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किरण बेदी पर मुझे दया आती है और नहीं भी आती। अंग्रेजी के एक अखबार ने उन पर प्रमाण के साथ आरोप लगाया है कि वह कहीं व्याख्यान देने या किसी सेमिनार में शामिल होने के लिए जाती हैं तो आयोजकों या मेजबानों से हवाई जहाज का जो किराया वसूल करती हैं, वास्तव में उससे बहुत कम खर्च करती हैं। किरण बेदी को पुलिस की नौकरी में पराक्रम और ईमानदारी दिखाने के लिए सरकारी मेडल मिला हुआ है। इस तरह का मेडल जिनके पास होता है, सरकारी विमान कंपनी इंडियन एअरलाइंस उन्हें किराए में 75 प्रतिशत छूट देती है। पिछले कुछ वर्षो में किरण बेदी ने अपनी हर हवाई यात्रा में इस छूट का लाभ उठाया है, लेकिन जब यात्रा खर्च लेने का समय आता है तब वह संबंधित संस्था से अथवा आयोजकों से पूरा किराया वसूल करती हैं। सवाल यह है इस तरह का आचरण भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है या नहीं? इस बारे में शायद ही कोई भला आदमी यह दावा करे कि यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आता है। यह ठीक है कि किसी भी मेजबान का कर्तव्य है कि उसने जिसे बुलाया है, उसे वह आने-जाने का पूरा किराए दे। यह अलग बात है कि संबंधित व्यक्ति किराए की इस रकम का किस तरह इस्तेमाल करता है अथवा किसके लिए खर्च करता है। इस पर मेजबान को सोच-विचार करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह उसका मामला नहीं है और न ही यह उसके अधिकार क्षेत्र में आता है। परंतु यहां सवाल मेहमान का है कि आखिर उसकी भी तो कोई जिम्मेदारी होती है। यदि वह बस से आता है और कार से आने का पैसा वसूल करता है तो क्या यह उसकी बदनीयती है या नहीं? जाहिर है, वह इस तरह का झूठ बोल कर अपने लिए कुछ पैसा बचा लेना चाहता है।
अगर वह ऐसा नहीं करता और ईमानदारी दिखाता है तो मेहमान को बुलाने वाले का खर्च कुछ कम अवश्य हो जाता। जनता की अदालत में किरण बेदी पर यह आरोप साबित है कि वह इस तरह की धोखाधड़ी करने की पहले से आदी हैं। पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी पुलिस की अपनी सरकारी नौकरी के दौरान अपने कड़े प्रशासन और कानून का पालन कराने के लिए मशहूर रही हैं। उनकी छवि एक आदर्श पुलिस अधिकारी की है। इसी नाते अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में उन्हें सम्मानजनक स्थान मिला हुआ है, लेकिन जब अचानक पता चलता है कि रुपये-पैसे के मामले में उनकी हथेली पूर्णत: स्वच्छ नहीं है तो सबको अफसोस होना स्वाभाविक है। यह अफसोस इसलिए और होता है कि उनके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। उनका एनजीओ कोई गरीब संस्था नहीं है। वह रेल से नहीं, हवाई जहाज विमान से यात्रा करती हैं। फिर उन्हें यह सब हेरफेर करने की जरूरत ही क्यों पड़ी? कोई गरीब आदमी ऐसा करता तब तो उसे माफ किया जा सकता था, लेकिन किसी संपन्न व्यक्ति को इसके लिए रियायत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। वह दया का हकदार नहीं है। किरण बेदी ने दिल्ली के इस दैनिक अखबार द्वारा किए गए खुलासे का जो जवाब दिया है क्या वह संतोषजनक है? यहां मुझे श्रीमती किरण बेदी पर दया आती है। वह एक ऐसी स्थिति में फंस गई हैं जिससे बाइज्जत बाहर निकलना फिलहाल उनके लिए संभव नहीं है।
