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अफगानिस्तान में घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है और वहां अमेरिकी रणनीति की बखिया उधड़ रही है। कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में हाई पीस काउंसिल के प्रमुख बुरहानुद्दीन रब्बानी की उनके घर पर आत्मघाती हमले में हत्या कर दी गई और इसके बाद हक्कानी नेटवर्क ने अमेरिकी और नाटो के ठिकानों पर हमले कर दिए। परिणामस्वरूप अमेरिका-पाकिस्तान संबंध पिछले एक दशक के सबसे निचले दर्जे पर पहुंच गए हैं, क्योंकि अब तक आतंक के खिलाफ जंग में अमेरिकी रणनीति पाकिस्तान के समर्थन पर आधारित थी, इसलिए अब अमेरिकी नीति के भविष्य को लेकर सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
अभी तक रब्बानी की हत्या के रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। काबुल पुलिस के अनुसार वारदात के समय रब्बानी दो तालिबानी प्रतिनिधियों से मिल रहे थे, जिनके साथ पीस काउंसिल के वरिष्ठ अधिकारी भी थे। अफगान गृह मंत्रालय ने पुष्टि की है कि एक हमलावर को गिरफ्तार कर लिया गया है, जबकि रब्बानी की हत्या के करीब तीन घंटे बाद तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्ला मुजाहिद ने हत्या की जिम्मेदारी लेते हुए कहा कि बातचीत के बहाने दो तालिबानी आत्मघाती हमलावर रब्बानी से मिले और हमले में रब्बानी के चार गार्डो के साथ-साथ दोनों हमलावर भी मारे गए। मुजाहिद ने साफ तौर पर कहा कि यह हमला तालिबान के हक्कानी नेटवर्क ने कराया था। अफगानिस्तान के आधिकारिक बयान और तालिबानी दावे में काफी अंतर है। हमलावरों की पहचान न खुलना बड़ी परेशानी बनी हुई है। तालिबानी आत्मघाती हमलावरों का दर्जा आमतौर पर लड़ाकों से अधिक नहीं होता। यह वार्ताकारों के दर्जे से काफी निचला स्तर है और इनकी रब्बानी के घर तक पहुंच आसान नहीं है। न ही अब तक यह पता चल पाया है कि रब्बानी की जबरदस्त सुरक्षा व्यवस्था में ये दो हमलावर कैसे सेंध लगा पाए? यह हमला उस समय हुआ जब पाकिस्तान की मध्यस्थता में अमेरिका-तालिबान वार्ता शुरुआती चरण में थी। सवाल उठता है कि रब्बानी पर हमला क्यों किया गया? ताजिक जाति के रब्बानी 1992 से 1996 तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति रह चुके हैं। उन्हें तालिबान ने उखाड़ फेंका, जिसके बाद उन्होंने नॉर्दन एलायंस का राजनीतिक नेतृत्व संभाल लिया। इसके बाद अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने रब्बानी को हाई पीस काउंसिल का अध्यक्ष बना दिया। सोवियत दिनों में प्रमुख मुजाहिदीन नेता होने के कारण उनका काफी सम्मान था। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अल्पसंख्यक ताजिक समुदाय का प्रभावशाली प्रतिनिधि होने के नाते रब्बानी अफगान ताजिकों को काबू में रख सकते थे, जो तालिबानियों से किसी भी प्रकार के समझौते का विरोध कर रहे हैं। रब्बानी के दुश्मनों की भी कमी नहीं है। वह अफगानिस्तान के ड्रग व्यापार के बड़े खिलाड़ी थे और अमेरिका से मोटी रकम प्राप्त करते थे।
