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हम सांसदों और विधायकों को दी जाने वाली जिस निधि को विकास का पर्याय मान रहे हैं। दरअसल, सही मायनों में वह जनप्रतिनिधियों का नैतिक बल कमजोर करने वाली साबित हो रही है। इस निधि के वितरण में सांसद और विधायकों द्वारा कमीशनखोरी की जानकारियां तो आम हैं। वे सारे नियम-कायदे ताक पर रखकर इस धनराशि से होने वाले कार्य सीधे अपने कार्यकर्ताओं को देकर अनैतिकता का संदेश भी दे रहे हैं। यह स्थिति सांसद और विधायकों की राजनीतिक जमीन तो पुख्ता कर रही है, लेकिन नीति-निर्माण और निगरानी जैसे जो उनके मूल काम हैं, उनसे ध्यान हटा रही है। लिहाजा, इस स्थिति को समझने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार द्वारा आनन-फानन में सांसद निधि को दो करोड़ से बढ़ाकर सीधे पांच करोड़ किए जाने का कोई औचित्य समझ से परे है।
वह भी ऐसे समय में जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा विधायक निधि खत्म करने की पहल करते हुए एक आदर्श मिसाल पेश की गई हो। यही नहीं, वे इस निधि को खत्म करके व्यवस्था में सुधार और भ्रष्टाचार पर अंकुश के पर्याप्त आधार भी खोज रहे हैं। इस बाबत केंद्र सरकार से भी राय-मशविरा कर चुके हैं। योजना आयोग के अध्यक्ष मोटेंक सिंह अहलूवालिया भी इस राशि को बढ़ाए जाने के खिलाफ थे। बहरहाल, राशि को दोगुना से भी ज्यादा कर देने का मतलब कागजी कामों को अंजाम देकर भ्रष्टाचार का सामुदायीकरण भी करना होगा। एक तरफ तो सरकार भूखों का पेट भरने के लिए गरीबी का पैमाने से आकलन करने में लगी है। जिससे जिस खाद्य सुरक्षा विधेयक की इस मानसून सत्र में लाए जाने की उम्मीद है, उसके परिप्रेक्ष्य में कम से कम वंचितों को अनाज दिया जा सके। दूसरी तरफ केंद्र सरकार से हरेक सांसद को मिलने वाली सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास निधि को सीधे-सीधे दोगुने से भी ज्यादा कर दिया गया।
सांसदों का संप्रग-2 सरकार से मोहभंग होने के हालात निर्मित न हों, इसलिए बढ़ाई गई राशि चालू वित्त वर्ष में भी प्रदान की जाएगी। मसलन, अब तक सांसदों को एक साल में कुल 1580 करोड़ रुपये अपने संसदीय क्षेत्र में बुनियादी विकास कार्यो के लिए दिए जाते थे, यह राशि बढ़ाकर अब 3950 करोड़ रुपये कर दी गई है। इससे सरकारी खजाने पर 2370 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पडे़गा। सांसदों का मनमोहन सिंह सरकार पर कितना दबाव है, यह इस बात से पता चलता है कि इस राशि को बढ़ाए जाने के पक्ष में न तो खुद प्रधानमंत्री थे और न ही योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, इसके बावजूद राशि को दो करोड़ से बढ़ाकर तीन करोड़ चुटकियों में कर दिया गया। इस द्वंद्व से जाहिर होता है कि मनमोहन सिंह कितनी लाचारी में गठबंधन की सरकार को खींच रहे हैं।
सांसद राशि बढ़ाए जाने के लिए बहाना बना रहे थे कि लगातार महंगाई बढ़ते जाने के कारण संरचनाओं के निर्माण से जुड़ी सामग्री महंगी होती जा रही है। इसलिए क्षेत्र में मिलने वाले जरूरी निर्माण प्रस्तावों को भी वे मंजूरी नहीं दे पा रहे हैं। कार्यो की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। लिहाजा, सांसद निधि में बढ़ोतरी किया जाना लाजिमी है। चूूंकि सांसद-विधायक की प्रतिबद्धता अपने दल से जुड़ी होती है, इसलिए ज्यादातर विकास निधि का पक्षपात बरतते हुए वितरण भी उन पंचायत प्रतिनिधियों के माध्यम से किया जाता है, जो सांसदों-विधायकों के नुमाइंदे होने के साथ क्षेत्र में उनके राजनीतिक हित साधने में लगे रहते हैं। मसलन, इस राशि से समर्थकों को उपकृत किया जाता है। लिहाजा, सार्वजनिक धन अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के काम आ रहा है। इस कारण न तो समावेशी विकास का आदर्श सामने आ रहा है और न ही उन दूरांचलों में बुनियादी विकास की जरूरतें पूरी हुई हैं, जो आदिवासी ग्राम हैं।
इस कारण इस विकास निधि के औचित्य पर भी सवाल उठते रहे हैं। सांसद निधि को अंसवैधानिक भी माना जाता रहा है। दरअसल, यहां यह सवाल गौरतलब है कि संवैधानिक ढांचागत व्यवस्था के अनुसार जब जिस काम के लिए प्रशासन, स्थानीय निकाय और पंचायतें हैं तो विकास निधि के वितरण की जवाबदारी विधायिका पर क्यों? संविधान के अनुसार तो सांसद-विधायकों का मुख्य काम जनहितैषी नीतियों का निर्माण कर उनका क्षेत्र में ईमानदारी से अमल कराना है, जिससे राशि का दुरुपयोग न हो और विकास कार्यो की गुणवत्ता बनी रहे।
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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