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डॉक्टरों का विदेशी मर्ज

जागरण मेहमान कोना
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भारत के चिकित्सा क्षेत्र पर प्रतिभा पलायन का बुरा असर पड़ रहा है। विदेशों में लुभावने अवसर तलाशने वाले भारतीय डॉक्टरों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक जुलाई के अंत तक करीब 767 डॉक्टर भारत छोड़ कर दूसरे मुल्कों के लिए रवाना हो चुके थे। इन सभी डॉक्टरों ने भारतीय चिकित्सा परिषद से गुड स्टैंडिंग सर्टिफिकेट प्राप्त किए थे। विदेशों में कार्य करने के लिए डॉक्टरों को यह प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य होता है। चिकत्सा परिषद ने 2008 में 1002, 2009 में 1386 और 2010 में 1264 प्रमाणपत्र जारी किए थे। सरकार इन प्रमाणपत्रों के आधार पर यह अंदाजा लगाती है कि कितने डॉक्टर भारत छोड़ चुके हैं, लेकिन वास्तविक संख्या इससे अधिक हो सकती है क्योंकि विदेशों में बसने वाले डॉक्टरों के डेटा के रिकॉर्ड के लिए कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं है। बड़ी संख्या में भारतीय डॉक्टरों का विदेश जाना भारतीय चिकित्सा क्षेत्र के लिए बुरी खबर है क्योंकि देश में पहले से ही डॉक्टरों की कमी है। भारत में इस समय सिर्फ 6.13 लाख डॉक्टर हैं जबकि आवश्यकता 13.3 लाख की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रति एक हजार लोगों पर डॉक्टर की संख्या एक से भी कम है। यह आंकड़ा 0.6 प्रतिशत बैठता है। इसकी तुलना में चीन में प्रति एक हजार लोगों पर 1.4 डॉक्टर हैं।


लांसेट पत्रिका में हाल ही में प्रकशित एक अध्ययन के मुताबिक भारत में दस हजार लोगों की आबादी पर सिर्फ आठ हेल्थकेयर कर्मचारी, 3.8 एलोपैथिक डॉक्टर और 2.4 नर्सें उपलब्ध हैं। यदि हम दूसरे देशों के साथ तुलना करें तो यह संख्या विश्व स्वास्थ्य संगठन के बेंचमार्क से बहुत नीचे है। संगठन ने 10,000 लोगों पर 25.4 डॉक्टरों और कर्मचारियों का मानक सुझा रखा है। भारतीय मूल के डॉक्टरों की ब्रिटिश एसोसिएशन के मुताबिक ब्रिटेन में करीब 40,000 भारतीय डॉक्टर वहां की आधी से अधिक आबादी का इलाज कर रहे हैं। इसी तरह अमेरिकी एसोसिएशन के अनुसार भारतीय मूल के 50,000 भारतीय डॉक्टर अमेरिका में हैं। ऑस्ट्रेलिया में कार्यरत 20 प्रतिशत डॉक्टरों ने अपनी बुनियादी शिक्षा भारत में प्राप्त की है, जबकि कनाडा के हर 10 डॉक्टरों में से एक का संबंध भारत से है। एक तरफ जहां बाहरी मुल्क भारत के उत्कृष्ट डॉक्टरों के स्वागत के लिए आतुर हैं, वहीं भारत अपने प्रतिभाशाली डॉक्टरों को रोक पाने में असमर्थ हो रहा है। भारत का सिरदर्द इस बात से और भी ज्यादा बढ़ गया है कि डॉक्टरी पेशे में भारतीय छात्रों की रुचि कम होती जा रही है। पिछले कुछ वर्षो से मेडिकल प्रवेश परीक्षा में बैठने वाले छात्रो की संख्या में कमी आई है।


भारत को इस समय 6-7 लाख डॉक्टरों की जरूरत है। इन्हें प्रशिक्षित करने में पांच से दस साल लगेंगे। मांग और आपूर्ति में देखा जा रहा यह बहुत बड़ा अंतर सिर्फ भारतीय डॉक्टरों के पश्चिम की ओर कूच करने के कारण ही उत्पन्न नहीं हुआ है। डॉक्टरों की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए सरकार को मेडिकल शिक्षा के विस्तार और उसमें गुणात्मक सुधार के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए मेडिकल शिक्षा पर गठित टास्क फोर्स के आंकड़ों के मुताबिक भारत में अनुमानत: 300 मेडिकल कॉलेज हैं, जहां हर साल 34,595 छात्र प्रवेश लेते हैं। डॉक्टरों की विश्व औसत की बराबरी करने के लिए भारत को 600 कॉलेज और खोलने होंगे। भारत में हर साल 30,558 मेडिकल स्नातक तैयार होते हैं। एक अच्छे डॉक्टर के लिए सिर्फ एमबीबीएस होना ही पर्याप्त नहीं होता। उसे स्पेशलाइजेशन के लिए पीजी कोर्स भी करना होता है, लेकिन पीजी सीटों के मामले में भारत का हाथ बहुत तंग है। देश के मेडिकल कालेजों में सिर्फ 12,346 पीजी सीटें है। समुचित संख्या में पीजी सीटें उपलब्ध नहीं होने के कारण बहुत से डॉक्टर उच्च अध्ययन के लिए विदेश की राह पकड़ रहे है। देश में कमाऊ स्पेशलाइजेशन वाले कोर्सो की मांग बढ़ रही है और प्राइवेट मेडिकल कॉलेज इसकी आड़ में अनापशनाप पैसा कमा रहे हैं। अभी हाल ही में नवी मुंबई के एक प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएट रेडियोलॉजी सीट 1.7 करोड़ में बिकी थी।


मुकुल व्यास स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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