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अमेरिका में दो साल पहले शुरू हुई मंदी वहां के बड़े बैंकों की गलत नीतियों का नतीजा थी। वहां की जनता आर्थिक संकट और बेरोजगारी के लिए अमेरिकी बैंकरों को जिम्मेदार मानती है। अमेरिकी समाज में आमदनी में बढ़ते फासले और बेरोजगारी के खिलाफ लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। पूंजीवाद के नए पैंतरे के रूप में भूमंडलीकरण को आए हुए महज दो ही दशक हुए हैं कि यह स्थिति आ गई। कभी न कभी पूंजीवाद के खिलाफ लोग लामबंद होंगे, यह तय था। लेकिन इतनी जल्दी होंगे, यह पता नहीं था। तो क्या अब अमेरिकी पूंजीवादी नीतियां उसके लिए खतरनाक साबित हो रही हैं? क्या अमेरिका इस संकट से आसानी से निकल पाएगा या अब भारत और चीन एक नई विश्व शक्ति के रूप में उभरेंगे? हाल के घटनाक्रमों के मद्देनजर अब विश्व स्तर पर यह माना जा रहा है कि अमेरिका का राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य प्रभाव अगले दो सालों में काफी कम हो जाएगा और वर्ष 2025 तक वह एक मात्र सुपरपॉवर का दर्जा खो देगा। ब्रिटेन के शीर्ष खुफिया संगठन ने अपनी रिपोर्ट में इस बात के संकेत देते हुए कहा है कि इस दौरान चीन और भारत अमेरिका को प्रभुत्व के मामले में कड़ी प्रतिस्पर्धा देते हुए उसके साथ शीर्ष पर आ जाएंगे।
राष्ट्रीय खुफिया परिषद ने अपनी इस रिपोर्ट में वर्ष 2025 को लक्ष्य बनाकर दुनियाभर में शक्ति संतुलन के रुझान का विश्लेषण किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस दौरान परमाणु हथियारों के उपयोग काफी बढ़ने की आशंका है। अमेरिका के वाणिज्य मंत्रालय ने बिगड़ती अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सीधे विदेशी निवेश पर जोर दिया है। अमेरिका के शीर्ष उद्योगपतियों और राजनेताओं ने अपने देश में भारत, चीन व ब्राजील से और निवेश का आह्वान किया, ताकि अमेरिका में रोजगार के और अवसर पैदा किए जा सकें। जनरल इलेक्टि्रक कंपनी के अध्यक्ष और मुख्य कार्याधिकारी जेफ्री इमेल्ट ने कहा कि चीन, भारत, ब्राजील जैसी देशों- जहां अभी लोगों के पास पैसा है- से हमारे यहां सीधा निवेश नाममात्र को है और कोई वजह नहीं है कि ये देश अमेरिका में उससे ज्यादा निवेश नहीं कर सकते, जितना कि वे अभी कर रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि मुझे पूरा भरोसा है कि यदि हमारे यहां भारत, चीन और अन्य जगहों से ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होता है तो हमारे यहां उतनी समस्या नहीं होगी, जितनी अभी है। भारत की आर्थिक विकास दर 8-9 फीसदी है। चीन की विकास दर भी पिछले तीन दशकों से लगातार 10 फीसदी से ज्यादा है।
अर्थशास्ति्रयों के लिए यह किसी पहेली से कम नहीं है। अमेरिकी करेंसी डॉलर के भविष्य पर खतरा मंडरा रहा है और विशेषज्ञों का मानना है कि रिजर्व करेंसी के रूप में इसके दिन पूरे हो गए हैं। अब चीन की मुद्रा रेनमिनबी (आरएनबी) का जमाना आ रहा है। चीन की अर्थव्यवस्था मजबूत होने का असर उसकी करेंसी पर साफ दिख रहा है। इसकी मांग और ताकत दोनों ही बढ़ी है। इसका विश्व अर्थव्यवस्था में रोल बढ़ता ही जा रहा है और संभावना व्यक्त की जा रही है कि यह डॉलर की जगह ले लेगी। एक तरफ भारत और चीन की विकास दर बढ़ रही है तो दूसरी तरफ अमेरिका की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से चरमरा रही है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था केवल 1.8 फीसदी की दर से बढ़ रही है यानी करीब-करीब स्थिर है। अमेरिका में आर्थिक विकास की दर 2011 में 2.3 प्रतिशत होने का अनुमान है, जबकि 2010 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2.9 प्रतिशत थी।
प्रति परिवार संपत्ति की कीमत में करीब 20 फीसदी की गिरावट आई है। उपभोक्ताओं की सामान खरीदने की क्षमता में गिरावट आ रही है। और तो और, अब डॉलर की पूछ भी काम हो रही है। रिजर्व करेंसी के रूप में इसके दिन पूरे हो गए हैं। अब चीन की मुद्रा रेनमिनबी (आरएनबी) का जमाना आ रहा है। अब भारत और चीन के सुपर पॉवर बनने के संकेत प्रबल होते जा रहे हैं। अमेरिका के इन हालात के बाद अब चीन और भारत के बीच आर्थिक सुपरपॉवर बनने की होड़ जारी है। चीन आधिकारिक तौर पर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। मंदी को ठेंगा दिखाकर भारत तेजी से आगे दौड़ रहा है और इस मंदी में सबसे मजबूत आधार हमारा कृषि सेक्टर है। हमारे कमजोर सेक्टर हैं भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, जातिवाद, प्रांतवाद और पूंजीवाद। अमेरिका में पूंजीवादी नीतियां नाकाम होने के बाद अब मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे पूंजीवादी लीडरों को सबक लेना चाहिए।
लेखक अमीन कुरेशी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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