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इस युवराज की उपलब्धियों के मायने

जागरण मेहमान कोना
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मायानगरी मुंबई की चकाचौंध के बावजूद दरिद्रता और सामाजिक दृष्टि से अंधेरे में रहने के लिए अभी तक अभिशप्त रहे हॉकी खिलाड़ी युवराज वाल्मीकि अब उस दुनिया से निकल चुके हैं। हॉकी मैच में पाकिस्तान पर हालिया एशियाई चैंपियनशिप ट्राफी के फाइनल के दौरान भारत को मिली शानदार कामयाबी में युवराज के गोल को भला कौन भुला सकता है। हॉकी के मैदान में सफल होने के लिए जरूरी लय, ताल और गति सभी कुछ इस खिलाड़ी के पासमौजूद है। युवराज में भारत का अगला सुपरस्टार बनने की सभी योग्यताएं हैं। युवराज और पाकिस्तान के पूर्व टेस्ट क्रिकेटर युसुफ योहन्ना जो बाद में धर्म परिवर्तन करके मोहम्मद युनुस नाम धारण कर लिए थे में जबरदस्त समानता है। युनुस का संबंध भी मूलत: वाल्मीकि परिवार से है। हिंदू धर्म से ईसाई में धर्मातरित होने के बाद भी उनका परिवार लाहौर में सफाईकर्मी के रूप में ही काम कर रहा हैं। वह पाकिस्तान के योहन्ना की तरह से इस्लाम धर्म से नहीं जुड़े और न ही अपना धर्मातरण किया। कहने की जरूरत नहीं है कि हिंदू समाज के सामाजिक पिरामिड में वाल्मीकि समाज सबसे नीचे के पायदान पर बेचारगी की हालत में स्थित है। अपने घर के आसपास की किसी भी वाल्मीकि बस्ती में यदि आपको जाने का मौका मिल सके तो आपको मालूम चल जाएगा कि कितनी विषम परिस्थितियों में ये जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।


यह जाति आज भी प्राय: मैला उठाने से लेकर कचरे की सफाई तक के कामों से ही जुड़ी हुई हैं। अगर आप राजधानी दिल्ली में रह रहे हैं तो अंबेडकर स्टेडियम के पीछे बसी वाल्मीकि बस्ती में जाकर देखा जा सकता है कि भले ही हमारा देश आगे बढ़ रहा है और तरक्की की नई सीढि़यां चढ़ रहा है, लेकिन यहां रहने वालों की जिंदगी पहले की तरह से ही संघर्षो से भरी हुई है। यह लोग आज भी न्यूनतम नागरिक सुविधाओं के अभाव की स्थिति में रहने को मजबूर हैं। मूलत: उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से मुंबई में जाकर बस गए परिवार से संबंध रखने वाले हॉकी खिलाड़ी युवराज की कहानी भी उन तमाम वाल्मीकि परिवार के नौजवानों की कहानी से मिलती-जुलती है जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता दर्ज की। युवराज के परिवार से जुड़ी जो जानकारियां आ रही हैं उससे तो लगता है कि उनका परिवार सफाई के काम से नहीं जुड़ा हुआ है। युवराज के पिता मुंबई में टैक्सी चलाकर हर महीने छह हजार रुपये कमा पाते हैं। जाहिर है कि यह परिवार भी गरीबी के अभिशाप को झेल रहा है। युवराज के घर लौटने पर गदगद मां ने उसके लिए लजीज भोजन पकाने के लिए भी दूसरों से उधार लिया। डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक बार ठीक ही कहा था कि भारत में धर्म बदलने के बावजूद जाति नहीं बदलती है।


समाजवादी नेता और चिंतक भारत में जाति के असर पर टिप्पणी कर रहे थे। युसुफ योहन्ना से मोहम्मद युसुफ नाम का सफर तय करने वाले को भी पाकिस्तान के जाति के बंधन में जकड़े हुए समाज ने कभी समता का अहसास नहीं होने दिया। पाकिस्तान की क्रिकेट की जानकारी रखने वालों को मालूम है कि उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के चलते ही उन्हें पाकिस्तान क्रिकेट टीम की कप्तानी देर से मिली और बहुत ही कम समय के लिए पाकिस्तान के कप्तान रहे। हालांकि आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो समझा जा सकता है कि मोहम्मद युसुफ पाकिस्तान के महानतम बल्लेबाजों में शुमार किए जाते हैं और इस रूप में आने वाली क्रिकेट की पीढि़यां उन्हें अवश्य याद रखेंगी। उन्होंने अपने क्रिकेट जीवन में कुल 90 टेस्ट और 287 एक दिवसीय मैचों में पाकिस्तानी टीम की नुमाइंदगी की। कुछ साल पहले इमरान खान ने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि मोहम्मद युसुफ को उसकी जातीय पृष्ठभूमि के कारण कभी वह सब नहीं मिल सका जिसका कायदे से वह हकदार था। कौन नहीं जानता कि पाकिस्तान क्रिकेट पर तो पंजाबियों और राजपूतों का ही दबदबा रहा है और बाकी लोगों के लिए कोई ज्यादा गुंजाइश बचती नहीं है। यूं तो पाकिस्तान की तरफ से युसुफ से पहले तीन और ईसाई खिलाड़ी क्रमश: वैलियस मैथ्यूज, एंटाओ डिसूजा और डंकन शार्प खेल चुके हैं।


