली गई हैं। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री के इस भाषण की देशभर में जमकर आलोचना हुई थी। बहरहाल, आज जब संप्रग सरकार, विपक्षी दल, मीडिया, सिविल सोसायटी, बुद्धिजीवियों और मध्यम वर्ग में सशक्त लोकपाल पर जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है तो क्या हमें एक बार फिर से ब्रिटेन से मार्गदर्शन नहीं लेना चाहिए? यह दोहराना अप्रासंगिक नहीं है कि लोकतंत्र कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है, जिसे किसी जमे हुए स्थायी ढंाचे में रख दिया जाए।


यह तो अत्यंत गतिशील एवं निरंतर परिवर्तनशील विचारधारा है। जब यह तथ्य सर्वविदित है कि हमारा लोकतंत्र बहुत हद तक ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है तो वहां हो रहे नए घटनाक्रमों से हम बेखबर नहीं रह सकते। पिछले मई महीने ही ब्रिटेन ने अपने संसदीय इतिहास में उस हथियार का सहारा लिया, जो वहां की शासन परंपरा का स्थापित हिस्सा नहीं है। मई के प्रथम सप्ताह में ब्रिटेन की सरकार ने एक जनमत संग्रह कराया, जिसके जरिए जनता से यह पूछा गया कि वह अपने देश में वैकल्पिक मत की मतदान प्रणाली लागू करना चाहती है या नहीं। जनता ने इसे ठुकरा दिया। गौरतलब है कि भारत की तरह ही ब्रिटेन में सामान्य बहुमत की मतदान प्रणाली प्रचलित है, जिसके तहत किसी चुनाव क्षेत्र में सबसे ज्यादा मत प्राप्त करने वाला प्रत्याशी विजेता घोषित हो जाता है। इस प्रणाली की यह कहकर आलोचना की जाती है कि इससे बहुमत का अपमान होता है, क्योंकि हारने वाले सभी प्रत्याशियों के कुल मत हमेशा जीतने वाले प्रत्याशी के मतों से बहुत ज्यादा होते हैं। यही नहीं, साधारण बहुमत प्रणाली में समाज के अल्पसंख्यक और शोषित वर्गो को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। मतदान प्रणाली में बदलाव की मांग ब्रिटेन में काफी समय से उठती रही है। पिछले साल गठबंधन सरकार बनाते समय ही दो प्रमुख घटक दलों कंजरवेटिव पार्टी और लिबरल डेमोक्रेट्स में यह तय हो गया था कि वैकल्पिक मत प्रणाली को लागू करने के संदर्भ में जनमत संग्रह कराया जाएगा। इसके लिए कानूनी प्रावधान होना जरूरी था। लिहाजा, फरवरी 2011 में ब्रिटिश संसद ने जनमत संग्रह कराने के लिए बाकायदा एक कानून पारित कर दिया।


lokpal draft commiteeमई 2011 में कराए गए हां/ना वाले इस जनमत संग्रह में यह सवाल पूछा गया था कि वर्तमान में यूनाइटेड किंगडम, हाउस ऑफ कॉमंस के संासदों को चुनने के लिए फ‌र्स्ट पास्ट द पोस्ट (साधारण बहुमत) व्यवस्था का प्रयोग करता है। क्या इसके स्थान पर अल्टरनेटिव वोट (वैकल्पिक मत) प्रणाली अपनाई जानी चाहिए? जनमत संग्रह के लिए चुनाव अभियान में जहां लिबरल डेमोक्रेट्स ने वैकल्पिक मत प्रणाली का समर्थन किया, वहीं कंजरवेटिव पार्टी ने उसका विरोध। यही कारण था कि प्रधानमंत्री डेविड केमरन ने, जो कि कंजरवेटिव पार्टी के हैं, प्रस्ताव के विपक्ष में और उपप्रधानमंत्री निक क्लेग ने, जो कि लिबरल डेमोक्रेट हैं, प्रस्ताव के पक्ष में प्रचार किया।


पिछली लेबर सरकार तो 2010 के आम चुनाव से पहले ही वैकल्पिक मत प्रणाली लागू करना चाहती थी, लेकिन जनमत संग्रह में रखे गए प्रस्ताव पर उसका रवैया काफी हद तक ढुलमुल ही रहा। अन्य छोटे दल इस मुद्दे पर बंटे हुए थे। जबरदस्त अभियान और बहसबाजी के बाद हुए चुनाव में करीब 42 प्रतिशत मतदान हुआ।प्रस्ताव के खिलाफ 68 प्रतिशत मत पड़े। वैसे ब्रिटेन में प्रांतीय एवं स्थानीय स्तर पर जनमत संग्रह कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह ब्रिटेन का केवल दूसरा राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह था। इससे पहले जून 1975 में यूरोपीय समुदाय की सदस्यता के सवाल को लेकर एडवर्ड हीथ की सरकार ने जनमत संग्रह कराया था। दरअसल लेबर पार्टी ने 1974 में अपने चुनावी घोषणापत्र में यह वादा किया था कि जनता ही बैलेट बॉक्स के जरिये तय करेगी कि उसे यूरोपीय समुदाय में रहना है या नहीं। 67 प्रतिशत मतदाताओं ने प्रस्ताव का समर्थन किया था। केवल आम चुनाव ही लोकमत का प्रतिबिंब नहीं हो सकते। लगभग सभी लोकतांत्रिक देश, खासकर पश्चिमी जगत अनेक महत्वपूर्ण या विवादास्पद मुद्दों पर जनमत संग्रह कराते रहे हैं।


दरअसल, जनमत संग्रह लोकतंत्र को कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत बनाते हैं। अगर संसदीय लोकतंत्र का जनक ब्रिटेन चार दशक के बीच दो बार जनमत संग्रह करा सकता है तो हम छह दशक बाद भी एक बार जनमत संग्रह कराने का साहस क्यों नहीं बटोर पाए हैं। जो जनता चुनावों के जरिये अपनी सरकार को चुनने की परिपक्व क्षमता रखती है, क्या वह जनमत संग्रह के जरिये इस सवाल का जवाब देने की भी सूझबूझ नहीं रखती कि आम आदमी और खास आदमी के खिलाफ भ्रष्ट आचरण की जांच का पैमाना अलग-अलग होना चाहिए या नहीं।


लेखक विनय कौडा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.



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