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विकृत इतिहासबोध की उपज

जागरण मेहमान कोना
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Hriday Narayan Dixitजीवंत इतिहासबोध में ही राष्ट्र का अमरत्व है और विकृत इतिहास में राष्ट्र की मृत्यु। श्रीराम भारत के मन का रस और छंद हैं। गांधी के सपनों वाले ‘रामराज्य’ के राजा हैं। वे इतिहास हैं और श्रद्धा भी। वाल्मीकि रामायण इन्हीं राम की गाथा है। मा‌र्क्सवादी चिंतक रामविलास शर्मा ने भी रामायण को इतिहास और महाकाव्य बताया है। वाल्मीकि रचित रामायण का भूगोल-नदियां, नगर और वन, पर्वत इतिहास सिद्ध हैं। तमिल की ‘कंब-रामायण’ तेलुगू की ‘रंगनाथ रामायण’, कन्नड़ की ‘पाम्पा रामायण’ बंगला की कृतिवास रामायण आदि के श्रीराम प्रेरित करते हैं। तुलसी की रामचरित मानस के राम ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ हैं। श्रीराम भारतीय संस्कृति के महानायक हैं। बावजूद इसके दिल्ली विश्वविद्यालय के बच्चों को कई बरस से श्रीराम, सीता और हनुमान के चरित्र को कलंकित करने वाला पाठ पढ़ाया जा रहा था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सहित कई संगठनों ने 2008 में विरोध प्रदर्शन किया। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। कोर्ट के निर्देश पर विशेषज्ञों की समिति ने अध्ययन किया, विशेषज्ञ समिति ने विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद के समक्ष रिपोर्ट रखी। परिषद ने एके रामानुजन के लिखे निबंध ‘थ्री हंड्रेड रामायण फाइव एगजांपल्स एंड थ्री थॉट्स आन ट्रांसलेशन’ को पाठ्यक्रम से निकाल दिया। लेकिन कुछ शिक्षक व इतिहासकार इसे पाठ्यक्रम में जोड़ने की मांग पर अड़े हैं।


विवादित निबंध में ‘रावण के गर्भ’ का उल्लेख है। सीता को रावण की छींक से पैदा रावण पुत्री बताया गया है। कहा गया है कि इन्हीं सीता को रावण और लक्ष्मण आकर्षित करते थे कि सीता राम के प्रति निष्ठावान नहीं थीं। हनुमान राम के पिट्ठू थे। निबंध में इंद्र की देह के बारे में अति अश्लील बातें कही गई हैं। इन कथाओं का उद्देश्य क्या है? बीए के 17-21 वर्षीय छात्र ‘रावण को गर्भवान’ कैसे जानेंगे। मूलभूत प्रश्न है कि ऐसी मनगढ़ंत कल्पनाओं का इतिहास से क्या संबंध है? इतिहास यथातथ्य अतीत होता है। इतिहास लेखन की तमाम शैलियां हैं किंतु इतिहास संकलन की किसी भी शैली में ऐसी कपोल कल्पनाएं नहीं होतीं। इतिहास विज्ञान होता है। जो स्वयंसिद्ध है, जो यथातथ्य घटित हुआ है, वही इतिहास है। ऐसे तथ्यहीन विवरण आखिरकार इतिहास क्यों हैं?


स्वयंभू विद्वान इस निबंध में छात्रों की चिंतन प्रणाली का विकास देख रहे थे। रामानुजन की इस कल्पना में ‘सोच-विचार और चिंतन’ की गुंजाइश कहा है? ‘वाल्मीकि रामायण’ सोच-विचार और विवेक की सामग्री देती है। वह श्रीराम की मानवीय सीमाएं बताती है, उनमें मौजूद दिव्य तत्वों का विवेचन भी करती है। ‘रामायण’ में भौतिकवाद है, कपिल का सांख्य दर्शन है, कणाद का परमाणुवाद है, योग के सूत्र हैं, जबर्दस्त सांसारिकता है, राज-समाज संचालन के सूत्र हैं, वेदांत दर्शन है। विश्व की आधुनिक दार्शनिक प्रणालियों के सूत्र भी ‘रामायण’ में हैं। रामानुजन ने हड़बड़ी में 300 रामायणें गिनी हैं। ‘रामायण’ एक है। यही मूल कथा का आधार है। वाल्मीकि रामायण की कथा ने भारत के अलावा चीन, जापान, इंडोनेशिया, थाईलैंड, कंबोडिया, रूस, लाओस आदि के रचनाकारों को भी प्रेरित किया। चीनी ‘त्व पाओत्सांग किंग’ के प्रथम भाग में दशरथ पुत्र राम की कथा है। रामकथा और रामायण अंतरराष्ट्रीय आकर्षण है। ‘रामायण’ आस्था नहीं विवेक जगाती है।


