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बदलाव की अधूरी आस

जागरण मेहमान कोना
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Gautam Sachdevaभ्रष्टाचार के कारण बने निराशा-हताशा के माहौल में लोकतंत्र के भविष्य पर चिंता जता रहे हैं डॉ. गौतम सचदेव


भारतीय भ्रष्टाचार के हमाम में वैसे तो सब नगे थे, लेकिन जो इस हमाम में नहीं घुसे थे, नगे लोग उनके कपड़ों को भी उतारने और फाड़ने की होड़ लगा रहे हैं। नगई का आलम यह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए जो गिनती के नि:स्वार्थी और समर्पित लोग मैदान में कूदे हैं, भ्रष्ट नगे उन पर भी कीचड़ और गोबर उछालने में गर्व अनुभव कर रहे हैं। भारत के कुछ इलाकों में बड़ी गदी होली खेली जाती है, जब लोग एक दूसरे पर कुछ भी फेंकने को मौज-मस्ती करार देते हैं, लेकिन होली के इस हुड़दंग के पीछे चाहे जैसी भी हो, एक प्रकार की सदाशयता होती है, लेकिन आजकल भारत में जो हो रहा है उसके पीछे सदाशयता नहीं, द्वेष और अनैतिकता का बोलबाला है। बदले की भावना दिखाई देती है। ऐसा लगता है मानो भ्रष्ट लोगों द्वारा ईमानदार और निर्दोष लोगों को डरा-धमकाकर, पीटकर और बदनाम करके अन्याय, रिश्वतखोरी, बेईमानी, धांधली और धोखाधड़ी का निष्कंटक साम्राज्य फैलाए रखने की प्रतियोगिता-सी चल रही है। इसका परिणाम क्या होगा, इसकी चिंता न तो भ्रष्ट सत्ता भोगियों को है और न ही अपने लिए सुख-सुविधाएं बटोरने में लगे लोगों को। सोचिए, जिस लोकतंत्र में सत्ताधारियों को हर कीमत पर कुर्सियां हासिल करने और उन्हें बचाने की ही चिंता हो और जनता या तो आंखें मूंदे रखे या स्वय को असमर्थ समझकर तमाशा देखती रहे, उस लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा? क्या वह अपराध, बेईमानी, अनैतिकता, भाई-भतीजावाद, स्वार्थ और हिंसा का गढ़ नहीं बन जाएगा? क्या आज भारत यही बनता दिखाई नहीं देता?


कहने को लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है, लेकिन एक चुनाव से लेकर अगले चुनावों तक क्या उसके हाथ कट नहीं जाते? इस अवधि में वह सिवाय विरोध प्रदर्शनों के और क्या कर सकती है। जनता के लिए अगले चुनावों का मूल्य भी क्या रह जाता है जब पूरी व्यवस्था भ्रष्ट अथवा निकम्मी हो चुकी हो? उन चुनावों में फिर पहले जैसे लोग ही जीत कर कुर्सियों पर जम जाते हैं और भ्रष्टाचार का अंतहीन सिलसिला चलाते रहते हैं। ऐसे में व्यवस्था को बदलना बेहद जरूरी हो जाता है, लेकिन सवाल उठता है कि इसे बदले कौन और बदले तो कैसे बदले? इसके लिए भारत में अगर स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे जैसे इक्का-दुक्का जनसेवक बीड़ा उठाते हैं तो जाहिर है निहित स्वार्थो वाले यथास्थितिवादी भ्रष्ट और स्वार्थी लोग हर वह हथकंडा अपनाएंगे जिससे ऐसे जनसेवक हरगिज सफल न हो सकें। वे उन्हें पिटवाएंगे, उन पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करेंगे और अवसर मिलने पर जेल में भी डलवाएंगे।