ताजिकों के प्रमुख प्रतिनिधि होने के नाते रब्बानी अहमद शाह मसूद की राह पर चल रहे थे, जिनकी अल कायदा ने 9/11 से दो दिन पहले हत्या कर दी थी। वह तालिबान के रास्ते की एक बड़ी सामरिक बाधा थे। अमेरिका-तालिबान वार्ता अभी शुरुआती चरण में है। रब्बानी की हत्या से उत्तरी अफगानिस्तान में एक शून्य पैदा हो गया है और इससे अमेरिका की विदाई के बाद की राजनीतिक व्यवस्था में तालिबान ने अपने राजनीतिक प्रभुत्व का दावा ठोंक दिया है। अगर तालिबान ने इन समीकरणों के चलते रब्बानी की हत्या की है तो इससे अमेरिका बेहद असुविधाजनक स्थिति में फंस गया है। अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल के कमांडर जनरल जॉन एलेन के अनुसार रब्बानी की हत्या एक और खतरनाक संकेत है कि तालिबान शांति नहीं, युद्ध चाहते हैं।
अफगान युद्ध के परिदृश्य में हक्कानी नेटवर्क सबसे घातक और खतरनाक गुट है। यह ऐसा गुट है जिसके संबंध न केवल तालिबान से हैं, बल्कि अलकायदा और पाकिस्तानी सेना व उसके खुफिया तंत्र से भी हैं। हक्कानी नेटवर्क पाक सीमा से सटे पूर्वी अफगानिस्तान में सक्रिय है और इसका काबुल के आसपास काफी प्रभाव है। इसका मतलब यह हुआ कि अफगानिस्तान के दक्षिणी इलाकों में प्रभावी तालिबान काबुल में आतंकी हमले करने में हक्कानी गुट पर बहुत निर्भर करता है। अफगानिस्तान में बातचीत की प्रक्रिया में अमेरिका के सामने तीन प्रमुख पहलू हैं। ये हैं पाकिस्तान, तालिबान और हक्कानी नेटवर्क। इनके अपने-अपने हित हैं और इनमें भी हर पक्ष में कुछ उपसमूह मौजूद हैं, किंतु ये आपसी सामंजस्य से ही काम करते हैं। सिराजुद्दीन हक्कानी के बयान में दो चौंकाने वाले पहलू हैं। एक तो उसका यह दावा कि उसके नेटवर्क की शरणस्थली अब पाकिस्तान नहीं है और वह अफगानिस्तान में ही ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है। दूसरा यह कि हक्कानी नेटवर्क अमेरिका के साथ किसी भी बातचीत में तालिबान के नेतृत्व को स्वीकार करता है। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान-तालिबान-हक्कानी त्रिकोण में काफी समन्वय है। यह दावा कि हक्कानी की पाकिस्तान में शरणगाह नहीं हैं, फर्जी है। किंतु इससे पाकिस्तान के प्रति इस गुट के सहयोग का खुलासा होता है जो इस गुट के खिलाफ कार्रवाई को लेकर अमेरिका के सामने आ गया है।
कुल मिलाकर अफगानिस्तान में युद्ध एक नए चरण में प्रवेश कर गया है, जिसमें समझौता वार्ता में नए किस्म की जटिलताएं सामने आ रही हैं। आने वाले कुछ सप्ताहों और महीनों में पाकिस्तान-ताबिलान-हक्कानी तिकड़ी समझौता वार्ता में सौदेबाजी करने के लिए अफगानिस्तान में अमेरिकी प्रतिष्ठानों पर और भी हमले कर सकती है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि रब्बानी की मौत का समझौता वार्ता पर क्या असर पड़ेगा? अमेरिका को इस पर संदेह है कि मुल्ला उमर एक विश्वसनीय वार्ताकार हो सकता है और क्या तालिबान के साथ वार्ता के लिए अपना प्रतिनिधि भेजने में वह सुरक्षित महसूस कर सकता है? कुल मिलाकर अमेरिका के सामने तालिबान के साथ अरुचिकर समझौते में शामिल होने के अलावा कोई चारा नहीं है। पिछले एक साल में अफ-पाक में होने वाली नाटकीय घटनाओं को हाशिये से देखने वाले भारत को अब पाकिस्तान के साथ अमेरिका के बिगड़ते संबंधों का फायदा उठाकर अपने हितों को साधने की कोशिश करनी चाहिए। भारत को सुनिश्चित करना चाहिए कि अमेरिका की अफगानिस्तान से विदाई के बाद तालिबानी-अफगानिस्तान और पाकिस्तान का झटका उसे न झेलना पड़े।
लेखक हर्ष वी. पंत किंग्स कॉलेज, लंदन में प्रोफेसर हैं
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