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कब सीखेंगे रेल हादसों से सबक

जागरण मेहमान कोना
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AWDHESH KUMARकालका एक्सप्रेस दुर्घटना में हताहत लोगों और एक-दूसरे के ऊपर चढ़ी बोगियों का दृश्य किसी को भी डरा सकता है। रेल एवं पटरियों की हालत देखकर दुर्घटना के क्षण की कल्पना की जा सकती है। 350 से ज्यादा यात्रियों के हताहत होने का अर्थ है कि कुल यात्रियों में से एक तिहाई से ज्यादा प्रभावित हुए। इस ट्रेन में यात्रा कर रहे उन अभागे यात्रियों को तो कल्पना भी नहीं रही होगी कि नियति की ऐसी क्रूरता उनका इंतजार कर रही है। मरने वाले करीब छह दर्जन यात्रियों ने ऐसी मौत की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी। महाप्रबंधक कह रहे हैं कि ऐसी घटना तो होनी ही नहीं चाहिए। हम लोग इससे बहुत शर्मिदा हैं और इसकी पूरी जांच की जाएगी। यह सही है कि जांच के बाद ही सही कारण मालूम हो पाएगा, लेकिन क्या इससे यह सुनिश्चित होगा कि आगे ऐसे हादसे फिर नहीं होंगे?


शायद ऐसा कोई भी सुनिश्चित आश्वासन नहीं दे सकता। इस भयानक हादसे की पूरी सूचना आई भी नहीं थी कि गुवाहाटी-पुरी एक्सप्रेस के असम के रंगिया में दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर आ गई, जिसमें आतंकवादियों ने विस्फोट किया। इन दुर्घटनाओं के कारण चाहे जो हों, लेकिन परिणति सबकी एक है कि आम लोग इनमें मर रहे हैं। गुवाहाटी-पुरी एक्सप्रेस दुर्घटना में सौ से ज्यादा यात्री हताहत हुए। इसी तरह कुछ ही दिन पहले मथुरा-छपरा एक्सप्रेस उत्तर प्रदेश के ही कांशीराम नगर के एक रेलवे क्रॉसिंग पर बारात लेकर लौट रही बस के परखचे उड़ाता चला गया था जिसमें करीब 40 लोगों की मौत हुई। इसके अलावा करीब डेढ़ महीने पूर्व 22 मई को बिहार के मधुबनी जिले के एक रेलवे क्रॉसिंग पर गरीबरथ एक्सप्रेस जीप से टकरा गई जिसमें 20 लोग मारे गए थे। ऐसी बड़ी-छोटी दुर्घटनाओं की एक लंबी श्रृंखला है और आगे भी यह कड़ी बढ़ती रहेगी। बाद के दो दुर्घटनाओं का प्रत्यक्ष कारण रेलवे क्रॉसिंग का खुला होना यानी अनमैन्ड होना था। इन सबसे एक सामान्य निष्कर्ष यही निकलता है कि यदि इन क्रॉसिंग पर कर्मचारी होते और वे फाटक बंद कर देते तो दोनों त्रासदियां घटित ही नही होतीं। हर दुर्घटना कहीं न कहीं सुरक्षा चूक का ही परिणाम होती है और यह भारतीय रेलवे पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न है। जब भी दुर्घटनाएं होतीं हैं प्रत्यक्ष और तात्कालिक कारणों का ही विश्लेषण होता है। जांच में जो कारण सामने आते हैं उसी के मुताबिक रेलवे कार्रवाई करने एवं कारणों को ठीक करने का दावा करती है। अभी तक की दुर्घटनाओं के विश्लेषण में मानवीय भूलें सबसे बड़ा कारण रही हैं। रेल दुर्घटनाओं के तकरीबन 65-70 प्रतिशत मामले संचालन से जुड़े किसी कर्मचारी की भूल का परिणाम मानी गई। हालांकि तकनीकी खामियां भी एक बड़ी वजह रही हैं। कालका मेल के मामले में आरंभिक आकलन से यही लगता है कि किसी कारणवश चालक ने आपातकालीन ब्रेक लगाया, लेकिन चालक ने इससे इनकार किया है। उसका कहना है कि अचानक रेल रुक गई। फिलहाल इसमें मानवीय भूल एवं तकनीकी खामी दोनों ही कारण नजर आते हैं।


