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योजना आयोग का अनर्थशास्त्र

जागरण मेहमान कोना
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Shiv kumarगांवों में एक कहावत है कि सावन के भैंसे को हरी-हरी घास ही नजर आती है। पांच सितारा सुविधाओं के बीच देश की योजना बनाने में जुटे तमाम लोगों की हालत भी कुछ ऐसी ही हो गई है। यही वजह है कि योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दाखिल किया है, उसके मुताबिक गांवों में 26 रुपये और शहरी इलाकों में 32 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर माना जाएगा। आसमान छूती महंगाई के इस दौर में देश के योजना आयोग में बैठे अर्थशास्त्र के कई बड़े धुरंधर क्या यह साबित कर सकते हैं कि इस रकम में कोई शहरी या ग्रामीण व्यक्ति अपनी न्यूनतम मूलभूत सुविधाओं को पूरा कर सकेगा? वातानुकूलित कमरों में बैठकर देश की योजना बनाने वाले ऐसे तमाम लोग क्या देश की जमीनी हकीकत से वाकई वाकिफ हैं? आज भी देश में ऐसे कई गांव हैं जहां पर सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बदतर हालात में हैं। धूल खा रहे ये स्वास्थ्य केंद्र खुद बीमार हैं और इन हालात में अगर कोई व्यक्ति गांव में बीमार हो जाता है तो उसे इलाज के लिए रुपये-पैसा खर्च करके शहर ले जाना पड़ता है।


दरअसल, इन योजनाओं को बनाने वाले लोगों को न ही गांव वालों की तकलीफों के बारे में जानकारी है और न ही इन्हें शहर में रहने वाले गरीबों का दुख-दर्द पता है। अगर वाकई ऐसा होता तो योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया कुछ समय पहले यह बयान नहीं देते कि ग्रामीण इलाकों में आर्थिक संपन्नता बढ़ने की वजह से देश में खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ रहे हैं। इसके पहले मोंटेक ने खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतों के लिए भूखे लोगों को जिम्मेदार ठहरा दिया था। उनका कहना था कि गरीब लोग भी अब पौष्टिक आहार लेने लगे हैं। फल, सब्जियां, दूध खरीदने लगे हैं और इसी वजह से खाद्य पदार्थो की कीमतों में इजाफा हो रहा है। बात सिर्फ एक मोंटेक सिंह अहलूवालिया की नहीं, देश में ऐसे नेताओं और जनप्रतिनिधियों की भरमार है, जिन्हें देश में खुशहाली दिखाई देती है।


शशि थरूर जैसे ये वे लोग हैं, जिन्हें विमान का इकॉनमी क्लास कैटल क्लास नजर आता है। शरद पवार जैसे ये वे लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि जनता कोल्ड ड्रिंक पर पैसा खर्च कर सकती है तो सब्जियों पर क्यों नहीं। दरअसल, ऐसे नेताओं और योजनाकारों को आइपीएल की चमक दमक के आगे बीपीएल का अंधेरा दिखाई नहीं देता। आज भी गांवों और शहरों में ऐसे कई परिवार हैं कि जिनके घर में सब्जी उस वक्त ही बनती है, जब दिन रात मेहनत मजदूरी करने वाला घर का मुखिया शाम को दो रुपये या पांच रुपये का तेल लेकर अपने घर पहुंचता है। 32 रुपये और 26 रुपये हर रोज कमाने वाले ऐसे कई परिवार हैं, जिनके घर एक वक्त का चूल्हा भी नहीं जल पाता और ऐसे में सरकार में बैठे योजनाकार अगर इन्हें गरीबी रेखा के ऊपर मानकर चलेंगे तो हालात और भी ज्यादा बदतर होते जाएंगे। दरअसल, बात योजनाकारों की समझ की नहीं, गरीबी जैसी गंभीर समस्या पर सरकार में बैठे लोगों की मृत हो चुकी संवेदनाओं की है। चीनी के दाम बढ़ने पर शरद पवार यह बयान दे चुके हैं कि चीनी नहीं खाएंगे तो मर नहीं जाएंगे। गेहूं की बात आई तो चावल उत्पादक राज्यों में रोटी खाने वाली जनता को जिम्मेदार बता दिया गया। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी अगर उत्तर प्रदेश में किसी दलित या गरीब व्यक्ति के घर जाकर ठहर चुके हैं तो उन्हें कम से कम कांग्रेस पार्टी में शामिल लोगों को उनके हालात के बारे में जरूर बताना चाहिए ताकि सरकार में बैठे कांग्रेस के लोगों को देश की गरीबी का पता चल सके।


