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शिकायत निवारण मसौदे से शिकायतें

जागरण मेहमान कोना
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जन शिकायत निवारण अधिकार कानून के मसौदे में सुधार के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दे रहे हैं पाणिनि आनद और निखिल डे


सरकारी कामकाज में दु‌र्व्यवस्था से त्रस्त लोगों की समस्याओं और तकलीफ का कारण भ्रष्टाचार और गलत नीतियों के साथ-साथ रोजमर्रा के कामकाज में आने वाली अड़चनें भी हैं। ये अड़चनें पैदा होती हैं सरकारी विभागों के कर्मचारियों, अधिकारियों के कामकाज के रवैये और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की वजह से। ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा शिकायत निवारण के लिए जो कानून लाने की तैयारी हो रही है, वह एक सराहनीय प्रयास है। ससद के शीलकालीन सत्र में जन शिकायत निवारण अधिकार कानून को पेश करने से पहले केंद्र सरकार ने इसके मसौदे को लोगों के समक्ष रखा है। इस मसौदे में जहां एक ओर सरकार ने कई अहम और सराहनीय बातों को शामिल किया है, वहीं दूसरी ओर कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर कमजोर और अव्यावहारिक प्रावधान भी बना दिए हैं। ऐसे में, कानून बनने से पहले इस मसौदे का विश्लेषण और सुधार बहुत जरूरी हैं।


सिटिजन चार्टर और शिकायत की परिभाषा को इस मसौदे ने और व्यापक बनाया है जो बहुत अहम है। मौजूदा प्रारूप में सरकारी अधिकारियों के दायित्व, कर्तव्य और उनकी प्रतिबद्धताओं को सिटिजन चार्टर का हिस्सा बनाया गया है। साथ ही, सिटिजन चार्टर का उल्लघन, किसी भी कानूनी अधिकार को न देना या सरकारी कर्मचारी का गैर-जिम्मेदाराना रवैया शिकायत के दायरे में शामिल किए गए हैं। इसके अलावा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप, गैर सरकारी सगठनों और सार्वजनिक क्षेत्र में काम कर रही ऐसी निजी सस्थाओं, कंपनियों को भी इसके दायरे में लाया गया है जिन्हें सरकारी अनुदान मिल रहा है या जो ऐसे क्षेत्रों में काम कर रही हैं जिनमें कामकाज का जिम्मा सरकारी अमले का रहा हो।


मौजूदा मसौदे को लेकर कुछ गभीर चिताएं हैं। सबसे अहम चिता जिला स्तर पर एक स्वतत्र शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन न करना है। इससे दो सकट पैदा होंगे। पहला, स्वतत्र इकाई की तुलना में विभाग के भीतर ही शिकायतों के निस्तारण की व्यवस्था बहुत प्रभावी नहीं हो सकती है। दूसरा, परिस्थितिया ऐसी हैं कि जिला स्तर पर ही हजारों शिकायतों की सुनवाई होनी है। ऐसे में जरूरी है कि आधिकाधिक शिकायतों, अर्जियों को जिला स्तर पर ही हल करने के लिए हम एक स्वतत्र व्यवस्था बनाएं। मौजूदा मसौदे में आवेदक को सबधित विभाग के किसी अधिकारी के समक्ष ही अपनी समस्या लेकर जाना होगा। वहा सुनवाई न होने पर वह शिकायत विभागाध्यक्ष के पास जाएगी। पहले अपनी जरूरत या सहायता के लिए आवेदन, इसके बाद उस पर सुनवाई न हो तो शिकायत निवारण अधिकारी के पास आवेदन, इसके बाद विभागाध्यक्ष के पास अपील, फिर राज्य स्तरीय और फिर केंद्रीय आयोग तक की दौड़ आवेदक के लिए बहुत कठिन और कष्टप्रद होगी। इसलिए भी जरूरी है कि अधिकतम शिकायतों को जिला स्तर पर एक स्वतत्र प्राधिकरण सुने और उनका निवारण करे।


सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान [एनसीपीआरआइ] ने पिछले दिनों जन शिकायत निवारण के मुद्दे पर राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें कई सगठनों, विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने एकमत होकर सुझाया था कि ब्लॉक स्तर पर एक स्वतत्र व्यवस्था बन सके जो शिकायत निवारण के सदर्भ में लोगों की मदद करे। इस देश में अभी भी आबादी का एक हिस्सा अपनी शिकायतें लिखने या उन्हें सही ढंग से प्रस्तुत कर पाने में सक्षम नहीं है। ऐसे में, बेहतर होगा कि जिला या राज्य स्तर के बजाय ब्लॉक स्तर पर ही ऐसे सहायता केंद्र बनें जिनके जरिए लोग अपनी शिकायतों को लिखवा सकें, उसे सबधित विभाग में दर्ज करा सकें, उसकी रसीद ले सकें और उसकी स्थिति जान सकें। इसके अलावा यह जन सहायता केंद्र विभागों द्वारा शिकायत निवारण न होने की स्थिति में प्राधिकरण के पास शिकायतकर्ता की ओर से अपील करने का काम भी करेगा। ऐसा करना इस कानून को व्यावहारिक और जमीनी तौर पर प्रभावी बनाने में मददगार साबित होगा। इन स्वतत्र जन सहायता केंद्रों की जवाबदेही आमजन और जिला स्तरीय प्राधिकरण के प्रति सुनिश्चित होनी चाहिए। अफसोस की बात है कि सरकार ने इस महत्वपूर्ण बिदु को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। मसौदे में जन सहायता केंद्रों की स्थापना की तो बात की गई है पर इसे स्वतत्र इकाई न बनाकर पूरी तरह से विभागीय व्यवस्था के तौर पर रखा है और वह भी विभाग की सदेच्छा पर आधारित।


मसौदे में अनदेखी और लापरवाही करने वाले अधिकारियों के खिलाफ दंड का प्रावधान तो है पर यह उनकी रिकॉर्ड बुक में दर्ज किए जाने की जरूरत से मुक्त है। ऐसे में जुर्माने का प्रावधान अधिकारियों के लिए कोई बड़ी चिता और मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में असमर्थ है। इससे भी बड़ी चिता शिकायतकर्ता की स्थिति को लेकर है। कानून में अभी तक भुक्तभोगी शिकायतकर्ता के लिए मुआवजे का प्रावधान शामिल नहीं किया गया है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। राज्य और केंद्र स्तरीय आयोग के बीच आदेशों के अनुपालन के दौरान आने वाली प्रशासनिक अड़चनें भी अहम सवाल हैं। राज्य स्तरीय आयोग और केंद्रीय आयोग के गठन के पीछे उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट वाले मॉडल को ध्यान में रखा गया है पर यहां इसकी व्यावहारिक अड़चनों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। मसलन, अलग-अलग कार्यक्षेत्र और अधिकारों की वजह से कई जगह गतिरोध की स्थिति पैदा हो सकती है।


केंद्र सरकार अगर इन मूल चिताओं को ध्यान में रखते हुए जरूरी सुधारों के साथ एक जन शिकायत निवारण अधिकार कानून बनाती है तो इससे निश्चय ही हम एक बेहतर, व्यावहारिक और ऐतिहासिक कानून की ओर आगे बढ़ सकेंगे।


इस आलेख के लेखक निखिल डे हैं


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