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अब दिख रही है परिपक्‍वता

जागरण मेहमान कोना
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Pramod Bhargavमहारानी लक्ष्मीबाई की कर्मस्थली रही झांसी से बाबा रामदेव ने कालाधन वापस लाने की जो हुंकार भरी है, वह अब समझदारी का पर्याय भी दिख रही है। स्वाभिमान यात्रा के नाम से आगाज हुआ यह अभियान परिपक्वता का पर्याय भी बन रहा है। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है, इस कहावत को शायद रामदेव ने अब आदर्श वाक्य मान लिया है। इसलिए उनके आंदोलन को अब मीडिया में स्थान पहले जितना भले ही न मिल रहा हो, लेकिन इस आंदोलन को इसी तर्ज पर वे आगे बढ़ाते रहे तो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत माहौल रचने में जरूर यह अभियान कामयाब होगा। रामलीला मैदान से खदेड़ दिए जाने के बाद बाबा और उनके सहयोगी बालकृष्ण को जिस तरह से कानूनी पचड़ों में फंसाने की कवायद सीबीआइ के जरिए की गई, उसका भी संप्रग सरकार को जवाब यह यात्रा है। इस यात्रा से यह भी जाहिर होता है कि बाबा का नैतिक बल और सरकार के विरुद्ध यह यात्रा इसलिए संभव हुई, क्योंकि बाबा का व्यापार निश्चित रूप से ईमानदारी के आधार पर आधारित है। बेईमानी के व्यापार से जुड़े कारोबारी की इच्छाशक्ति इतनी मजबूत नहीं होती कि वह सरकार से ही दो-दो हाथ के लिए मैदान में उतर आए।


अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल तो रच दिया। इसी का पर्याय है कि रामदेव की आगे बढ़ रही स्वाभिमान यात्रा को व्यापक समर्थन भी अब मिलना शुरू हो गया है। ये अभियान नागरिक समाज को भी मजबूती देने का काम कर रहे हैं। इस यात्रा में बाबा समझदारी यह कर रहे हैं कि वे कांग्रेस पर वार तो अपने हर भाषण में कर रहे हैं, लेकिन व्यक्तिगत नाम न लेकर वे किसी नेता को आहत नहीं कर रहे हैं। बाबा इस यात्रा में आग में तपे सोने की तरह खरे होकर उभरे हैं। लिहाजा, वे अनेक मुद्दों को उछालने की बजाए, प्रमुखता से केवल कालेधन की वापसी के मुद्दे को ही उछाल रहे हैं। शायद उन्होंने यह सबक अन्ना के जन लोकपाल विधेयक की मांग से लिया हुआ है। उनकी मांग है कि विदेशी बैंकों में भारतीयों के जमा कालेधन को भारत लाकर राष्ट्रीय संपत्ति घोषित की जाए। यदि यह धन देश में आ जाता है तो देश समृद्धि और विकास का पर्याय तो बनेगा ही, आगे से लोग देश के धन को विदेशी बैंकों में जमा करना भी बंद कर देंगे। हालांकि काला धन वापस लाने का मामला दोहरे कराधान से जुड़ा होने के कारण पेचीदा जरूर है, लेकिन ऐसा नहीं कि सरकार मजबूत इच्छाशक्ति जताए और धन वापसी का सिलसिला शुरू ही न हो? बाबा ने इस यात्रा में हजार और पांच सौ के नोटों को बंद करने की मांग से भी फिलहाल परहेज रखा है।


बाबा ने लोकसेवा प्रदाय गारंटी विधेयक बनाए जाने की मांग को भी फिलवक्त ठंडे बस्ते में डाल दिया है। वैसे भी इस विधेयक को कानूनी जामा पहनाकर बिहार और मध्य प्रदेश सरकारों ने तो इस पर अमल भी शुरू कर दिया हैं। हिमाचल प्रदेश और दिल्ली सरकार भी इस कानून को लागू करने की कवायद में लग गई है। इस मुहिम में बाबा ने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करने की मांग को भी नजरअंदाज किया हुआ है। यह समझदारी इस बात का प्रतीक है कि बाबा रामदेव बखूबी समझ गए हैं कि एक मर्तबा में एक ही मांग को मजबूती से उछालना चाहिए। शायद बरती जाने वाली इन्हीं सावधानियों का कारण है कि राजनैतिक दल अब बाबा पर सीधा हमला नहीं बोल रहे। कोई भी नेता किसी भी दल से जुड़ा क्यों न हो, वह यह तो अहसास करने ही लगा है कि भ्रष्टाचार और काला धन के खिलाफ देशव्यापी वातावरण आकार ले चुका है। इसकी मुखालफत करते हैं तो आगामी चुनावों में जनता मत के जरिए बदला चुकाने से नहीं चूकेगी। हालांकि दबी जवान से कुछ नेता और बुद्धिजीवी यह जरूर आगाह कर रहे हैं कि रामदेव को केवल योग-उपचार तक सीमित रहना चाहिए, लेकिन सांस्कृतिक संस्कारों से जुड़े लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारे देश में विपरीत हालातों व संक्रमण काल में हमेशा साधु-संतों ने राष्ट्रीय अस्मिता की चिंता करते हुए अलख जगाने का काम किया है। बाबा पर बेवजह आरोप मड़ने वालों को सोचना चाहिए कि बाबा ने अपनी पारंपरिक ज्ञान दक्षता के बूते पहले योग और आयुर्वेद से धन कमाया और अब यह धन वे देश की राजनीति और नौकरशाही के शुद्धिकरण के लिए खर्च कर रहे हैं। और वे बार-बार मुखर होकर सत्ता से टकराने का दुस्साहस दिखा रहे है।


लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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