योजना आयोग के इस हलफनामे पर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि विशेषज्ञ कई बरसों तक काम करके और आंकड़े एकत्र करके अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं और इसे हंसी में उड़ा देना ठीक नहीं है। दरअसल, इन आंकड़ों के जरिए सरकार हंसी तो देश के गरीबों की उड़ा रही है। आजादी के इतने बरसों के बाद सरकार अब जातिगत जनगणना के आधार पर देश की गरीबी को दूर करने का विचार कर रही है। मौजूदा हालात में क्या देश की सरकार अब भी जाति के आधार पर देश की गरीबी को दूर करने की कोशिश में जुटी है या फिर ऐसा करके सरकार वोट बैंक के गणित को ठीक ढंग से समझना चाहती हैं। गोदामों में हजारों टन पड़ा अनाज भले ही सड़ जाए, लेकिन सरकार भूखे मर रहे लोगों को इसे बांटने की जहमत नहीं उठाती और देश के सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल देना पड़ता है। देश में उचित भंडारण की कमी से कुल पैदावार का करीब दस से बारह फीसदी हिस्सा कीट, चूहे, फफूंद और नमी से बरबाद हो जाता है, लेकिन केंद्र सरकार भंडारण गृह की वैज्ञानिक ढंग से देख-रेख के बजाय इस मसले पर राज्य सरकारों के साथ दो-दो हाथ करती नजर आती है। गरीबों को सस्ता अनाज नहीं देने पर पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया है।


देश भर में 172 पिछड़े जिलों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को सस्ती दर पर अनाज बांटने की बात थी। कुपोषण से होने वाली मौतों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के मुख्य सचिवों से कहा था कि केंद्र से आवंटित अनाज ले जाकर गरीबों में बांटे, लेकिन केंद्र और राज्यों के झगड़े में इसे आज भी ठीक ढंग से लागू नहीं किया जा सका। योजना आयोग के इस खेल में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की तादाद भले ही कम हो जाए, लेकिन इससे देश के हालात में सुधार नहीं होगा। जानकारों का कहना है कि ऐसा करने से कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फायदा देना पड़ेगा, लेकिन सवाल यह उठता है कि अब तक जो भी सरकारी योजनाएं चल रही हैं, उसका जमीनी स्तर पर कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ता दिखाई दे रहा है? गरीबी रेखा पर मनमोहन और मोंटेक का यह कैसा अर्थशास्त्र है, जो देश में गरीबी दूर करने के बजाय उनकी तादाद को कम दिखाने में जुटा है? एक तरफ देश में हजारों करोड़ रुपये के घोटाले हो रहे हैं, देश में मंत्री, सांसदों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी हो रही है, देश का बड़ा बाबू यानी आइएएस के वेतन और सुविधाओं में भी इजाफा हो रहा है। देश के विकास के लिए कई समितियां बनी हुई हैं और उसमें शामिल लोगों को कैबिनेट मंत्री और राज्य मंत्री का दर्जा देकर तमाम सुविधाएं मुहैया करा दी गई हैं तो दूसरी तरफ शहरों और गांवों में रहने वाले आम आदमी को 32 रुपये और 26 रुपये हर दिन के खर्चे पर छोड़ दिया गया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार आंकड़ों के खेल में आम आदमी को ठगने के बजाय उसके लिए ठोस कदम उठाए और जो भी जनकल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं, उसे सही ढंग से लागू किया जाए ताकि देश में गरीबी को वाकई दूर किया जा सके।


वरिष्ठ पत्रकार हैं


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