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बचाव की बेजा दलीलें

जागरण मेहमान कोना
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संकट में घिरी किंगफिशर एयरलाइंस को सरकारी मदद देने की दलील को अनुचित ठहरा रहे हैं परंजय गुहा ठाकुरता


भारत ने अभी तक आर्थिक उदारीकरण की नीति का एक हिस्सा देखा, लेकिन अब हम एक अलग दौर में हैं। वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को स्वीकार किए जाने के बाद जिस व्यवस्था को अपनाया गया वह खुले बाजार और खुली अर्थनीति की वकालत पर आधारित थी। इसी नीति के आधार पर विमानन क्षेत्र में निजी क्षेत्र को आने की अनुमति दी गई और सरकारी क्षेत्र को सीमित करने के प्रयास शुरू हुए। इसके सबके पीछे मंशा यही थी देश के बड़े उद्योगपति अपनी निजी पूंजी और व्यावसायिक प्रबंधन क्षमता के आधार पर प्रतिस्पर्धा करते हुए न केवल लाभ कमाएंगे, बल्कि विमानन क्षेत्र को भी विकसित, समृद्ध और विश्वस्तरीय बनाने का प्रयास करेंगे। इसमें निजी उद्यमियों को यह आश्वासन नहीं दिया गया था कि यदि उन्हें घाटा होगा तो सरकार उन्हें मदद करेगी। इसी नीति और लाभ की संभावना के तहत कई दूसरे पूंजीपतियों की तरह ही विजय माल्या ने भी किंगफिशर एयरलाइंस की शुरुआत की।


जब किंगफिशर मोटी कमाई कर रही थी और उसकी माली हालत अच्छी थी तो दूसरी विमानन कंपनियों को कड़ी टक्कर देने और उनका विलय करने की कोशिश भी की गई। एकाधिकार जैसी स्थिति पाने के लिए किंगफिशर ने एयर डेक्कन का विलय किया और सहारा एयरलाइंस को भी हासिल करने की कोशिश की। हालांकि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का नियम यही कहता है कि एकाधिकार हासिल करने की कोशिश गलत है और इसे रोकने के लिए सरकार को हरसंभव प्रयास करने चाहिए। यह अलग बात है कि तब सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। आज जब खराब प्रबंधन और गलत नीतियों के कारण किंगफिशर घाटे में आ गई है और उसकी नौबत बंद होने की है तो विजय माल्या अपने डूबते जहाज को बचाने के लिए हरसंभव मदद पाने की अपेक्षा कर रहे हैं। यह अलग बात है कि उन्होंने इसके लिए खुले तौर पर सरकार से बेलआउट पैकेज की मांग नहीं की है, लेकिन वह केंद्र और राज्य सरकारों से मदद करने को अवश्य कह रहे हैं। इसके लिए तरह-तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं, जिसमें विमान ईधन की कीमतें महंगी होने और ब्याज दरें ऊंची होने का तर्क दिया जा रहा है, लेकिन सवाल है कि क्या यह तर्क बाकी विमानन कंपनियों पर लागू नहीं होता। हमें नहीं भूलना चाहिए कि एयर इंडिया, जेट एयरवेज, स्पाइसजेट जैसी कंपनियां भी घाटे में हैं, लेकिन उन्होंने तो इस तरह की मांग नहीं की है और न ही वह सरकार से ऐसी कोई अपेक्षा कर रहे हैं। किंगफिशर को अपने संकट से स्वत: निकलने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए उसे बैंकों से वित्तीय मदद पाने की कोशिश करनी चाहिए। यदि कंपनी बैंकों को पैसा वापस नहीं करती है तो संबंधित बैंक ने जिन बंधक संपत्तियों की एवज में पैसा मुहैया कराया था उसे बेचकर अपनी वसूली करें, लेकिन इस कार्य में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि हस्तक्षेप होता है तो विमानन कंपनी के साथ ही संबंधित बैंक भी घाटे में आ जाएंगे और फिर सरकार एक नए तरह के दुष्चक्र में फंस जाएगी, जिसका परिणाम पूरी अर्थव्यवस्था और देश के लिए नकारात्मक व नुकसानदायक होगा। इस तरह निजी क्षेत्र की दूसरी कंपनियों को भी सरकार से प्रोत्साहन पैकेज मांगने का अवसर मिलेगा।


ऐसा भी सुनने में आ रहा है कि सरकार किंगफिशर को मदद देने के लिए पिछले दरवाजे से बात कर रही है और पूरे विमानन क्षेत्र के घाटे में होने को मुद्दा बना रही है। हालांकि, इस तरह से लोगों को मूर्ख बनाना संभव नहीं है। यहां हमें नहीं भूलना चाहिए कि सरकार के पास जो पैसा है वह आम लोगों का है और यह विभिन्न तरह के कर के माध्यम से सरकारी खजाने तक पहुंचा है। इसलिए स्वाभाविक है कि इस खजाने के पैसे पर पहला हक आम आदमी का है। सरकार तमाम तरह की छूट और प्रोत्साहन नीतियों के माध्यम से निजी क्षेत्र को सहूलियतें देती रहती है, लेकिन आज देश का आम आदमी खाद्यान्न और दूसरी तमाम चीजों की ऊंची कीमतों के कारण जबरदस्त संकट में है। आम आदमी तो आम आदमी मध्य वर्ग की भी हालत खराब है और जीवन निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएं भी वह पूरी नहीं कर पा रहा है। ऐसे में विमानन क्षेत्र के ताजा संकट से प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री का चिंतित होना अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन हमें यहां निर्णय लेना होगा कि आम आदमी के हित और संकट ज्यादा बड़े हैं या व्यापार के? व्यापारी अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहते हैं और इसके लिए सरकार से हरसंभव मदद चाहते हैं। यहां तक कि घाटा होने पर विशेष प्रोत्साहन पैकेज भी, लेकिन इस सबके बीच सवाल आम आदमी का भी है, क्योंकि उसकी जेब हर तरह से काटी जा रही है और सुविधाओं के नाम पर उसे दी जा रही थोड़ी बहुत सब्सिडी भी खत्म करने को कहा जा रहा है। खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में आम आदमी की आवश्यकताओं को देखते हुए अधिक धन खर्च करने की आवश्यकता है। यदि सरकारी कोष निजी कंपनियों को बचाने में खर्च किया जाता है तो इन योजनाओं के लिए धन कहां से आएगा? दुनिया के दूसरे देशों की तरह भारत में न जाने कितनी कंपनियां बंद हो चुकी हैं। ऐसे में यदि किंगफिशर एयरलाइंस भी बंद होती है तो मुसीबत वाली कौन सी बात है। विजय माल्या अथाह धन के स्वामी हैं और देश-विदेश घूमते रहते हैं। उनकी एक नहीं कई कंपनियां हैं और वह अपना बचाव करने में सक्षम, समर्थ हैं इसलिए उनकी मदद करने में सरकार की कोई भूमिका नहीं है। हां, जहां तक एयर इंडिया की बात है तो यह सार्वजनिक कंपनी होने के कारण सरकार की जिम्मेदारी है इसलिए सरकार को इसे निभाना चाहिए।


लेखक परंजय गुहा ठाकुरता आर्थिक-राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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