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इस भूमि अधिग्रहण विधेयक से उम्मीदें

जागरण मेहमान कोना
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बहुप्रतीक्षित भूमि अधिग्रहण विधेयक हमारे सामने आ चुका है। केंद्र सरकार ने वादा किया था कि नई भूमि अधिग्रहण नीति के मसौदे पर 31 अगस्त तक लोगों की राय ली जाएगी और उसके बाद इसे विधेयक का रूप देकर संसद में पेश किया जाएगा। पूरे देश में इस बात पर तो सर्वसम्मति है कि अंग्रेजों द्वारा 1894 में बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून को खत्म कर नया कानून बनाया जाना चाहिए, लेकिन कानून के मसौदे पर सर्वसम्मति नहीं है। किंतु एक बात पर लगभग आम राय है कि कानून ऐसा होना चाहिए, जो भूमि अधिग्रहण को लेकर उभरे सारे प्रश्नों और द्वंद्वों का समुचित उत्तर दे सके। तो क्या जो विधेयक हमारे सामने हैं, उनसे कारोबार, उद्योग, सड़कों आदि के नाम पर हुए अंधाधुंध अधिग्रहण से पैदा द्वंद्वों और प्रश्नों का समाधान हो जाता है? अगर उभरे सारे प्रश्नों को चिह्नित करें तो इनमें प्रमुख पांच दिखाई देते हैं। एक, खेती योग्य जमीनें कितनी अधिग्रहीत हों? दो, मुआवजे की राशि और पुनर्वास। तीन, भूमि पर लगे उद्योग, होने वाले कारोबार या निर्माण में भूमि मालिक की हिस्सेदारी। चार, निजी उद्योग या कारोबार के लिए अधिग्रहण में सरकार का हस्तक्षेप हो या नहीं। अगर हो तो कितना? और पांच, जमीन मालिकों की इच्छाओं का अकेले और सामूहिक रूप से अधिग्रहण की प्रक्रिया में कितना महत्व मिलना चाहिए? विधेयक के नामकरण राष्ट्रीय भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना विधेयक-2011 का अर्थ है कि यह एकांगी अधिग्रहण तक सीमित नहीं है।


विस्थापित होने वाले भूमि मालिकों के पुनर्वास के साथ उनके जीविकोपार्जन को भी पुनस्र्थापना प्रावधानों में विचार किया गया है। इसे एक साथ मिला देना काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन विचार के लिए आए मसौदा और मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत विधेयक में अंतर है। पहले प्रश्न के उत्तर में बहुफसली वाली सिंचित खेती की जमीनों का अधिग्रहण नहीं करने के पूर्व मसौदे की जगह किसी गांव की ऐसी पांच प्रतिशत के अधिग्रहण का प्रावधान आया है। इसी प्रकार मूल मसौदे में गांवों की जमीनों को बाजार से छह गुना और शहरों की बाजार भाव से दो गुना रकम दिए जाने का प्रावधान था। विधेयक में गांवों की जमीनों का बाजार से चार गुना मूल्य निर्धारित कर दिया गया है। एक महत्वपूर्ण परिवर्तन और है। मसौदे में अधिग्रहीत जमीन पर पांच साल के दौरान प्रस्तावित परियोजनाओं का निर्माण आरंभ नहीं होने पर किसानों का वापस करने का प्रावधान था, जबकि विधेयक में इसे हटा दिया गया है। इसके अनुसार परियोजना आरंभ होने की अवधि 10 वर्ष की गई है और उस समयावधि में भी परियोजना आरंभ नहीं हुई तो जमीन किसानों को नहीं, संबंधित राज्य के भूमि बैंक को सौंप दी जाएगी। इन तीन प्रावधानों पर कारोबार, उद्योग समूहों का असर साफ देखा जा सकता है। बावजूद इसके विधेयक के प्रावधानों को हम किसान या भूमि मालिकों के विरुद्ध नहीं कह सकते।


