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शिक्षकों को दोष देना बेमानी

जागरण मेहमान कोना
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शिक्षकों को दोष देना बेमानी लोकमित्र तारीफों की तरह आलोचनाओं का भी सरलीकरण होता है। अब इसे ही लें। आप किसी से भी बात करिए, चाहे वह संदर्भ तक से वाकिफ न हो, लेकिन अगर शिक्षा, शिक्षकों और नई पीढ़ी पर बात होने लगे तो वह छूटते ही कहेगा कि अब अध्यापकों में भला वह जज्बा कहां है, जो पहले हुआ करता था? पहले तो अध्यापक पीढ़ी गढ़ा करते थे। अब तो तनख्वाह के लिए ड्यूटी की खानापूर्ति भर करते हैं। मगर यह सही नहीं है। दरअसल, हम जरूरतें तो वर्तमान की देखते हैं, लेकिन जब बात आदर्शो की होती है तो हम अतीत की तरफ देखना पसंद करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि शिक्षकों के त्याग, बलिदान और अपने विद्यार्थियों के लिए कुछ भी कर जाने, किसी भी हद तक गुजर जाने का समृद्ध इतिहास है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर शिक्षक अपने दौर की जरूरतों को भी ध्यान में रखता है। आज एक तरफ तो हम अपने शिक्षकों पर यह तोहमत मढ़ते हैं कि अब वह सर्वपल्ली राधाकृष्णन और रवींद्र नाथ टैगोर जैसे शिक्षक नहीं हैं, जो अपने छात्रों को जीवनमूल्य दें।


दूसरी तरफ हम यह भी उम्मीद करते हैं कि हमारे बच्चे ऐसे स्कूलों में पढ़ें, जहां आधुनिक और प्रोफेशनल पढ़ाई होती हो ताकि पढ़ाई पूरी करते ही हमारे बच्चों को आकर्षक पे स्केल मिले। मगर क्या आप जानते हैं कि देश में किन स्कूलों की सबसे ज्यादा मांग है? कौन-से ऐसे व्यावसायिक शैक्षिक संस्थान हैं, जहां हर कोई पढ़ना चाहता है? जी, हां! ये वही देश के गिने-चुने व्यावसायिक शैक्षिक संस्थान हैं, जहां का कैम्पस प्लेसमेंट अखबारों की सुर्खियां बनता है। लोग नामी-गिरामी मैनेजमेंट संस्थानों में कई लाख रुपये सालाना देकर बच्चों की पढ़ाई के लिए तैयार रहते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि अभी इनकी पढ़ाई खत्म भी नहीं होगी कि उनके बच्चों को ऐसा प्लेसमेंट मिलेगा, जिसके बारे में उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। दरअसल, यही विरोधभास है। अब हम अगर मान लें कि अध्यापकों का पहला काम मूल्यों का गढ़ना है तो कोई अच्छा अध्यापक मैनेजमेंट संस्थानों में हो ही नहीं सकता। क्योंकि मैनेजमेंट संस्थानों में जीवनमूल्यों के खिलाफ ही पढ़ाया जाता है, खिलाफ ही सिखाया जाता है। हालांकि खिलाफ का मतलब नकारात्मक नहीं है, लेकिन अतिरिक्त सजगता से अधिकतम मुनाफा कैसे हासिल किया जाए, प्रबंधन संस्थानों की शिक्षा का सार और प्रबंधन की सर्वोच्च कला यही है। अब आप जब मुनाफा की बात करते हैं तो कोई भी मुनाफा किसी न किसी की जेब से ही होता है।


जब दुकानदार को सौदा बेचकर खूब मुनाफा मिलता है तो ग्राहक का नुकसान होता है। ग्राहक की परेशानी बढ़ती है। इसी तरह जब प्रबंधन की कला के रूप में इस तरह कमाने की तरकीबें सिखाई जाएं कि जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों की जेबें ढीली कराई जा सकें तो भले ही जेबों को ढीली कराना आपराधिक कृत्य न हो, लेकिन परिणाम में तो यह पूरी सजगता से हासिल किया गया वह लाभ है, जिसमें किसी न किसी को तो परेशानी होनी ही है। अब आप ही बताइए कि प्रबंधन संस्थानों के अध्यापक अपने विद्यार्थियों को मुनाफे की कला सिखाएं या जीवन के मूल्य सिखाएं। जीवन के मूल्य तो कहते हैं कि किसी को ठगो मत, लेकिन प्रबंधन की कला का सारा फोकस यही है कि सामने वाले को पता ही न चले और आप उसे अधिक से अधिक खाली करवा लें। दरअसल, हर दौर के जीवनमूल्यों की अपनी एक खास सीमा होती है। हम जिस दौर के अध्यापकों को आज तक आदर्श के सिंघासन से उतार नहीं पाए, वे आजादी के संघर्ष के दौर के अध्यापक हैं, जिनका एक खास तरह का जीवनमूल्य था। जो बच्चों में कूट-कूटकर देशभक्ति की भावनाएं भरते थे। देश को हर हाल में आजाद कराने की भावनाएं भरते थे। दरअसल, यह उस दौर की जरूरत थी और उस दौर के माहौल का हिस्सा था।


आज हम आजाद हैं। किसी देश को कभी भी देशभक्त की भावना ओवरडोज नहीं होती। उसकी हमेशा जरूरत रहती है, लेकिन हम जिस दौर के अध्यापक की मूरत अपने दिलो-दिमाग से आज तक नहीं निकाल पाए, उस दौर में देशभक्ति सिर्फ जीवनमूल्य नहीं, बल्कि जीवन ध्येय भी था, क्योंकि हमारे तमाम बेहतरी के रास्ते का आखिरी सिरा आजादी था। अगर आजादी नहीं हासिल होती तो सारे मूल्य बेकार थे। आज ऐसा नहीं है। आज सारा दबाव आगे बढ़ने का है। ग्लोबल विश्व की चुनौतियों के बीच न सिर्फ अपने वजूद को बरकरार रखना है, बल्कि अपने वजूद को दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण बनाने की चुनौती का यह दौर है। ऐसे में भला अध्यापक वैसे कैसे रह सकते हैं?


लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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