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कोई 11 साल पहले अखंड उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड को अलग कर नया प्रदेश बना दिया गया था। उस वक्त नए प्रदेश के गठन में विकास से ज्यादा राजनीति हावी थी और वर्तमान परिदृश्य में भी राजनीति से इतर नए प्रदेशों की कल्पना नहीं की जा सकती। चूंकि चार माह के भीतर उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, अत: इस मौके को भुनाने के लिए उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने दोबारा उत्तर प्रदेश को बंटवारे की राह पर धकेलने का फैसला कर लिया है। आगामी 21 नवंबर से लेखानुदान लाने के नाम पर मायावती ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया है और संभावना है कि मायावती प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव पेश कर सकती हैं। उत्तर प्रदेश के ये चार टुकड़े क्रमश: पूर्वी, पश्चिमी, मध्य और बुंदेलखंड के रूप में प्रस्तावित हैं। मायावती के इस संभावित कदम से प्रदेश की राजनीति गरमा गई है और सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपना नफा-नुकसान देखना शुरू कर दिया है। वैसे भी प्रदेश के बंटवारे की मांग नई नहीं है। बुंदेलखंड की मांग जहां दशकों पुरानी है तो राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजीत सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश (हरित प्रदेश) की मांग कर रहे हैं। मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुख्यमंत्री मायावती को चुनाव से पहले ही राज्य के बंटवारे की याद क्यों आई? बंटवारे के बहाने चुनावी कवायद उत्तर प्रदेश में नए राज्य की मांग कोई नई बात नहीं है। दरअसल, एक जमाने में प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी।
विधानसभा से लेकर लोकसभा तक की अधिकांश सीटें कांग्रेस के खाते में जाती थीं। मगर 1980 के बाद से इस स्थिति में बड़ा फेरबदल हुआ। भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में अपना एक मजबूत वोट बैंक तैयार कर लिया। भारतीय जनता पार्टी जहां हिंदुत्व के मुद्दे पर प्रदेश में छाई, वहीं समाजवादी पार्टी ने यादव-मुस्लिम गठजोड़ कर प्रदेश में नए समीकरण पैदा किए। बहुजन समाज पार्टी ने दलितों और पिछड़ों को अपना मजबूत वोट बैंक बनाया। इन परिस्थितियों में विकास के मुद्दे न जाने कहां बिसरा दिए गए? ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने कभी नए राज्य की मांग न की हो, लेकिन क्षेत्रीय दलों के प्रादुर्भाव के कारण इस मांग में अपेक्षाकृत अधिक तेजी आई। प्रदेश में जाति और धर्म आधारित राजनीति का सूत्रपात हुआ, जिसकी वजह से प्रदेश कई क्षेत्रों में बंट गया। हर पार्टी का निश्चित भू-भाग पर जाति एवं धर्म की दृष्टि से आधिपत्य हुआ। राष्ट्रीय दल प्रदेश से ओझल होने लगे। धीरे-धीरे प्रदेश में कई अन्य नए दलों ने भी आमद दी और कई असंतुष्टों ने भी अपनी राह जुदा कर ली। इससे पुन: वोटों का धु्रवीकरण हुआ और जाट, ठाकुर आदि ने भी अपने क्षेत्र विशेष में अपना सिक्का जमाना शुरू कर दिया।
रालोद अध्यक्ष अजीत सिंह इसी राजनीति की उपज कहे जा सकते हैं। जैसे-जैसे राजनीतिक दलों ने अपने क्षेत्र विशेष में अपनी पैठ मजबूत की, उन्होंने उस क्षेत्र विशेष को नया राज्य का नाम देकर प्रदेश से अलग करना चाहा। नेताओं ने आम लोगों के दिमाग में यह बात भर दी कि उनका प्रदेश सिर्फ उनका होगा और छोटा होने की वजह से विकास भी करेगा। वहां के संसाधनों पर पहला हक भी वहां के मूल निवासियों का होगा। इससे नए राज्य की मांग जोर पकड़ने लगी। अब जबकि राज्य में विधानसभा चुनाव की आहट सुनाई दे रही है, अधिकांश दलों ने नए राज्य का शिगूफा छेड़ दिया है ताकि अपने क्षेत्र विशेष में नया वोट बैंक तैयार किया जा सके। विकास की कसौटी पर छोटे राज्य इतिहास गवाह है कि छोटे राज्यों से कभी विकास नहीं होता। यदि ऐसा हुआ होता तो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर झारखंड आज देश का अग्रणी राज्य बन गया होता। इसके उलट वहां के स्वार्थी नेताओं ने जनता को मूर्ख बनाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकीं। मधु कोड़ा 4,000 करोड़ की संपत्ति बना ले गए तो शिबू सोरेन हर बार चुनाव के बाद किंग मेकर बनकर उभरने लगे। राजनीतिक अस्थिरता का जो दौर झारखंड ने देखा और भोगा है, शायद ही किसी राज्य ने महसूस किया हो।
विकास हमेशा मजबूत इच्छाशक्ति और बेहतर प्रबंधन से होता है, जबकि यहां के नेताओं ने अपनी समस्त इच्छाशक्ति और बेहतर प्रबंधन को अपने विकास की ओर मोड़ लिया। अब जबकि मायावती भी उत्तर प्रदेश के टुकड़े करने पर उतारू हैं और इसमें उन्हें कांग्रेस और रालोद का साथ भी मिल सकता है तो उम्मीद की जा सकती है कि नए राज्यों का गठन किस आधार पर होगा? गौरतलब है कि कांग्रेस ने जहां बंटवारे की पैरवी कर उल्टा मायावती को विधानसभा में प्रस्ताव लाने की चुनौती दी है, वहीं रालोद अध्यक्ष अजीत सिंह तो कब से पश्चिमी उत्तर प्रदेश (हरित प्रदेश) की मांग पर अड़े हैं। इन सब में समाजवादी पार्टी का राज्य बंटवारे को लेकर कड़ा रुख है। वैसे भी पार्टी ने कभी नए राज्य गठन की पैरवी नहीं की है और इस बार भी वह मायावती के इस कदम के खिलाफ दम ठोंक कर सियासी मैदान में उतर आई है। हां, भारतीय जनता पार्टी ने अभी इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है यानी मायावती-कांग्रेस का अंदरूनी प्रेम एक बार फिर सामने आ रहा है। वैसे रालोद-कांग्रेस गठबंधन लगभग हो चुका है। वैसे भी मायावती का प्रस्ताव आने पर उसे समर्थन के लिए कांग्रेस (22) और रालोद (10) के विधायकों की आवश्यकता पड़ेगी। यानी राज्य बंटवारे के नाम पर मायावती सहित कांग्रेस भी अब अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता करने में लगी हुई है।
मायावती का यह कदम राजनीति में किन समीकरणों को जन्म देगा, यह तो भविष्य के गर्त में छुपा है, मगर इससे राज्य का कितना भला होगा यह मूल प्रश्न है? झारखंड का उदाहरण पहले ही दिया जा चुका है और आगे भी ऐसे उदाहरण सामने आते रहेंगे। आसान नहीं है राह बचपन में स्कूल में रोज सुबह होने वाली प्रार्थना में हम सभी भारत की संप्रभुता और अखंडता को प्रणाम करते हुए इसकी सलामती की दुआ मांगा करते थे, लेकिन शायद हमारे ही देश के नेताओं को इसकी अखंडता और संप्रभुता रास नहीं आ रही। अभी तेलंगाना जल रहा है। अब बारी उत्तर प्रदेश की है। वैसे देखा जाए तो नए राज्य के गठन की प्रक्रिया इतनी आसान भी नहीं होती। इसके लिए सबसे पहले राज्य विधानसभा राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव पारित करती है। फिर राज्य के बंटवारे का एक विधेयक तैयार होता है और संसद के दोनों सदनों द्वारा इसे पारित किया जाता है। इसके बाद विधेयक राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए जाता है। उनकी मंजूरी के बाद राज्य के संसाधनों के बंटवारे की जटिल प्रक्रिया शुरू होती है। फिर देश के पैसे का अपव्यय तो होता ही है, लेकिन जब सभी स्वार्थी तत्व एक साथ हाथ मिला लें तो किसी भी एकता को तोड़ सकते हैं। इसलिए अब यह उत्तर प्रदेश के लोगों को तय करना है कि वे टुकड़ों में बंट कर राजनीतिक खिलौना बनना चाहते हैं या एक होकर राजनीति करने वाले नेताओं को सबक सिखाना चाहते हैं।
लेखक सिद्धार्थ शंकर गौतम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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