मैथ्यूज और डिसूजा के परिवार मूलत: गोवा के रहने वाले थे और वह शार्प एंग्लोइंडियन समुदाय से आते थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इन तीनों की पृष्ठभूमि मोहम्मद युसुफ से काफी अलग थी। ये पूर्व खिलाड़ी ईसाई समुदाय से होते हुए भी युसुफ से अलग तरह की सामाजिक पृष्ठभूमि से संबंधित थे। युवराज और युसुफ भले ही बड़े महानगरों यानी मुंबई और लाहौर से आते हों पर यह भी सच है कि जब इन दोनों ही खिलाडि़यों को पहली बड़ी सफलता मिली तब दोनों के घरों में टीवी तक नहीं था। युसुफ के बारे में कहा जाता है कि जब वह साल 1998 में अपनी जिंदगी का पहला टेस्ट मैच दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ खेल रहे थे तब उनके लाहौर के घर में सामान्य टेलीविजन भी नहीं था। उनके वालिद साहब को लाहौर रेलवे स्टेशन से बड़ी मुशिकल से एक दिन का अवकाश मिला था ताकि वह अपने पुत्र को क्रिकेट खेलते हुए देख सकें। वह तब लाहौर रेलवे स्टेशन में सफाईकर्मी के रूप में कार्यरत थे। उनके वहां से रिटायर होने के बाद उनके दो अन्य पुत्र वहां पर सफाईकर्मी का काम करने लगे। हॉकी का एशियाई चैंपियनशिप का खिताबी जीत हासिल करने के बाद मुंबई पहुंचने पर भारत की खेल दुनिया के दूसरे युवराज से भेंट करने के लिए मराठी मानुष के कथित हक की राजनीतिक लड़ाई लड़ाई लड़ रहे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी मनसे के अध्यक्ष राज ठाकरे सबसे पहले वहां पहुंचने वालों में शामिल थे। पता नहीं कि उन्हें यह मालूम भी है कि नहीं युवराज तो उत्तर प्रदेश का रहने वाला है जिनके बारे में वह हमेशा कहते आए हैं कि इन्होंने मुंबई का सत्यानाश कर दिया है। वैसे भी राज ठाकरे न तो महात्मा गांधी हैं और न ही उनकी गांधीजी के पदचिन्हों पर चलने की कोई तमन्ना है।


बापू ने तो वाल्मीकि समाज की जिंदगी को करीब से जानने-समझने के लिए उनके साथ रहने का ही फैसला कर लिया था। गांधीजी ने राजधानी की पंचकुईया रोड की वाल्मीकि बस्ती के भीतर वाल्मीकि मंदिर में रहने का निश्चय किया था। वह यहां पर एक अप्रैल, 1946 से लेकर एक जून 1947 तक रहे थे। इस दौरान उन्होंने यहां की वाल्मीकि बस्ती के बच्चों को अंग्रेजी भी पढ़ाई थी। चूंकि पूरा देश जाति के आधार पर बंटा हुआ है तो वाल्मीकि मंदिर के ठीक आगे कुछ साल पहले तक नई दिल्ली नगर निगम यानी एनडीएमसी की कचरा उठाने वाले वाहनों की पार्किग थी। लंबे और सघन संघर्ष के बाद वहां किसी तरह से पार्किग हटाने में लोगों को सफलता मिली। वाल्मीकि समाज से जुड़े हुए चिंतक और प्रख्यात विधिवेत्ता ओपी शुक्ला जो उस आंदोलन के अग्रणी नेता थे ने एक बार मुस्कुराते हुए कहा था जिस देश में भगवान भी जाति के आधार पर बांट दिए गए हों वहां पर अगर कोई वाल्मीकि जाति का व्यक्ति जीवन की दौड़ में आगे आए तो उसका स्वागत करना ही चाहिए। यही वह कारण कि युवराज वाल्मीकि युवराज की उपलब्धि पर उन सभी को प्रसन्न होना चाहिए जो ऐसे समाज की परिकल्पना करते हैं जो जाति से ऊपर उठकर सोचता हो।


लेखक विवेक शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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