- 1877 Posts
- 341 Comments
पिछले 11 नवंबर को पूरे देश में शिक्षा दिवस इस विश्वास के साथ मनाया गया कि अब भारत में शिक्षा का हक अभियान जोर पकड़ेगा। नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009, 1 अप्रैल 2010 से सारे देश में लागू किया जा चुका है, परंतु किस तरह इस कानून का पालन होगा इस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है। खुले आसमान के नीचे तपती दोपहरी अथवा कड़कती ठंड में क्या नन्हे बच्चे वाकई पढ़ सकते हैं? कुछ अरसे पूर्व उच्चतम न्यायालय ने सभी स्कूलों में पेयजल सुविधा न उपलब्ध करा पाने पर उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई और साथ ही स्कूलों में शौचालय सुविधा उपलब्ध कराने के भी निर्देश दिए।
शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के तीन साल के भीतर देश के सभी स्कूलों में कानून के मुताबिक न्यूनतम सुविधाएं देनी अनिवार्य हैं। हालांकि इससे यह मान लेना कि कानून आने मात्र से देश में शिक्षा का परिदृश्य बदल जाएगा गलत होगा। फिर भी कम से कम यह शुरुआत तो हो ही गई है कि सरकार शिक्षा की न्यूनतम सुविधाओं की जिम्मेदारी उठा रही है। उच्चतम न्यायालय के आदेश के तहत स्कूल भवन के निर्माण के लिए न्यूनतम क्षेत्रफल 0.4 हेक्टेयर होगी, भवन में पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था तथा वाहन पार्किग के साथ-साथ मुख्यमार्ग की चौड़ाई 12 मीटर और भवन की छत आरसीसी की बनी होनी जरूरी है। स्कूल में आग पर काबू पाने का इंतजाम होना चाहिए, लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। आंकड़े बताते हैं कि देश के दो-तिहाई स्कूलों में न्यूनतम से भी कम कमरे उपलब्ध हैं।
आधे स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है। 40 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं हैं और 20 प्रतिशत शिक्षकों के पास पढ़ाने योग्य न्यूनतम डिग्री नहीं है। अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बाद नामांकन दर बढ़ा है, परंतु पढ़ाई-लिखाई का स्तर बेहद चिंताजनक है। एक स्वयंसेवी संस्था प्रथम के सर्वेक्षण के मुताबिक पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले पचास प्रतिशत से ज्यादा बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें भी नहीं पढ़ पाते। दो-तिहाई बच्चे साधारण जोड़-घटाव या गुणा-भाग के प्रश्न हल नहीं कर पाते। सच तो यह है कि देश की शैक्षणिक तस्वीर सुधारने के लिए जो योजनाएं लागू की गई हैं उनका मकसद व्यवहार में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ाने तक सीमित रहा है। इससे स्कूलों में नामांकन दर में इजाफा हुआ, लेकिन बच्चों की प्रगाति का प्रश्न उपेक्षित रह गया। शिक्षा की गुणवत्ता के मसले पर बनी क्रेमर-मुरलीधरन समिति ने अपने अध्ययन में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की गैर-हाजिरी और शिक्षण कार्य में दिलचस्पी नहीं लेने को इसका बड़ा कारण माना था, परंतु इस अवरोध को दूर करने की कोशिश नहीं की गई। यह तथ्य किसी से छुपा हुआ नहीं है कि सरकारी स्कूल में अनुबंध पर रखे गए शिक्षक प्रशिक्षित नहीं होते। जाहिर है यह प्राथमिक स्तर के बच्चों को उनके मानसिक स्तर पर नहीं पढ़ा पाते। इससे बच्चों के लिए पढ़ाई बोझ बन जाती है। दरअसल शिक्षा मात्र अक्षर ज्ञान नहीं है, बल्कि यह व्यक्तित्व-निर्माण की पहली सीढ़ी भी है। शिक्षित व्यक्ति ही अन्याय और शोषण का मुकाबला कर सकता है।
शिक्षा जीवन में सफलता के द्वार खोलती है, परंतु भारतीय शैक्षणिक व्यवस्था इस परिपाटी को कायम कभी नहीं रख पाई। यह आवश्यक है कि पाठयक्रम और शिक्षण की विधियां बच्चों के लिए सहज बोधगम्य हों। जहां सिखाने के लिए खेल या गतिविधि आधारित तरीके अपनाए गए हैं वहां इसके अच्छे नतीजे देखने को मिले हैं। शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात भी एक समस्या है। शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के अलावा जरूरत इस बात की भी है कि बच्चों के लिए बोधगम्य पाठयक्रम तैयार किए जाएं। वर्ष 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद फिलहाल देश के 15 राज्यों ने यह कानून लागू किया है। पिछले 58 वर्षो के अंाकड़े बताते हैं कि स्वतंत्र भारत में पहली बार प्राथमिक शिक्षा के लिए सर्वशिक्षा अभियान के तहत केंद्र ने धनराशि आवंटित की है। अब यह राज्यों पर है कि वे इसका सही इस्तेमाल कर पाते हैं या नहीं।
लेखक डॉ. ऋतु सारस्वत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Comments