सवाल है यदि यह साबित भी हो जाता है कि चालक ने अनावश्यक आपातकालीन ब्रेक लगाया था तो इससे फर्क क्या पड़ने वाला है? आपातकालीन ब्रेक कब लगाना है इसका ज्ञान हर चालक को होता है एवं उसके परिणामों की भी उसे कल्पना होती है। कालका मेल जैसी ट्रेनों में वरिष्ठ व कुशल चालकों को ही लगाया जाता है, जो किसी भी विपरीत परिस्थिति में संतुलन व धैर्य के साथ सही निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं। पर किसी भी मनुष्य से गलती हो सकती है। कई बार तो लापरवाही के कारण भी गलत कदम उठा लिया जाता है। रेलवे से जुड़े लोगों को मालूम है कि संचालन व्यवस्था का कंप्यूटरीकरण हो जाने से चालक पहले से ज्यादा निश्चिंत हो गए हैं। उन्हें इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम से पता चलता रहता है कि कौन सिग्नल मैन्ड है और कौन अनमैन्ड? अनमैन्ड सिग्नल के बारे में उन्हें गाइडलाइन मिला होता है कि उन्हें अपने विवेक से फैसला करना है, लेकिन मथुरा-छपरा एक्सप्रेस का चालक रात में गाड़ी को एक निश्चित गति पर चलाता रहा और अनमैन्ड क्रॉसिंग के लिए जरूरी सावधानी नहीं बरती। वह मानकर चल रहा था कि दो बजे रात को क्रॉसिंग खाली ही होगा। बस चालक की भी गलती थी, क्योंकि उसने यह देखने की कोशिश नहीं की कि कोई रेल आ रही है अथवा नहीं। वर्ष 1995 में फिरोजाबाद में रेलवे की सबसे बड़ी दुर्घटना हुई जिसमें करीब 600 लोग मारे गए थे। सिग्नल मैन ने यह मानकर कि आने वाली रेल तो गुजर ही गई होगी दूसरी तरफ से आने वाली रेल को ग्रीन सिग्नल दे दिया और दोनों में टक्कर हो गई। वस्तुत: मानवीय भूलों का हम बिल्कुल अंत नहीं कर सकते। यही बात मशीनों के साथ भी है। मशीनी खराबी न हो इसके पूर्व उपाय तो किए जा सकते हैं पर यह भी शत-प्रतिशत सुनिश्चित नहीं हो सकता। दुर्घटना टालने के लिए एंटी कोलिजन डिवाइस(एसीडी) भी एक कारगर उपाय है, लेकिन कालका एक्सपे्रस, गुवाहाटी-पुरी एक्सप्रेस, मथुरा-छपरा एक्सप्रेस दुर्घटनाओं को इससे भी नहीं रोका जा सकता था।


पहली अप्रैल 2007 से अभी तक रेल दुर्घटनाओं में करीब 1100 लोगों की मौत होने का आंकड़ा है। एक अप्रैल 2010 से अब तक करीब 475 लोगों की मौत हो चुकी है। तमाम प्रयासों, तकनीकी सुधारों, कर्मचारियों को दिए जाने वाले तमाम प्रशिक्षणों और गाइडलाइंस के बावजूद दुर्घटनाएं रुक नहीं रही हैं और निरीह यात्री इनकी भेंट चढ़ रहे हैं। न जाने कितने परिवार उजड़ रहे हैं और कितने आजीवन विकलांग होकर परिवार पर बोझ बन रहे हैं। दुर्घटनाओं को रोकने के लिए ऐसे पद कतई रिक्त नहीं रखे जाएं जिनका संबंध रेल परिचालन, सुरक्षा एवं रख-रखाव से है। जानकारी के मुताबिक सुरक्षा से संबंधित एक लाख से ज्यादा पद रिक्त हैं। इनमें 7,190 पद तो लोको पायलटों के हैं। कालका मेल जिस रूट पर दुर्घटनाग्रस्त हुई वह दिल्ली-मुगलसराय रूट है। इस पर पहले एक लाइन से काम चल जाता था, लेकिन रेलों की संख्या बढ़ी तो दो लाइनें हुई। दबाव बढ़ने के कारण अब तीसरी लाइन भी बिछ रही है। आखिर हमें कितनी रेलें चाहिएं? पिछले पांच वर्षो में दिल्ली से चलने वाली 98 नई रेलें जुड़ी हैं। बढ़ने वाली रेलों की संख्या के अनुपात में यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी की दर कई गुना ज्यादा है। दिल्ली-मुगलसराय रूट का उपयोग 160 प्रतिशत से ज्यादा है। रेलों की गति भी तेजी से बढ़ाई जा रही है। उदाहरण के लिए अलीगढ़ से टुंडला तक गति 110-120 किमी प्रति घंटा से बढ़ाकर 150 किमी प्रति घंटा किया गया है। बाद में इसे फतेहपुर तक बढ़ाया गया। दरअसल, यदि रेल निर्धारित समय पर नहीं पहुंचती है तो चालक को जवाब देना पड़ता है। इसलिए उसे रेल भगाने की जल्दी रहती है। यात्री भी रेल का धीमा होना आसानी से झेल नहीं पाते। वास्तव में ऐसी हर दुर्घटनाएं हमें चेतावनी देती हैं पर हम उसे समझने और उसके अनुसार व्यवस्था एवं जीवन शैली में बदलाव लाने की शुरुआत नहीं कर पाते। यही सब कारण है कि ऐसे हादसे हमारी नियति बन गई है।


लेखक अवधेश कुमार एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.


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