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आरक्षण फिल्म का निर्माण व्यक्तिगत पॉपुलैरिटी और व्यावसायिक लाभ पाने के नजरिए से किया गया है, न कि समाज के व्यापक हित के लिए। एक ऐसे मुद्दे पर फिर से सवाल खड़े करना और उसे विवादों में लाने की कोशिश और कुछ नहीं, बल्कि समाज और देश को तोड़ने व बांटने की कोशिश का एक हिस्सा है। यह फिल्म एक बार फिर से देश के लोगों को आपस में ही बांटने और सामाजिक समरसता की प्राप्ति में एक बाधक के तौर पर प्रसारित की जा रही है। अगर कोई मनोरंजन के नाम पर इसे सही साबित करने या बताने की कोशिश कर रहा है तो क्या वह यह बता सकता है कि आखिर इसमें ऐसे तथ्यों को गलत और भ्रामक रूप में क्यों पेश किया गया है, जिनके बारे में इतिहास की किताबों में भी नहीं लिखा गया है। क्या कोई यह बताने की जहमत उठाएगा कि ये तथ्य कहां से लाए गए हैं और किसलिए सनसनी बनाकर पेश किए जा रहे हैं। यह सही है कि मैंने अभी पूरी फिल्म नहीं देखी है, लेकिन इसके ट्रेलर जो प्रसारित किए जा रहे हैं उससे साफ है कि इसमें मसाला क्या है और इनका नजरिया क्या है।
फिल्म के एक दृश्य में यह कहते हुए दिखाया गया है कि- आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो इसके उत्तर में कहा जाता है कि आरक्षण तो खैरात में मिला है। ऐसे एक दो नहीं, बल्कि 10-12 दृश्य व संवाद हैं, जिनसे आरक्षण को गलत बताने की कोशिश की गई है। यही कारण है कि फिल्म का विरोध केवल हम लोग ही नहीं, बल्कि समाज के दूसरे तबकों व क्षेत्रों के लिए लोग भी कर रहे हैं। कहने को तो यह कहा जा सकता है कि फिल्मों का ऐतिहासिक तथ्यों या ऐसे विचारों से कोई लेना-देना नहीं होता और ये विशुद्ध रूप से मनोरंजन के उद्देश्य से बनाई जाती हैं। इस कारण फिल्मों पर सवाल उठाना या उनका विरोध करना शायद जायज नहीं होगा।
पर सवाल है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस सीमा तक होनी चाहिए और ऐसे मुद्दों पर किसी को कितनी छूट लेनी चाहिए। आरक्षण के विरोध में तर्क देने वालों को पहले यह बताना चाहिए कि योग्यता किसे कहते हैं और इसका आधार क्या होता है? वर्ष 1920 में कर्नाटक के एक अंगे्रज चीफ जस्टिस मिलर ने योग्यता या मेरिट का आधार परीक्षा में हासिल किए जाने वाले मार्क्स अथवा अंक और डिग्री की बजाय इसे ईमानदारी, मानवता और मेहनत से जोड़ा था, लेकिन यदि हम इन पैमानों पर कभी विचार करना उचित नहीं समझते और न ही कभी इस बारे में विस्तार से चर्चा की जाती है। हजारों वर्षो से समाज के एक वर्ग जो उच्च जाति या सवर्ण जातियां हैं, उन्होंने विद्या, धन और सत्ता पर अपना एकाधिकार बनाए रखा और समाज के बाकी हिस्सों को इनसे दूर रखा। इसी का परिणाम था कि देश का एक बड़ा हिस्सा न तो अपना विकास कर सका और न ही देश का भला करने की स्थिति में रहा। सामाजिक असमानता और सामाजिक असंतोष इतना बढ़ा कि हजारों वर्षो तक हमारा देश विदेशियों के हाथों में कठपुतली बना रहा और हमें लंबे समय तक गुलामी का दंश झेलना पड़ा। अंग्रेजों ने भी बांटों और राज करो की नीति अपनाकर देश को गुलाम रखा। आज एक बार फिर कुछ ऐसी ही स्थितियां पैदा करने की कोशिश की जा रही है। सवाल है कि इप देश विभाजक शक्तियों और वृत्तियों का विरोध आखिर क्यों नहीं होना चाहिए?
लेखक उदित राज इंडियन जस्टिस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं
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