अगर भारत की पूरी व्यवस्था को बदलने की बात की जाए तो कहा जा सकता है कि ऐसा शायद कभी संभव नहीं होगा, क्योंकि इसके पीछे स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश का चौसठ वर्षो का इतिहास है, एक विशिष्ट भारतीय जनमानस है, जो इसी व्यवस्था में पला, बढ़ा और परिपक्व हुआ है। इसलिए व्यवस्था के विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरी व्यवस्था को बदलने के बजाय केवल निर्वाचन प्रक्रिया को बदलने से भ्रष्टाचार पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। इससे आशिक सफलता तो शायद मिल जाए, लेकिन जब तक नैतिकता का पोषण और चरित्र का उत्थान नहीं होगा तब तक चुनावों में खड़े होने वाले उम्मीदवार तो इसी समाज से ही आएंगे और निर्वाचित होने के बाद वे वैसे ही कानून भी बनाएंगे। जनलोकपाल की नियुक्ति के बारे में भी यही बात लागू होती है। उससे आशिक लाभ तो निश्चित रूप से होगा, लेकिन उसको लाने के साथ-साथ निर्वाचन पद्धति में परिवर्तन करना तथा अन्य बहुत-सी चीजों को भी बदलना पड़ेगा। राजनीतिक दलों के गठन और सविधान को भी सुधारना होगा। इन सारे परिवर्तनों के साथ-साथ यह भी करना होगा कि भ्रष्ट लोगों को जवाबदेह बनाया जाए, उन्हें शीघ्र और समुचित दंड दिया जाए और गलत काम करने वालों की कुर्सियां छीनी जाएं। अगर वे जनप्रतिनिधि हों तो उन्हें वापस बुलाया जाए।


इधर ट्यूनीशिया, मिस्न और लीबिया जैसे अरब देशों में आई जनजाग्रति और क्रांति के उदाहरण हमारे सामने आए हैं। सीरिया में भी जनादोलन चल रहा है। क्या भारतीय जनता को अरब देशों का अनुकरण करना चाहिए और क्या वह उन जैसी हिंसात्मक सत्ता परिवर्तन की शैली का अनुकरण कर सकती है? उत्तर है-नहीं। भारतीय जनता न उनका अनुकरण कर सकती है, न रूस जैसे देशों का, जहां खूनी क्रांतियों से सत्ता परिवर्तन हुए हैं। मत भूलिए कि क्रांतियों के लिए जिस प्रकार की मानसिकता और नेतृत्व की जरूरत होती है वह भारत में नहीं पनपा है। भारतीय जनता व्यापक रूप से अहिंसक और शांतिप्रिय है। लोकतंत्रात्मक शासन की विशेषता यह होती है कि सत्ता परिवर्तन या अन्य प्रकार के परिवर्तन क्रांतियों से नहीं, जनमत से कराए जाते हैं। भारत में भी इसी तरह की शासन पद्धति है, इसलिए यहां भ्रष्ट सत्ताधारी भी शान से कहता है कि हमें जनता ने चुना है। अगर आप हमें नहीं चाहते तो अगले चुनावों में किसी और को चुन लीजिएगा। आज भारत में भ्रष्टाचार का जैसा बोलबाला है उसे देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भारत का भविष्य क्या है? आज जनता को कम-से-कम देश की न्यायपालिका का भरोसा अवश्य है, लेकिन यह काम अकेले न्यायपालिका कैसे करती रह सकती है? अगर भारत में भ्रष्ट लोकतंत्र है और वह भविष्य में भी भ्रष्ट ही बना रहता है तो क्या पूरा लोकतंत्र ही नहीं ढह जाएगा? यह बात आज सबके सोचने की है। उनकी भी जो इस लोकतंत्र के कर्णधार हैं और उनकी भी, जो इसके मूलभूत आधार हैं और इसके हितचिंतक हैं। मैथिलीशरण गुप्त की रचना ‘भारत भारती’ की दो पक्तियां हैं-हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।


लेखक डॉ. गौतम सचदेव बीबीसी के पूर्व प्रसारक हैं


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