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मध्यवर्ग का जीवन हुआ मुश्किल

जागरण मेहमान कोना
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Ashwani Mahajanअर्थशास्त्री पेट्रोलियम कंपनियों ने पेट्रोल की कीमतें एक बार बढ़ा दिये हैं और अब दिल्ली में पेट्रोल लगभग 67 रुपये प्रति लीटर हो गया है। अभी दो महीने पहले ही कंपनियों ने रसोई गैस पर 50 रुपये प्रति सिलेंडर, डीजल पर 3 रुपये और केरोसिन पर 2 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की थी। ध्यान देने वाली बात है कि जुलाई 2010 में दिल्ली में पेट्रोल 43 रुपये प्रति लीटर बिकता था। इसी प्रकार डीजल और रसोई गैस भी अभी के मुकाबले बहुत सस्ती थी। हालांकि पेट्रोलियम पदार्थो का बढ़ना कोई नई बात नहीं है। नया यह है कि पहले ये कीमतें सरकारी नियंत्रण में थीं, लेकिन जून 2010 से ये बाजारी नियंत्रण में चली गई। 2009 में आम चुनाव से पहले सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में 9 रुपये की कमी थी, लेकिन जैसे ही चुनाव संपन्न हुए, उसके कुछ ही समय बाद दो किस्तों में पेट्रोल पर उससे ज्यादा बढ़ा दिया गया। 2010 में पेट्रोल की कीमतें कई बार बढ़ाई गई। हाल ही में उनमें फिर से वृद्धि की गई थी और अब रसोई गैस, डीजल और गरीबों के काम आने वाले मिट्टी के तेल की कीमतें बढ़ा दी गई।


जून 2010 से अभी तक पेट्रोल और डीजलों की कीमतों में लगभग 10 बार वृद्धि की गई है। पहले से भारी मुद्रा स्फीति की मार झेल रहा आदमी सरकार की इस नीति से बिल्कुल असहाय-सा हो गया है। सरकार का यह तर्क है कि तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे के मद्देनजर पेट्रेलियम पदार्थो की कीमतों का बढ़ना लाजिमी है, लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि पेट्रोलियम पदार्थ उपभोग का मात्र एक पदार्थ नहीं है। यह यातायात, उद्योग आदि के लिए एक कच्चा माल भी है। जाहिर है कि किसी भी उद्योग के कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि होने पर उस उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें भी बढ़ जाती है। यानी बसों और यातायात के अन्य साधनों के किराए तो बढ़ेंगे ही, साथ ही साथ उत्पादन लागत बढ़ने के कारण उनकी कीमतों में भी वृद्धि होगी। 16 सितंबर 2011 को भारतीय रिजर्व बैंक ने मार्च 2010 से लगातार 12वीं बार रेपो रेट और रिवर्स रेपोरेट में 0.25 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए उसे क्रमश: 8.25 प्रतिशत और 7.25 प्रतिशत कर दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक का यह कहना है कि यह कदम लगातार बढ़ती महंगाई के मद्देनजर उठाया गया है।


भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 17 से भी कम महीनों में ग्यारह बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी सीधे तौर पर संकुचनवादी मौद्रिक नीति मानी जा सकती है। सामान्यतौर पर माना जाता है कि महंगाई का प्रमुख कारण मांग में वृद्धि होता है। वस्तुओं की कम उपलब्धता और बढ़ती मांग कीमतों पर दबाव बनाती है, इसलिए रिजर्व बैंक परंपरागत तौर पर ब्याज दरों में वृद्धि कर कीमतों को शांत करने का प्रयास करता है, लेकिन विडंबना यह है कि इतने कम समय में ब्याज दरों में भारी वृद्धि के बावजूद कीमत वृद्धि थमने का नाम नहीं ले रही और अगस्त माह तक आते-आते पिछले वर्ष की तुलना में महंगाई 9.78 प्रतिशत तक बढ़ गई। खाद्य पदार्थो में यह वृद्धि लगभग 10 से 13 प्रतिशत के बीच बनी हुई है, लेकिन रिजर्व बैंक की मृग-मिरीचिका का कोई अंत नहीं है। आज बढ़ती आमदनियों के युग में मध्यम वर्ग, विशेष तौर पर मध्यमवर्गीय युवा अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की जुगत में रहता है। ऐसे में अपना घर, कार या जीवन के अन्य साजो समान खरीदने के लिए वह बैंकों से उधार लेता है और उसे किस्तों यानी ईएमआइ से चुकाता है। जाहिर है, बढ़ते ब्याज दर से ईएमआइ भी बढ़ जाती है। ऐसे में मध्यम वर्ग की ईएमआइ बढ़ते जाने से रोजमर्रा के लिए उसके पास आमदनी बहुत कम बचती है। शायद नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता में आम आदमी नहीं है। जिस प्रकार से महंगाई बढ़ रही है, लगता है कि सरकार का उस पर कोई अंकुश नहीं रह गया है।


सरकार द्वारा कृषि की अनदेखी करने के कारण खाद्य पदार्थो की कीमतें तो लगातार बढ़ ही रही हैं। बढ़ते ब्याज की अदायगी, बढ़ते सरकारी ऋण और सरकारी घाटे को पूरा करने के लिए लगातार मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि महंगाई की आग में घी डालने का काम कर रही है। ऐसे में ब्याज दरों में अंधाधुंध वृद्धि देश के विकास की गति को थाम सकती है। अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन की यह पराकाष्ठा कही जा सकती है। जरूरी है कि सरकार महंगाई को रोकने में ब्याज दरों को बढ़ाने के अतिरिक्त और उपाय सोचे और पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों की बाजारी नियंत्रण की व्यवस्था को समाप्त करते हुए सरकारी नियंत्रण की नीति को पुन: प्रभावी करें।


इस आलेख के लेखक अश्विनी महाजन हैं


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