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उभरती शक्ति का कड़वा सच

जागरण मेहमान कोना
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Vishesh Guptaसंयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव विकास से जुड़ी 21वीं रिपोर्ट हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट में 187 देशों की सूची में भारत को 134वां स्थान मिला है। रिपोर्ट का इस वर्ष का विषय ‘वैश्विक स्तर पर दीर्घकालीन विकास और न्यायसंगत प्रगति’ है। गौरतलब है कि विगत वर्ष की 20वीं रिपोर्ट में सामाजिक विषमता, लिंग असमानता और बहुआयामी गरीबी के प्रभावों का आकलन किया गया था। इस वर्ष रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक के अंतर्गत स्वास्थ्य, शिक्षा एवं ज्ञान, लैंगिक विषमता, आय और जीवन स्तर के संकेतकों के साथ पर्यावरणीय खतरों तथा उनसे निपटने के लिए किए जाने वाले उपायों के माध्यम से दीर्घकालिक प्रगति का आकलन किया गया है। इस रिपोर्ट की खास बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र के इस मानव विकास के सूचकांकों में भारत 133 देशों से भी पीछे है। आश्चर्य की बात यह है कि इस सूचकांक में श्रीलंका और युद्ध की विभीषिका से गुजरने वाला इराक भी हमसे बेहतर स्थिति में है।


मानव विकास लोगों की आजादी तथा उनकी क्षमताओं का विस्तार है। मानवीय विकास का अर्थ यह भी है कि कैसे मानव अपने जीवन को समाजोपयोगी व मूल्य प्रधान बनाकर अपनी क्षमताओं का भरपूर प्रयोग करते हुए स्वयं के व राष्ट्र के लिए उपयोगी बन सकता है। रिपोर्ट में इस बहस को भी आगे बढ़ाया गया है कि कैसे पर्यावरण की विकृति सामाजिक विषमता को बढ़ाते हुए वंचित समूहों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है? साथ ही कैसे मानवीय विकास के क्षेत्र में बढ़ती असमानताएं पर्यावरण विकृति को विस्तार दे रही हैं? रिपोर्ट में इस बहस को भी बल मिला है कि क्या मानव निर्मित पूंजी प्राकृतिक संसाधनों का स्थानापन्न बन सकती है? क्या मानव का उचित विकास प्राकृतिक संसाधनों के रखरखाव में सहायक हो सकता है? कुल मिलाकर मानव विकास का प्रमुख उद्देश्य वैश्विक स्तर पर एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जहां लोग स्वस्थ और शिक्षित होकर न्यायपूर्ण जीवन जीते हुए जीवन की रचनात्मकता को भी बनाए रख सकें।


यूएन की मानव विकास से जुड़ी इस रिपोर्ट को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने खारिज कर झेंप मिटाने की कोशिश की है। क्या हम इंकार कर सकते हैं कि मानवीय विकास के सामाजिक पहलू मसलन साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, पोषण और खाद्य सुरक्षा के लिहाज से हम दुनिया से पीछे चल रहे हैं। साथ ही हम निरंतर अपनी उस आबादी की भी उपेक्षा कर रहे हैं जो बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। देश में जो भी कल्याणकारी योजनाएं संचालित हैं उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार इन योजनाओं के लाभ को अभावग्रस्त तबकों तक नहीं पहुंचने दे रहा। यह कैसा विरोधाभास है कि एक ओर वैश्विक स्तर पर भारत को महाशक्ति बनाने की घोषणा की जा रही है तथा दूसरी ओर कुपोषण व भुखमरी के स्तर पर देश को नीचा देखना पड़ रहा है। देश में छह हजार टन से भी अधिक अनाज सड़कों व गोदामों में सड़ जाता है। इसी का परिणाम था कि पिछले साल उच्चतम न्यायालय तक को साफ कहना पड़ा कि जिस देश में करोड़ों लोग भूख से बेहाल हैं, वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध की श्रेणी में आती है।


देश में जन वितरण प्रणाली की स्थिति यह है कि केवल 57 फीसदी बीपीएल परिवारों को ही इसका लाभ मिल पा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 25 लाख शिशुओं की अकाल मृत्यु होती है तथा 42 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं। इस संबंध में भारत की स्थिति दक्षिण एशिया और अफ्रीका के गरीब देशों से भी बदतर है।


कड़वा सच यह है कि दुनिया के सर्वाधिक गरीब अपने देश में ही हैं। लैंगिक असमानता के सूचकांक के अंतर्गत रिपोर्ट में भारत को 129वां स्थान मिला है। इसलिए दक्षिण एशिया में भारत केवल अफगानिस्तान से ही आंशिक रूप से बेहतर स्थिति में है। दक्षिण एशिया की महिलाएं संसदीय प्रतिनिधित्व एवं श्रमिक बल की भागीदारी में पुरुषों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई हैं। इस रिपोर्ट में स्पष्ट चेतावनी दी गई है कि यदि हमने मानव विकास के हित में ग्लोबल पर्यावरण संतुलन बनाने का प्रयास नहीं किया तो हमें विनाशकारी परिणाम भुगतने होंगे।


इस मानव विकास रिपोर्ट में भारत को मध्यम और मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देशों में रखा गया है, परंतु सच्चाई यह है कि यहां लागू नवीन उदारवादी अर्थव्यवस्था ने अमीरों का भला अधिक किया है। इन बाजारवादी और आर्थिक उदारवादी नीतियों का प्रभाव यह हुआ है कि देश में एक छोटे वर्ग के पास अपार धन संपदा एकत्रित होती रही, जबकि एक बड़ा वर्ग न्यूनतम रोजी-रोटी के लिए जूझता रहा। देश में भूखे, कुपोषित और बीमार बच्चों तथा बेरोजगार युवाओं की फौज तैयार हो रही है। हमारे अति उपभोग से पर्यावरण निरंतर विकृत हो रहा है।


संपूर्ण विश्व में आर्थिक विकास के क्षेत्र में हमारी साख और धाक लगातार बढ़ रही है, परंतु मानव विकास के मुद्दों पर हम लगातार पिछड़ रहे हैं। सहश्चाब्दि विकास लक्ष्य-2015 से भी हम अभी दूर ही हैं। आर्थिक उदारीकरण से जुड़ी नीतियों का लाभ देश के प्रत्येक वर्ग को मिले, इसके लिए हमें मानवीय विकास के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को राष्ट्र की आवश्यकताओं के साथ जोड़ना होगा। ध्यान रहे मानवीय विकास के अनेक आयाम राष्ट्रीय विकास के उत्प्रेरक भी हैं। इसलिए हमें मानवीय विकास के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा जहां लोग भीड़ के रूप में नहीं सामाजिक-सांस्कृतिक संपदा के रूप में विकसित हों। तभी हम मानवीय विकास के वैश्विक मानकों पर खरे उतरेंगे।


लेखक डॉ. विशेष गुप्ता समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं


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