भारतीय विवेक का विकास वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्क प्रतितर्क से हुआ। रामानुजम के समर्थक कथित विद्वान रामानुजम से भी बड़ा अजूबा हैं। वह अल्पवयस्क बच्चों को इतिहास की कक्षा में भी ‘अश्लील गल्प कथा’ पढ़ाने के समर्थक है। मूलभूत प्रश्न है कि ऐसी जानकारियों से भावी पीढ़ी को क्या लाभ हो रहा था? पूरा पाठ संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, 21 व 51(ए) का उल्लंघन है। यह भारतीय दंड विधान की धारा 153, 292, 295 व 505 के अधीन अपराध भी है। निबंध शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति को लेकर गठित संसदीय समिति (1967) व पाठ्य पुस्तकों के लिए प्रो. केजी सैय्यद की अध्यक्षता में गठित समिति सहित कई समितियों की सिफारिशों के विपरीत है।


भारतीय राष्ट्रभाव और विवेक को नष्ट करने का एजेंडा बहुत पुराना है। भारत प्राचीन आर्य भूमि है। सिंधु सभ्यता प्राचीन वैदिक सभ्यता का विस्तार थी, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवादी षड्यंत्रों के चलते 1921-22 से हमारे पूर्वज आर्यो को विदेशी हमलावर बताया गया। ऐसे लोग भारत के विशाल जनसमूह को विदेशी बताते हैं। ऐसे लोग ही विचार अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जम्मू-कश्मीर की जनता के अलग हो जाने की पैरवी करते हैं। कुछेक कश्मीर विवाद में पाकिस्तान को भी पक्ष बनाने की पैरवी करते हैं। शिव ऋग्वेद के देवता हैं लेकिन स्वयंभू विद्वानों ने उन्हें आयातित देव बताया। भारतीय संस्कृति प्राचीन वैदिक संस्कृति का विस्तार है। लेकिन ये लोग भारत में तमाम संस्कृतियां बताते हैं। वे ‘यथार्थ इतिहासबोध’ को ही नष्ट करने पर आमादा हैं। प्राचीन भारत में सार्थक इतिहासबोध था। विश्व के प्राचीनतम ज्ञान रिकार्ड ऋग्वेद में भी इतिहासबोध है।


‘वैदिक इंडेक्स’ (खंड 1) के अनुसार श्रीराम के पूर्वज इक्ष्वाकु ऋग्वेद काल के एक राजा थे। इक्ष्वाकु का उल्लेख ऋग्वेद और अथर्ववेद में है, रामायण में भी है। अमरकोष के अनुसार इतिहास का प्राचीन नाम ‘पुरावृत्त’ था। कालिदास ने ‘रघुवंश’ में बताया है कि विश्वामित्र ने राम को ‘पुरावृत्त’ सुनाया था। भवभूति कालिदास और राजशेखर ने रामायण को इतिहास बताया है। यहां बहुसंख्यक समुदाय की आस्था का ही प्रश्न नहीं है, बुनियादी सवाल इतिहास की सामग्री का ही है। विद्वतजन बताएं कि इतिहास होता क्या है? क्या यह तथ्यहीन कल्पना होता है? क्या नई पीढ़ी के ज्ञान, संस्कार और प्रज्ञा निर्माण में इतिहास की कोई भूमिका है? अगर है तो संपन्न और प्रज्ञावान राष्ट्र का हमारा सपना क्या है? क्या हम संस्कृति विरोधी आत्महीन तरुण भारत चाहते हैं या दयानंद अरविंद, विवेकानंद और गांधी प्रेरित राष्ट्रीय वैशिष्ट्याभिमानी भारत? भारत के प्रति आत्मीय निष्ठा वाले युवामन के लिए एक सार्थक इतिहासबोध की ही आवश्यकता है। संविधान निर्माताओं ने संविधान की मूल प्रति पर श्रीराम और श्रीकृष्ण के चित्र लगाए थे। मौलिक अधिकारों वाले भाग 3 में श्रीराम की लंकाविजय का चित्र था। विजयदशमी की सायं हरेक बरस प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति दिल्ली की रामलीला में उपस्थित होते हैं। क्या ये श्रीराम राष्ट्र, संविधान और प्रधानमंत्री के आदर वाले हैं या रामानुजन के द्वारा पिटे राम हैं। आश्चर्य है कि श्रीराम की पिटाई करने वाले विद्वान का नाम भी रामानुजन ही है।


लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं


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