- 1877 Posts
- 341 Comments
आज बाजार के जरिए भले ही हिंदी अपनी पैठ बढ़ा रही है। इस पर हम हिंदी वाले इतरा भी रहे हैं। इसे ही हिंदी के डंके के तौर पर पेश कर रहे हैं, लेकिन क्या सही मायने में हिंदी को जो हैसियत मिलनी चाहिए, वह अभी तक मिल पाई है? राजभाषा अधिनियम 1963 के बाद 1967 में जो संशोधन हुआ, उसमें संघीय कार्यो के लिए द्विभाषिक स्थिति अपनाई गई। हिंदी को राजभाषा के तौर पर स्वीकृत करके कुछ प्रयोजनों के लिए उसका प्रयोग आवश्यक तो किया गया। साथ ही अंग्रेजी को भी सरकारी कामकाज में उन प्रयोजनों के चलते रहने की अनुमति दी गई। जिसके लिए वह संविधान लागू होने के पहले से ही चल रही थी। यही वह पेच है, जिसने हिंदी को अब तक अपना स्थान ग्रहण करने नहीं दिया है। इसी वजह से हिंदी आज भी कम से कम देसी विमर्श और नीति निर्माण की भाषा नहीं बन पाई। ऊपर से देखने से ये प्रावधान हिंदी और देश की एकता को बचाए रखने के लिए किए गए लगते हैं, लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है। दरअसल, तमिलनाडु के कुछ नेताओं को राष्ट्रीय राजनीति में वह हैसियत नहीं मिल पाई, जिसकी वे उम्मीद पाले बैठे थे तो उन्होंने हिंदी विरोध की नीति अख्तियार कर ली। उन्हें लगता था कि हिंदी न जानने की वजह से उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में वह हैसियत नहीं मिल पा रही है, जो उन्हें मिलनी चाहिए।
1950 में संविधान लागू होने के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू तब के भारतीय गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होंने पुरुषोत्तम दास टंडन और दूसरे नेताओं की सहायता से कांग्रेस कार्यसमिति से डॉ. राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने का प्रस्ताव पारित करा लिया। जिस दिन ऐसा हुआ, उसी दिन हिंदी विरोध की एक राह खुल गई। निराश राजगोपालाचारी के मन में हिंदी विरोध की भावना भर गई। और हिंदी विरोध का तमिलनाडु में जो विरोध शुरू हुआ, लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के आते-आते हिंसक हो उठा। तब तमिल अस्मिता को मुखर करने की आवाज उठने लगी। हिंदी के खिलाफ हिंसक संघर्ष में जगह-जगह पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं। फिर तो तय ही हो गया कि इस देश में हिंदी की कॉरपोरेट, विमर्श और नीति निर्माण की भाषा बनने की राह संकरी होनी है और यह आज पूरी तरह से नजर आ भी रहा है। यह भी सच है कि गांधी जी ने आजादी के ठीक बाद बीबीसी को जो प्रतिक्रिया दी थी, उसमें उन्होंने साफ कह दिया था, पूरी दुनिया से कह दो कि गांधी हिंदी नहीं जानता। ऐसे में उम्मीद तो यही की जा रही थी कि उनके जिन अनुयायियों के हाथ में सत्ता आई है, वे कम से कम गांधी जी के सपनों के मुताबिक हिंदी को आगे बढ़ाएंगे और उस पर देश के विकास की नई इबारत लिखेंगे। लेकिन हालात ऐसे नहीं रहे। हिंदी को सही मायने में विमर्श, कॉरपोरेट या नीति निर्माण की भाषा न बनने देने के पीछे सामाजिक दबाव से ज्यादा राजनीतिक कारण रहे हैं।
हिंदी विरोध हिंसक भले ही साठ के दशक में हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू हिंदी को लेकर अगस्त 1959 में लोकसभा को आश्वस्त कर चुके थे कि अहिंदीभाषी लोगों पर हिंदी थोपी नहीं जाएगी। दरअसल, तब भी हिंदी को थोपने का सवाल नहीं था। आज पूरे जनमानस में एक धारणा यह भी फैला दी गई है कि जबरदस्ती हिंदी को थोपा जा रहा था, जिसकी वजह से हिंदी के विरोध में गैर हिंदी भाषी राज्य आगे आ गए, लेकिन सवाल यह है कि आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदी तो नहीं थोपी गई। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा जैसे दसियों संगठन बने और बनाए गए और उनके साथ लोग जुड़ते गए। हिंदी अगर थोपी जाती तो लोग तब भी विरोध करते, लेकिन तब तो उन्हें हिंदी की मशाल थामने में कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन जैसे-जैसे आजादी के बाद हिंदी को उसका असल और संवैधानिक हक दिलाने की बात होने लगी, वैसे-वैसे हिंदी विरोध की चिंगारी फैलने लगी। निश्चित तौर पर इसमें तमिल राजनीति की अपनी असफलताएं और तत्कालीन सत्ता की उनके प्रति सहानुभूति भी इसकी एक बड़ी वजह रही है। अन्यथा, संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिंदी की संवैधानिक स्थिति पर जारी बहस में ऐसा क्यों कहा होता, एक राज्य-एक भाषा के तत्व को संसार के सभी देशों ने अपनाया है। जो राष्ट्र इस तत्व को नहीं अपनाता, वह राष्ट्र संकट में पड़ता है। एक राज्य-एक भाषा हमेशा प्रभावकारी और बलशाली रहता है। बहुभाषी राज्य में एकता का निर्माण नहीं हो सकता। गौर करने की बात यह है कि अंबेडकर हिंदीभाषी नहीं थे। उनकी पढ़ाई भी अंग्रेजी माध्यम से ही हुई थी। बहरहाल, हमें यह देखना चाहिए कि आज की परिस्थितियों में उनका यह कथन कितना सटीक बैठ रहा है। महाराष्ट्र में जब भी राज ठाकरे को विष वमन करना होता है, हिंदी विरोध उनका जरिया बनता है।
असम में जब भी निशाना बनाने की बात होती है, आतंकी संगठन हिंदी भाषियों पर ही कहर बरपाते हैं। ऐसा इसीलिए संभव हो पाता है, क्योंकि हिंदी के खिलाफ जो राजनीति रही है, उससे हिंदी विरोध की मानसिकता फैलाने में आसानी रहती है। इस राजनीति पर निश्चित तौर पर उदारीकरण के बाद उभरे बाजार ने दबाव बनाना शुरू किया है। इसका ही असर है कि जिस तमिलनाडु में हिंदी विरोध के नाम पर मरने-मारने वाली पीढ़ी को अब हिंदी की अहमियत समझ में आने लगी है और उसने अपने बच्चों को हिंदी सिखाना शुरू कर दिया है। इसके बावजूद हिंदी को असल संवैधानिक रुतबा नहीं मिल पा रहा है तो इसके लिए निश्चित तौर पर राजनीति ही जिम्मेदार है। बाजार के जरिए हिंदी का प्रसार भले ही बढ़ रहा है, लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि जब तक राजनीति ईमानदारी और मजबूत इच्छाशक्ति से इसे लागू करने की कोशिश नहीं करेगी, विमर्श और कॉरपोरेट की दुनिया में हिंदी का आगे बढ़ना मुश्किल ही होगा।
लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Comments