यदि वह अपनी नैतिक जवाबदेही न स्वीकार करें तो यह अलग बात है, क्योंकि उनके इस कृत्य के लिए कानूनन उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता और न ही किसी तरह की सजा दी जा सकती है। चूंकि कोई न कोई जवाब देना है इसलिए उन्होंने एक चलताऊ जवाब दे दिया है। उनका कहना है ये पैसे मैंने अपने लिए नहीं अपने एनजीओ के लिए बचाए हैं। अत: इसे त्याग और कष्ट सहन का मामला मानना चाहिए। काश हम ऐसा मान सकते। मुझे नहीं पता कि एनजीओ के खाते में किरायों के इस फर्क को किस तरह दर्ज किया गया होगा। एक जमाने में बीकॉम ऑनर्स करने के कारण थोड़ी-बहुत अकाउंटेंसी मैं भी जानता हूं। एक एनजीओ में दस साल तक काम कर चुकने के कारण मैं यह भी जानता हूं कि इन संस्थाओं में इनके मालिक जो निदेशक या महानिदेशक कहलाते हैं किस तरह मनमानी करते हैं। यह तो बहुत आम चलन है कि उनके अधिकांश निजी खर्च संस्था के खर्च के रूप में दिखलाए जाते हैं। यह सच है कि ये सभी संस्थाएं साल-दर-साल अपनी अंकेक्षित रिपोर्ट रजिस्ट्रार ऑफ सोसायटीज को भेजती हैं, लेकिन गैर-सरकारी लोग यानी नागरिक जमात के प्रतिनिधि उनके खातों की बारीक जांच करें तो जो यथार्थ सामने आएगा वह बहुत कड़वा होगा। इसीलिए यह मांग की जाती है कि गैर-सरकारी संगठनों को भी लोकपाल विधेयक के दायरे में ले आना चाहिए। किरण बेदी पर दया इसलिए भी आती है कि जो काम हममें से अधिकांश लोग करते हैं और जो न पकड़े जाते हैं न बदनाम होते हैं उसके लिए उन्हें सार्वजनिक रूप से आक्षेप या अपनी आलोचना सुननी पड़ती है। अपने बारे में मैं यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना चाहता हूं कि यह पाप मैंने एक बार नहीं, कई दर्जन बार किया है। पहली दफा यह बेईमानी मैंने तब की थी जब मैं भारत भवन के निमंत्रण पर साप्ताहिक अखबार की ओर से खजुराहो नृत्य समारोह की रिपोर्टिग करने गया था।
भारत भवन की ओर से दोनों तरफ का हवाई किराया मिलना था और मुझे मिला भी, लेकिन लौटते समय मैंने आधी यात्रा हवाई जहाज से और आधी यात्रा रेल से पूरी की। इस तरह कुछ रुपया बच गया, लेकिन क्या यह बेईमानी नहीं थी और क्या मैं किरण बेदी की तरह यह तर्क दे सकता हूं कि कष्ट सहकर और अपना समय खर्च करके मैंने अपने लिए कुछ रुपया बचा लिया तो किसी का क्या बिगड़ गया? एक-दो बार मैंने ऐसा भी किया कि पूरे परिवार के लिए लीव ट्रैवेल भत्ते का पैसा ले लिया और यात्रा नहीं की। इस तरह जो पैसे बचे उनका उपयोग किसी और काम के लिए कर लिया। क्या यह मेरी बेईमानी नहीं थी? क्या मैं भी किरण बेदी की तरह यह तर्क दे सकता हूं कि लीव ट्रैवेल भत्ते का पैसा मेरा अपना था सो मैंने ले लिया। अब इससे मेरी कंपनी को क्या मतलब कि मैं इस पैसे का क्या करता हूं? क्या इस तरह का तर्क दिया जाना मुनासिब होगा। बिल्कुल मुनासिब नहीं होगा, लेकिन हममें से ज्यादातर पत्रकार, अधिकांश लेखक, अध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता यही करते हैं। उन्हें सेकंड क्लास एसी का किराया मिलता है और वह एसी थर्ड क्लास या स्लीपर क्लास में यात्रा करते हैं। यह इतनी आम बात हो चुकी है कि इसे प्राय: सभी आयोजक भी जानते हैं और अब तो पैसा बचाने में वह अतिथियों की मदद भी करते हैं। जब सरकारी अधिकारी यह सब करते हैं तो यह भ्रष्टाचार का मामला बन जाता है। इस कारण जब हम नागरिक ऐसा करते हैं तो क्या यह निजी मामला कहलाएगा? भ्रष्टाचार सबसे पहले एक नैतिक समस्या है। नैतिक उठान की मांग के वर्तमान वातावरण में अगर हम यह संकल्प ले सकें कि अब लौं नसानी, अब न नसैहों तो अभी भी बहुत कुछ बदल सकता है। काश, नैतिक उठान के वर्तमान नेतृत्व के एक महत्वपूर्ण केंद्र किरण बेदी ने इस संकल्प की शुरुआत कर दी होती कि हां मैंने ये अनैतिक काम किए हैं और इसके लिए शर्मिदा हूं और संकल्प करती हूं कि अब कभी ऐसा नहीं करूंगी तो आज का बोझिल वातावरण कितना हलका हो जाता।
लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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