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एक ईमानदार प्रधानमंत्री का सच

जागरण मेहमान कोना
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अकसर संप्रग सरकार के खेवनहार घपले-घोटालों के आरोपों पर मिट्टी डालने के लिए प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि की आड़ लेते देखे जाते हैं। वे प्रधानमंत्री की ईमानदारी की चर्चा को गर्म कर सरकार पर लगने वाले आरोपों को न सिर्फ भोथरा करते हैं, बल्कि पूरी तरह से बर्फखाने में समेटने की भी गोटियां बिछाते हैं। इस दृष्टिकोण से दरबारी संस्कृति के संवाहकों से नैतिकता और बुद्धिमता की अपेक्षा रखना अनुचित ही प्रतीत होता है, लेकिन देश के जाने-माने प्रबुद्ध चिंतकों द्वारा शोरगुल मचाकर यह प्रवचन सुनाया जाना कि प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर शक नहीं किया जाना चाहिए, ठगों की टोली को समर्थन देने जैसा ही है। शायद राजतंत्र में भी इस तरह की भ्रष्ट और अनैतिक सोचों का प्रकटीकरण नहीं किया जाता होगा।


बुद्धि का खजाना समेट रखे इन मतिभ्रमों से पूछा जा सकता है कि घोटालेबाजों को संरक्षण देना, उनके बचाव में कुतर्को का सहारा लेना, जांच संस्थाओं पर कीचड़ उछालना और जब न्यायालय का डंडा पड़े तो कपटपर्ण आचरण प्रदर्शित कर घोटालों से अनभिज्ञता जाहिर करना आखिर किस तरह की ईमानदारी की विधा है? विचित्र लगता है कि राष्ट्र के मुखिया की नाक के नीचे ही ठगों की टोली ने अरबों-खरबों का वारा-न्यारा कर डाला और मुखिया को पता तक नहीं चला। जिस तथाकथित ईमानदारी के प्रतिफल में देश को हजारों करोड़ का नुकसान उठाना पड़े, लुटेरों का बाल-बांका तक न हो और पूरी सरकार भ्रष्टाचारियों के बचाव में घुटने तक झुकी नजर आए, उस ईमानदारी को लानत है और उसकी मुनादी पीटना तो जले पर नमक छिड़कने जैसा है? पिछले दिनों देखा गया कि संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए केंद्र सरकार ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर पामोलिन ऑयल घोटाले के आरोपी पीजे थॉमस की नियुक्ति कर डाली। अंत तक सरकार के मुखिया और उनके सिपहसालारों द्वारा थॉमस की नियुक्ति को वाजिब ठहराया जाता रहा, लेकिन जब अदालत द्वारा इस नियुक्ति पर सवाल उठाया गया और प्रधानमंत्री की साख चौपट होने लगी, तब मौका भांपकर ढिढोंरचियों ने शोरगुल मचाना शुरू कर दिया कि इस नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री को खतावार नहीं ठहराया जा सकता है।


लेकिन देखा गया कि प्रधानमंत्री को हार-थककर देश से माफी मांगनी ही पड़ी और सरकार को न्यायालय के आगे घुटने टेकना पड़ा। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में भी प्रधानमंत्री की ईमानदारी हवा फांकती रही और ए राजा देश को चुना लगाते रहे। प्रधानमंत्री चाहकर भी राजा को मंत्रिमंडल से बाहर नहीं रख सके। ए राजा की मनमर्जी के आगे प्रधानमंत्री की ईमानदारी नक्कारखाने में तूती साबित होती रही और देश लुटता रहा। हद तो तब हो गई, जब खुद प्रधानमंत्री संसद में राजा का बचाव करते देखे गए। ए राजा और उनके गिरोह के लुटेरे अगर तिहाड़ जेल भेजे भी गए तो इसमें भी प्रधानमंत्री की ईमानदारी के एक अंश का भी योगदान नहीं रहा, बल्कि न्यायालय के डंडे के कमाल के कारण ए राजा तिहाड़ के अंदर भेजे गए। अब एक बार फिर प्रधानमंत्री की ईमानदारी खूंटी पर टंगी नजर आ रही है। कॉमनवेल्थ गेम्स में हुए भ्रष्टाचार पर कैग की रिपोर्ट देश के सामने है। इस रिपोर्ट में खेल आयोजन समिति, दिल्ली सरकार और प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका पर सवाल खड़ा किया गया है। दिल्ली सरकार पर अनियमितता और फिजूलखर्जी को लेकर गंभीर आरोप हैं, लेकिन प्रधानमंत्री की हल्ला बोल टीम शीला सरकार के भ्रष्टाचार पर पर्दादारी करती दिख रही है। सरकार के सिपहसालार कैग की रिपोर्ट को बकवास बता रहे हैं। दलील दे रहे हैं कि रिपोर्ट में भ्रष्टाचार को लेकर सीधे तौर पर शीला दीक्षित को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। इसलिए उनसे इस्तीफा मांगने का औचित्य नहीं है।


फिर इसका मतलब क्यों न निकाला जाए कि सरकार शीला दीक्षित का बचाव कर प्रधानमंत्री कार्यालय की संदिग्ध भूमिका पर कंबल डालना चाहती है। प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि जब पूर्व खेल मंत्रियों ने आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी की नियुक्ति को लेकर अपनी आपत्ति जताई तो उसे क्यों अनसुना किया गया? प्रधानमंत्री के ईमानदारी की पुष्टि तो तब होती, जब वे आयोजन समिति के अध्यक्ष कलमाड़ी को पद से हटाकर किसी और को जिम्मेदारी सौंपते। लेकिन देखा गया कि प्रधानमंत्री कार्यालय की टांग कलमाड़ी की टांग से तब तक बंधी रही, जब तक कि वे तिहाड़ जेल नहीं चले गए। आगे प्रधानमंत्री की ईमानदारी की कीमत देश को और कितनी चुकानी होगी, यह भगवान ही जानता है।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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