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जेलों में बंद निर्दोष कैदी

जागरण मेहमान कोना
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देश के कारागारों में जितने लोग बंद हैं उनमें 50 प्रतिशत से अधिक लोग निर्दोष हैं अथवा उनके द्वारा जो अपराध हुआ वह साधारण स्तर का था। यह कानून व्यवस्था की कमी है कि हजारों ऐसे लोग भी जेलों में पड़े हैं जिन्हें सरकार की भाषा में हवालाती या अंडर ट्रायल कहा जाता है। इसका अर्थ है कि अभी इन आरोपियों के बारे में सिद्ध नहीं हो सका कि उन्होंने अपराध किया है या नहीं। यह ऐसे लोग हैं जो बिना अपराध सिद्ध हुए वर्षो तक जेल की सलाखों में बंद हैं। अपराध के लिए जितना दंड कानून की किताब में उनके लिए लिखा है उससे कहीं ज्यादा समय वे आरोपी के रूप में सलाखों के पीछे बिता चुके हैं। जब यह अदालतों द्वारा बरी कर दिए जाते हैं तो इसका कोई जवाब नहीं होता कि उन्हें किसी दोष के लिए जेल की सजा काटनी पड़ी। क्या कोई उनके समय का मुआवजा दे सकता है? क्या कोई उम्र के बीते हुए दिन लौटा सकता है? कई बार तो जेल में पूरा का पूरा परिवार ही बंद हो जाता है।


भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए जब लागू की गई तब उद्देश्य था कि महिलाओं विशेषकर बहुओं को ससुराल में मानसिक और शारीरिक यातना न सहनी पडे़। पहले तो इस धारा का सदुपयोग हुआ पर धीरे-धीरे 498-ए की आड़ में शोषण प्रारंभ हो गया। अगर कोई महिला ससुराल में किसी भी कारण प्रसन्न नहीं, उसे पति पसंद नहीं, सास का व्यवहार उसके अनुकूल नहीं, उसकी इच्छानुसार सभी सुविधाएं प्राप्त नहीं अथवा उसका अपना ही स्वभाव परिवार में अनबन का कारण बन जाता है तो इसी धारा का आश्रय लेकर अदालत में केस जाने लगे और पूरे परिवार को ही आरोपी बनाकर जेल में भेजना प्रारंभ हो गया। लुधियाना, नाभा, पटियाला, अमृतसर आदि जेलों में मैंने अपनी आंखों से ऐसे परिजनों की दुर्गति देखी है जो बहू से झगड़े के कारण वर्षो से कारागार में सड़ रहे हैँ, सिसक रहे हैं। उस परिवार की पीड़ा की क्या सीमा होगी जहां आरोप लगाने वाली युवती अथवा झगड़े के बाद आत्महत्या कर लेने वाली महिला का पति, देवर, जेठ, सास, जेठानी, देवरानी सभी जेल में बंद हैं। एक की गोद में तो नवजात शिशु भी था, जिसका जन्म ही जेल में हुआ। क्या कोई यह विश्वास करेगा कि सारा परिवार ही बुरे स्वभाव का है? क्या कोई यह मानेगा कि नवविवाहिता देवरानी भी उस महिला को तंग करेगी जो परिवार में उसकी जेठानी है? मेरा अपना यह अनुभव है कि जहां कोई युवती अपने पति को उसके परिवार से अलग करके संपत्ति का विभाजन नहीं करवा सकी उसने ऐसे ही आरोप लगावाए और अपने प्रभाव से अथवा रिश्तेदारों के बल पर पति के परिवार को उजाड़कर रख दिया।


अधिकांश लड़कियां किसी भी कारण जब आत्महत्या करती हैं तब हत्या का ही केस दर्ज होता है। जहां पुलिस आत्महत्या लिखती है, वहीं आंदोलन होते हैं। कभी-कभी तो पुलिस को विवश होकर हत्या का केस बनाना पड़ता है। यह बहुत बड़ा सच है कि आज भी सामाजिक कुरीतियों की शक्ति अधिक है। दहेज के कारण बेटियों के माता-पिता सहमे रहते हैं। जिनके बेटे शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में शिखर पर पहुंच गए,उनके लिए तो बेटे का विवाह दो-चार करोड़ का सौदा है। योग्य बेटियों के माता-पिता भी अपनी बेटी के लिए सुयोग्य वर नहीं ढूंढ पाते। यह भी सत्य है कि कई युवतियां दहेज दानव की सताई हुई हैं पर सच यह भी है कि सभी पारिवारिक विवाद दहेज के कारण नहीं होते, इसलिए हर विवाद को और हर आत्महत्या को दहेज से जोड़ देना सही नहीं। आज की आवश्यकता यह है कि हम मानसिकता बदलें, नया दृष्टिकोण अपनाएं और बदले समय के अनुसार ही किसी का समर्थन या विरोध करें। मैं यह भी चाहती हूं कि समाजसेवी संस्थाएं जेलों में जाकर अपनी आंखों से यह देखें कि विवाह संबंधी विवादों ने कितने घरों, परिवारों और व्यक्तियों को उजाड़ दिया है। यह उजड़ना तभी रुकेगा जब नई सोच आए, झूठी गवाही देने वालों और झूठे केस बनाने वालों के विरुद्ध जनजागरण प्रारंभ हो, अन्यथा विवाह की संस्था और संयुक्त परिवार कमजोर होते जाएंगे।


लेखिका लक्ष्मीकांता चावला पंजाब सरकार में मंत्री हैं


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