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22 अगस्त को लीबिया की राजधानी त्रिपोली पर विद्रोहियों का कब्जा होते ही कर्नल मुअम्मर गद्दाफी की 42 साल की तानाशाही का अंत हो गया। उनका बेटा सैफ अल-इस्लाम विद्रोहियों के कब्जे में बताया जाता है, जबकि गद्दाफी का कोई अता-पता नहीं है। लीबिया संकट समझने के लिए सबसे पहले हमें घटनाओं को सिलसिलेवार जानना होगा। लीबिया के हालात फरवरी 2011 से बिगड़ने शुरू हुए जब एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की गिरफ्तारी से पूर्वी शहर बेंगाजी में हिंसा भड़क उठी, जिसकी चपेट में जल्द ही दूसरे शहर भी आ गए। जब सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर हवाई हमले किए तो लोगों का गुस्सा भड़क उठा। इस घटना के बाद बहुत से देशों ने लीबिया में अपने दूतावास बंद कर दिए। इनमें भारत भी शामिल था। मार्च में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने लीबिया को नो फ्लाई जोन घोषित कर दिया ताकि प्रदर्शनकारी नागरिकों पर हवाई हमले न किए जा सकें।
फ्रांस की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय गठबंधन के हवाई हमले शुरू होते ही गद्दाफी के अंत की शुरुआत हो गई। यह कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के पारित होते ही 17 मार्च को शुरू हो गई। भारत उन पांच देशों में शामिल था, जिन्होंने इस प्रस्ताव पर मतदान में भाग नहीं लिया था। अन्य चार देशों में रूस, चीन, जर्मनी और ब्राजील थे। भारत ने मतदान में इसलिए हिस्सा नहीं लिया क्योंकि यह सुनिश्चित नहीं था कि इस प्रस्ताव का लीबिया में जारी गृहयुद्ध पर क्या प्रभाव पड़ेगा और इससे लीबियावासियों की मुसीबतें घटेंगी या बढ़ेंगी। संयुक्त राष्ट्र में भारत के उप स्थायी प्रतिनिधि मनजीव सिंह पुरी ने भारतीय चिंताओं को रेखांकित करते हुए मतदान से अलग रहने के तीन कारण बताए। पहला, न तो संयुक्त राष्ट्र के महासचिव द्वारा लीबिया संकट पर तैनात किए गए विशेष दूत की रिपोर्ट और न ही सचिवालय की लीबिया के हालात पर तैयार रिपोर्ट को साझा किया गया। दूसरा कारण यह था कि संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव में दूरगामी उपायों पर जोर दिया गया जबकि वहां की जमीनी हकीकत की अनदेखी की गई। तीसरे, प्रस्ताव में सशस्त्र उपायों की विस्तृत जानकारी नहीं दी गई है।
नो फ्लाई जोन को लागू करना बेहद कठिन काम था। फ्रांस और इंग्लैंड लीबिया में अपने हितों की रक्षा के मद्देनजर शुरू से ही इस प्रकार के कदमों की मांग कर रहे थे। अमेरिका बाद में राजी हुआ। यह आसान काम नहीं था क्योंकि गद्दाफी ने धमकी दी थी कि पश्चिमी देशों ने उन पर हमला किया तो वह सद्दाम हुसैन बन जाएंगे और भूमध्यसागर में पश्चिमी सेना व संपत्तियों को बर्बाद कर देंगे। सद्दाम हुसैन के खात्मे के बाद भी इराक अभी तक उबल रहा है। ऐसे में अमेरिका नहीं चाहता था कि इस्लामी देशों में उसे एक और जख्म मिले। इस कार्रवाई में अरब लीग के कुछ देशों का समर्थन मिलना महत्वपूर्ण रहा। इससे संयुक्त राष्ट्र के इस मिशन पर मुस्लिम देशों की भी मुहर लग गई।
शुरू में नाटो हवाई हमलों का घातक असर पड़ता दिखाई दिया और विद्रोहियों ने कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। किंतु कुछ ही सप्ताह में लीबियाई सेना ने पलटवार किया और बागियों को धूल चटा दी। मई में अंतरराष्ट्रीय आपराधिक अदालत ने मानवता के खिलाफ अपराधों के आरोप में गद्दाफी की गिरफ्तारी की आदेश सुनाया। पिछले कुछ दिनों में अचानक बाजी पलट गई और पश्चिम देशों के समर्थन से विद्रोहियों ने सरकार पर धावा बोल दिया और त्रिपोली के बड़े भाग पर कब्जा जमा लिया।
अब लीबिया में नेशनल ट्रांजिसन काउंसिल के नेतृत्व में सत्ता हस्तांतरण पर विचार शुरू हो गया है। एनटीसी ने गद्दाफी के बाद देश को चलाने के लिए विशेष योजना तैयार की है। इन योजनाओं में संवैधानिक सत्ता की स्थापना भी शामिल है। गद्दाफी के बाद के लीबिया को एक और बड़ी अड़चन का सामना करना पड़ रहा है। दरअसल लीबिया में अनेक राजनीतिक और जातीय समूह हैं। देश के अलग-अलग भागों के इन लोगों ने गद्दाफी के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में योगदान दिया है और अब हर कोई अधिक से अधिक राजनीतिक लाभ उठाना चाहता है। निहित स्वार्थो को तिलांजलि देकर संयम और परिपक्वता से काम लेकर ही इन्हें संतुष्ट किया जा सकता है। बागी खेमें में इतनी मतभिन्नता है कि इन्हें एकजुट रखना बेहद मुश्किल है। विविध राजनीतिक मतों और विचारधाराओं से बंधे होने के कारण यह काम और कठिन हो गया है।
लीबिया में नई प्रशासकीय व्यवस्था को देश के सामने विद्यमान बड़ी समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, खंडित समाज और अन्य विचारधाराओं के प्रति गहरी पैठ वाली असहिष्णुता कुछ ऐसी ही समस्याएं हैं। इसी प्रकार, गृहयुद्ध में तबाह शहरों के पुनर्निर्माण के कार्य को भी कम नहीं आंका जा सकता। एक और उलझाने वाला मुद्दा यह है कि बेंगाजी में सरकारी सेना के खिलाफ मोर्चा संभालने वालों में कुछ इस्लामी लड़ाकों ने भी योगदान दिया है। ये लड़ाके अनियंत्रित मिसाइलों की तरह लीबिया में नई राजनीतिक शक्ति को पूरी तरह तबाह कर सकते हैं।
यद्यपि लीबिया युद्ध खत्म होने के करीब है, किंतु इसे पूरी तरह समाप्त नहीं माना जा सकता। गद्दाफी फिलहाल परास्त हो गए हैं, किंतु वह चुप बैठने वाले नहीं हैं। सच्चाई यह है कि गद्दाफी का अब तक कुछ पता नहीं चल पाया है। वह विद्रोही शक्तियों को झटका दे सकते हैं। ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि गद्दाफी के वफादार सैनिकों का अभी भी सिरते और सभा जैसे महत्वपूर्ण शहरों पर नियंत्रण है। कोई भी पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि यह गद्दाफी युग का अंत है या फिर एक नए असली युद्ध की शुरुआत।
लेखक राजीव शर्मा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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