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शायद वह दिन दूर नहीं जब हिंदी भाषा को बचाने के लिए भी एक जनांदोलन की जरूरत पड़ेगी। जाहिर है तब फिर अन्ना हजारे की जरूरत होगी। मौजूदा समय में हिंदी भाषा के सामने उसके वर्चस्व को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है। हमारे देश की सरकारों ने सदैव हिंदी के साथ अन्याय किया है। सरकार ने पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा माना फिर राजभाषा का दर्जा दिया और अब इसे संपर्क भाषा भी नहीं रहने दिया। वैश्वीकरण और उदारीकरण के मौजूदा दौर ने हिंदी भाषा के सामने कांटे बिछा दिए हैं जिस कारण इसे सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है। समाज के धनाड्य और विकसित वर्ग ने अंग्रेजी को ही संपर्क भाषा के तौर पर स्वीकार किया। किसी भी निजी या सरकारी ऑफिसों के स्वागत कक्ष में बैठने वाले लोगों को अंग्रजी आनी चाहिए। स्वागत कक्ष के लिए हिंदी बोलने वालों को इसलिए नहीं रखा जाता कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। जबकि आम लोगों के लिए स्वागत कक्ष ही संपर्क का सबसे बड़ा साधन होता है।
हिंदी बोलने वालों की गिनती अब पिछड़ों में होती है। अंग्रेजी भाषा के चलन के चलते आज हिंदुस्तान भर में बोली जाने वाली हजारों भाषाओं का अंत हो रहा है। अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी की जगह अंग्रेजी सीखने की सलाह देते हैं। इसलिए वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला न दिलाकर अंग्रेजी पढ़ाने वाले स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। दरअसल इनमें उनका दोष नहीं है। अब ठेठ हिंदी बोलने वालों को रोजगार भी आसानी से नहीं मिलता। शु़द्व हिंदी बोलने वालों को देहाती और गंवार कहा जाता है। हिंदी भाषा की मौजूदा दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण खुद हिंदी समाज है। किसी संस्कृति की उन्नति उसके समाज की तरक्की का आईना होती है। मगर इस मायने में हिंदी समाज विरोधाभाषी है। हिंदी समाज अगर देश के पिछड़े समाजों का बड़ा हिस्सा है तो यह आंकड़ों की हद तक ही सही है, क्योंकि देश के समृद्ध तबके का भी एक बड़ा हिस्सा हिंदी समाज ही है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी समाज की उपेक्षा का दंश झेल रही है। हिंदी की लाज सिर्फ गांवों में रहने वाले लोगों से बची है, क्योंकि वहां आज भी इस भाषा को माना और बोला जाता है। हिंदी के कई बड़े अखबार और चैनल होने के बावजूद यह पिछड़ रही है।
भारत में आज भी छोटे-बड़े दैनिक और सप्ताहिक हैं। देश में 5000 हजार से भी ज्यादा अखबार प्रकाशित होते हैं, तकरीबन 1500 पत्रिकाएं हैं और 132 से ज्यादा हिंदी चैनल हैं। इसके बावजूद यदि हिंदी पिछड़ रही है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि सरकार इस भाषा के प्रति ज्यादा गंभीर नहीं है। इस भाषा और इस जुबान को बचाने के प्रति सरकार बिल्कुल भी प्रचार-प्रसार नहीं करती। इसलिए हिंदी भाषा आज खुद अपनी नजरों में दरिद्र भाषा बन गई है। लोग इस भाषा को गुलामी की भाषा की संज्ञा करार देते हैं। हिंदी महज अब कामगारों की भाषा तक सिमट कर रह गई है। सहज-स्वाभाविक सवाल उठता है आखिर क्यों इसे नौकरशाह, शासकों और संपन्न लोगों की भाषा नहीं माना और अपनाया जा रहा है? हमारे देश की आजादी के 65 साल बीत जाने के बावजूद जितनी दुर्दशा इस भाषा की हुई है उतनी किसी की भी नहीं हुई। अगर हालात ऐसे ही रहे तो हिंदी को बचाने के लिए भी हमें एक देशव्यापी जनआंदोलन करने की जरूरत पडे़गी। उस काम के लिए एक बार और किसी न किसी को फिर अन्ना हजारे की भूमिका निभानी होगी। मौजूदा समय में देश के करोड़ों छात्र जो आइआइटी, तकनीक, बिजनेस और मेडिकल आदि की पढ़ाई कर रहे हैं वे हिंदी भाषा से लगभग दूर हो गए हैं। उनके पाठ्यक्रमों में हिंदी पूरी तरह नदारद है। देश में ऐसे बच्चों की संख्या कम नहीं है जो आज हिंदी सही से लिख और पढ़ नहीं सकते। अब हिंदी को विदेशों में ज्यादा तरजीह दी जा रही है। विभिन्न देशों के कॉलेजों में हिंदी की पढ़ाई कराई जा रही है, लेकिन अपने ही देश में यह उपेक्षित है। दरअसल, विदेशी लोग भाषा के बल पर भारत में घुसपैठ करना चाहते हैं और जब वह हिंदी बोल और समझ सकेंगे तो अधिक आसानी से यहां घुस सकते हैं।
रमेश ठाकुर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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