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हमारे देश में जिस उदारता से आतंकियों और विध्वंसकारियों को क्षमादान की बातें होती हैं, वे नए-नए हमलों को निमंत्रित करने के सिवा कुछ नहीं। दिल्ली हाईकोर्ट में हुए बम विस्फोट के बाद भी हमारे कर्णधारों के बयान में सब कुछ है, मगर यह बिलकुल गायब है कि वे दोषियों को हर हाल में दंडित करेंगे। यह अनायास नहीं। दस वर्ष पहले न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर विध्वंस के बाद अमेरिका में आज तक कोई और आतंकी हमला नहीं हो सका, जबकि भारत में आतंकी हमले सालाना दर से हो रहे हैं और क्यों न हों। जब लंबी, खर्चीली कानूनी प्रक्रिया के बाद सर्वोच्च न्यायालय से भी संसद पर आतंकी हमले के आरोपी का अपराध साबित हो जाता है, न्यायालय आतंकी मुहम्मद अफजल को फांसी की सजा देता है, पर सजा की तामील नहीं होती। पहले मानवाधिकारी उसे बचाने के लिए विविध हथकंडे अपनाते हैं फिर नेतागण उसकी फांसी टालते हैं। इस बीच वषरें बीत जाते हैं। संकेत समझ कर वोटों के सौदेबाज अफजल के लिए बोलने लगते हैं। छिपी धमकियां तक आ जाती हैं कि अगर फांसी हुई तो सजा सुनाने वाले जज की हत्या हो सकती है। और अब तो जम्मू कश्मीर की विधानसभा प्रस्ताव पारित करने के फिराक में है कि अफजल को फांसी न दी जाए। यह सब इसीलिए संभव हुआ, क्योंकि आतंकियों को सजा देने के प्रति हम कटिबद्ध नहीं हैं। उलटे यदि अपराधी किसी विशेष समुदाय का हो तो उसके साथ नरमी बरतने का चौतरफा उपाय होता है। अन्य संभावित आतंकियों को बचाने के लिए भी विशेष कानून पोटा तक को रद कर दिया जाता है। आतंकियों के घर जाकर बड़े नेता उन्हें निर्दोष होने का प्रमाण-पत्र देते हैं और उनसे लड़ते बलिदान हुए पुलिसकर्मियों को ही लांछित करते हैं। कुख्यात आतंकवादी को ‘लादेन जी’ कह कर सम्मान देते हैं, जिनका समुचित मजहबी तरीके से अंतिम संस्कार होना चाहिए था।
यदि आतंकियों के प्रति नरमी दिखाने, बचाने और प्रश्रय तक देने के इतने इंतजाम इस देश में हों तब नए-नए आतंकियों को शह क्यों न मिले? अमेरिका में यह सब नहीं हुआ। उसने अपने ऊपर हमला करने वालों को दंड देने में पूरी शक्ति लगा दी। अमेरिकी विदेश नीतियों की जितनी भी आलोचना की जाए, पर उन्हें यह श्रेय देना पड़ेगा कि अपने देश की सुरक्षा और सम्मान पर उन्होंने समझौता नहीं किया। हमने ठीक उलटा किया है। निजी या दलीय स्वार्थ, अज्ञान और भीरुता आदि कारणों से राजनेता आतंकवाद से लड़ने से कतराते हैं। वरना बुद्धिजीवियों तथा मीडिया के एक प्रभावशाली हिस्से ने जितनी ताकत नरेंद्र मोदी को जलील और हलाल करने की तरकीबों में लगाई, उसका दसवां भाग भी आतंकियों को जल्दी और कड़ी सजा देने के लिए लगाई होती तो हमें आज ये दिन नहीं देखने पड़ते।
आखिर हमारे देश के नेता यह प्रतिज्ञा क्यों नहीं करते कि आतंकियों को निश्चित समय-सीमा में कड़ा से कड़ा दंड दिया जाएगा? कि इसके लिए विशेष कानून और विशेष अदालतें बनाई जाएंगी? दुनिया के कई देशों में ऐसे प्रावधान हैं। हमने भी ऐसा कानून बनाया था, पर वोट-बैंक से सौदेबाजी की लालसा में कुछ नेताओं ने उसे खत्म कर दिया। इन कदमों का संदेश स्वत: स्पष्ट है। इसीलिए किसी सुरक्षा सैनिक द्वारा ‘मानवाधिकार हनन’ होने पर उसे दंडित करने की घोषणाएं निरंतर दोहराई जाती हैं। उसके लिए जुलूस निकाले जाते हैं, किंतु आतंकियों को दंडित करने की न घोषणा होती है, न उसका कोई दबाव बनाया जाता है। इसलिए आज जब दिल्ली हाई कोर्ट में हुए बम धमाके में 11 जानें जा चुकी हैं और पांच गुना घायल हैं तब चाहे जितनी हाय-तौबा हो, किंतु इसके दोषियों के दंडित होने की बात न सोचना ही अच्छा है। पहले तो यदि इस कांड के सुराग मिले तो ‘निर्दोष लोगों को परेशान करने’ की शिकायत होगी, फिर यदि पुख्ता सबूत के साथ दोषी पकड़ा गया तो उसे कानूनी नुक्तों और प्रक्रियाओं का हर लाभ पहुंचा कर मामला वषरें लटकाया जाएगा। तब तक बम-कांड के दिन का धक्का और क्षोभ बीत चुका होगा।
पुरानी कहावत है कि किसी पकड़े गए अपराधी का सबसे बड़ा मददगार समय होता है। किसी अपराध की जांच और उसके दोषी पर कार्रवाई में जितनी देर हो उसका लाभ प्राय: अपराधी को ही मिलता है। इसीलिए विशेष प्रकार के जघन्य अपराधों के लिए विशेष कानून और न्यायालय सारी दुनिया में बनते हैं। मगर हां, यह उन्हीं देशों में होता है जहां अपने नागरिकों की जान और राष्ट्रीय सम्मान की चिंता की जाती है। हमारा देश इस मामले में अनोखा साबित हुआ। यहां सामान्य नागरिकों, सैनिकों और पुलिसकर्मियों की जान बड़ी सस्ती मानी जाती है। उनकी हानि होने पर हमारे नेता, मीडिया और बुद्धिजीवी कतई परवाह नहीं करते, जबकि आतंकियों, माओवादियों और अलगाववादियों की जान जाने पर शोर-शराबा शुरू हो जाता है। कोई फिक्र में पड़ जाता है कि मृतकों में कहीं निर्दोष तो नहीं थे? कहीं उन्हें गलत तरीके से तो नहीं मारा गया? जबकि आतंकियों के हाथों क्रूरतम तरीकों से मारे गए सैनिक अफसरों के प्रति भी हम नितांत संवेदनहीन रहते हैं। मानो उन सैनिकों के प्रति हमारी चिंता का कोई कारण ही न बनता हो! यह दोहरापन एक सुनिश्चित पैटर्न बन चुका है।
आतंकवाद से लड़ने की इस आत्मघाती, ढीली पद्धति के कारण ही भारत आतंकियों का प्रिय निशाना रहा है। हम दुनिया में आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित देश हैं, लेकिन निरर्थक लफ्फाजी के अलावा हमारे कर्णधार और बुद्धिजीवी कुछ नहीं करते। यहां तक कि लोगों को आतंकवाद के बारे में सच बताने तक में भी भयंकर मिथ्याचार रहा है। इससे हमारी जनता व सुरक्षा बलों का मनोबल गिरता है और दुनिया हमें एक संकल्पहीन देश के रूप में देखती है।
लेखक एस शंकर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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