वास्तव में अधिग्रहण एवं पुनर्वास दोनों को साथ जोड़ने से यह एक न्यायसंगत और उचित कानून बन सकता है। इसका हम यह अर्थ निकाल सकते हैं कि मुआवजे, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना के नियम का पालन नहीं करने पर अधिग्रहण रद्द हो सकता है। मुनाफे में भूमि मालिकों की हिस्सेदारी की बात सीधे तौर पर तो नहीं है, लेकिन शहरीकरण के लिए ली गई जमीन 10 वर्ष के अंदर किसी को बेची जाती है तो मुनाफे की 20 प्रतिशत हिस्सेदारी मालिको की होगी। हर परिवार के सदस्य को नौकरी, दो लाख रुपये नकद और विस्थापन के लिए परिवहन व्यय के रूप में एकमुश्त 50 हजार रुपये की राशि दी जाएगी। परिवार के एक सदस्य को एक वर्ष तक 3000 रुपये का भत्ता, परिवार को 20 वर्षो तक 2000 रुपये पेंशन आदि प्रावधान भूमि पर निर्भर लोगों के हक में हैं। जनहित की परिभाषा तय होने के बाद निजी परियोजनाएं इससे बाहर निकल जाएंगी और बिजली, रेलवे, सिंचाई, बंदरगाह आदि सरकारी परियोजनाएं ही इसके दायरे में आएंगी। यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है। अब सरकार केवल सरकारी आवश्यकता के लिए ही अधिग्रहण करेगी। यदि कोई निजी कंपनी उद्योग या करोबार के लिए जमीन चाहता है तो उसे सीधे भूमि मालिकों से खरीदारी करनी होगी। अगर 80 प्रतिशत स्थानीय लोग सहमत होते हैं, तभी सरकार उसमें हस्तक्षेप करेगी। तो सरसरी तौर पर नजर डालने से ही ऐसा लगता है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक में उभरे प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश है। अधिग्रहणों के कारण खेती योग्य जमीनों का सिकुड़ता रकबा सबसे बड़ी चिंता का कारण है। विधेयक के कानून बनने के साथ बहुफसली जमीन पांच प्रतिशत से ज्यादा किसी सूरत में अधिगृहीत नहीं होगी।


आपात अधिनियम लागू करने के निषेध के बाद ऐसा लगता है कि सुरक्षा जैसी विशेष परिस्थितियों के अलावा ऐसी जमीनों का अधिग्रहण नहीं होगा। जिस भयानक ढंग से उद्योगों, आवासीय परिसरों, टाउनशिप, कारोबारों के नाम पर अंधाधुंध अधिग्रहण के नाम पर जमीन हड़पने की प्रक्रिया चल रही है, उसके आलोक में विधेयक राहतकारी है। लेकिन हमारा ऐसा विचार इसलिए बन रहा है, क्योंकि जमीनों के किस्म, उसकी उपयोगिता आदि का विचार किए बिना सत्ता की कानूनी ताकत और पूंजी के गंदे मेल से मनमाना दाम देकर गांव-गांव से जमीन मालिकों को बेदखल करने की प्रक्रिया चल रही है। छिटपुट उदाहरणों को छोड़ दें तो बेदखल हुए लोगों का पुनस्र्थापन तो दूर पुनर्वास की भी व्यवस्था नहीं हुई। वास्तव में अधिग्रहण कानून को जितना भी बेहतर बना दीजिए, समस्या का समाधान नहीं हो सकता। समस्या तो वर्तमान आर्थिक दर्शन और इससे विकसित नीतियां व ढांचा है। यह दर्शन कृषि या उससे जुड़ी गतिविधियों वाली भूमि के उससे परे असीमित उपयोग को विकास के लिए अपरिहार्य मानता है। अधिग्रहण इस दर्शन की पैदाइश है। अंग्रेजों ने जमीन अधिग्रहण नीति क्यों बनाई? औपनिवेशिक राज जल, जंगल और जमीन सहित संपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों के मनमाना उपयोग की वैध शक्ति प्राप्त करना चाहता था। अंग्रेजों की भूमि अधिग्रहण नीति ने, जो वस्तुत: हड़पन नीति थी, भारत की स्वावलंबिता, इसकी शीर्ष आर्थिक स्थिति, सामाजिक शांति और सद्भाव, समाज के उदार चरित्र आदि को नष्ट कर दिया। ब्रिटिश शासन में इसके विरुद्ध संघर्ष का लंबा और त्रासदपूर्ण इतिहास है। विश्व के सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक इतिहास में भूमि के स्वामित्व, अधिग्रहण, उपयोग की सर्वाधिक भूमिका रही है।


आजादी के बाद समाप्त करने की जगह इस कानून को 64 वर्षो तक बनाए रखना समझ से परे है। सभी सरकारें इसका मनमाना उपयोग करती रही हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार यमुना एक्सप्रेस-वे के लिए 7200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर चुकी है और गंगा एक्सप्रेस-वे के लिए 12 जिलों की 33 हजार एकड़ जमीन अधिग्रहण की योजना है। ये जमीनें बहुफसली हैं और कई हजार गांव इन पर बसे हैं। इसका परिणाम केवल सर्वनाश होगा, लेकिन योजनाकार इसे विकास का सूचक साबित करते हैं। तो जरूरत इस आर्थिक सोच को बदलने की है। मनुष्य की मूलभूत जरूरतें हवा, पानी, भोजन, वस्त्र और आवास जमीन से ही पूरी होंगी। वास्तव में भूमि की नीति ऐसी हो, जिनमें किसी भी परिस्थिति में उसके मूल स्वरूप और स्वभाव के स्थायी रूप से बदलने की गुंजाइश नि:शेष हो जाए। यह वर्तमान भूमि अधिग्रहण विधेयक के कानून बन जाने से नहीं होगा। हमें एक व्यापक भू नीति चाहिए।


लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं


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