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उत्तर प्रदेश के विभाजन के मायावती के प्रस्ताव को फौरी राजनीतिक लाभ की तिकड़म बता रहे हैं प्रदीप सिंह
उत्तर प्रदेश की मुख्यमत्री मायावती ने प्रदेश के बटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में ध्वनि मत से पास करा लिया। पर इसकी गूंज प्रदेश की राजनीति में जमीनी स्तर पर सुनाई नहीं पड़ रही है। सवाल है कि क्या मायावती को ऐसा होने की उम्मीद थी। उनके कार्यकलाप से तो ऐसा लगता नहीं। ऐसा होता तो वे कम से कम अपनी पार्टी की ओर से ही प्रस्तावित राज्यों में अलग प्रदेश की माग के लिए कोई आदोलन खड़ा करने की कोशिश करतीं। विपक्षी दलों को ही नहीं अपनी पार्टी और सरकार के लोगों को भी अपने फैसलों से चौंकाना उनकी कार्यशैली का हिस्सा बन चुका है। प्रजातात्रिक ढंग से सलाह मशविरे की प्रक्रिया के जरिए फैसले लेना उनके स्वभाव में नहीं है क्योंकि इसके लिए उन्हें मशविरा करने वालों को बराबरी का दर्जा देना पड़ेगा और यह उन्हें मजूर नहीं। विधानसभा में राज्य के बटवारे का प्रस्ताव पास करने भर से उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन नहीं होने वाला है। यह बात मायावती भी समझती हैं।
सवाल है कि फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? इसके तीन कारण नजर आते हैं। एक उन्हें चुनाव से पहले चर्चा के लिए ऐसे मुद्दे की दरकार थी जिससे उनकी सरकार के कामकाज की समीक्षा से लोगों का ध्यान हटे। इसमें फिलहाल तो वे कामयाब हैं। दूसरा कारण समाजवादी पार्टी है। मायावती समाजवादी पार्टी को अपने राजनीतिक विरोधी का दर्जा नहीं देना चाहतीं। इसलिए चुनाव से पहले उन्हें अपना एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी खड़ा करना था। इसके लिए उन्होंने काग्रेस को चुना। उन्हें पता है कि उत्तर प्रदेश में काग्रेस का सगठन खोखला हो चुका है। अब राजनीतिक दुश्मन चुन लिया तो उससे लड़ाई होती हुई भी तो दिखे। प्रदेश के बटवारे के प्रस्ताव के रूप में उन्हें एक मुफीद मुद्दा नजर आया। विधानसभा में प्रस्ताव पारित होने के बाद अब गेंद केंद्र सरकार यानी काग्रेस के पाले में चली गई है। ससद में नए राज्यों के गठन के सविधान सशोधन विधेयक को पास कराने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत के लिए भाजपा की तो फिर भी जरूरत पड़ेगी, लेकिन समाजवादी पार्टी की मदद के बिना काम चल सकता है। इस एक कदम से मायावती ने अपने असली राजनीतिक दुश्मन समाजवादी पार्टी को पूरी विधायी प्रक्रिया से बाहर रखने का इंतजाम कर लिया है।
तीसरा कारण काग्रेस और अजित सिह के लोकदल के सभावित चुनावी गठबधन के लिए समस्या खड़ी करना है। लोकदल काफी समय से हरित प्रदेश [सरकारी प्रस्ताव में पश्चिम प्रदेश] की माग कर रहा है। राज्य के बटवारे का प्रस्ताव पास करके मायावती ने अजित सिह को सरकार के फैसले का स्वागत करने के लिए मजबूर कर दिया है। अब अजित सिह को काग्रेस पर दबाव डालना पड़ेगा कि इस मुद्दे पर वह सकारात्मक और निश्चित पहल करे।
उत्तर प्रदेश में दोनों राष्ट्रीय दलों काग्रेस और भाजपा की कठिनाई यह है कि वे सैद्धातिक रूप से प्रदेश के बटवारे के पक्ष में हैं। उन्हें एतराज मायावती के प्रस्ताव के समय और तरीके पर है। इसमें भी काग्रेस के लिए मुश्किल ज्यादा है। वह उत्तर प्रदेश के बटवारे के समर्थन में खुलकर आती है तो आध्र प्रदेश में उसकी मुश्किलें बढ़ेंगी। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर चर्चा से केवल मायावती को राजनीतिक फायदा मिलेगा। इसीलिए प्रदेश के बाकी दल इस मुद्दे पर चर्चा से ही बचना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के बटवारे के खिलाफ होने के बावजूद समाजवादी पार्टी इसके विरोध में ज्यादा मुखर नहीं होना चाहती।
मायावती के इस प्रस्ताव से एक ऐसा अर्थ भी निकलता है जिसे वह नहीं चाहेंगी कि निकाला जाए। उन्होंने प्रदेश के बटवारे की घोषणा की प्रेस काफ्रेंस में माना कि पिछले साढ़े चार साल के शासन में वह प्रदेश का सर्वागीण विकास नहीं कर पाई हैं। इसके लिए उन्होंने प्रदेश के आकार को बड़ा कारण बताया। उनका मानना है कि उत्तर प्रदेश को अगर चार प्रदेशों में बाट दिया जाए तो विकास आसान हो जाएगा। प्रशासनिक रूप से छोटे प्रदेशों के गठन पर देश में एक आम सहमति है। पर सवाल है कि क्या आकार छोटा हो जाने से लोगों की विकास सबधी आकाक्षाएं पूरी हो जाएंगी। झारखंड को देखकर तो नहीं कहा जा सकता कि छोटा बेहतर होता है। विकास के लिए आकार से ज्यादा अहम है उस क्षेत्र के राजनीतिक नेतृत्व की दूरदर्शिता, लोगों की आकाक्षाओं के प्रति सवेदनशीलता और उन्हें पूरा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति।
छोटे प्रदेश बनाने का मकसद क्या है? विकास या लालबत्ती वाली गाड़ियों की सख्या बढ़ाना। सिर्फ प्रशासनिक सुविधा के लिए नए राज्यों का गठन केंद्र और अंतत: देश की अखंडता के लिए खतरा भी बन सकता है। नए राज्यों के गठन से क्षेत्रीय दलों की सख्या और ताकत दोनों बढ़ेंगी। देश की राजनीति एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहा किसी एक दल के लिए अपने बूते केंद्र में सत्ता में आना निकट भविष्य में सभव नहीं दिखता। राष्ट्रीय दलों का घटता प्रभाव क्षेत्र और उसी अनुपात में क्षेत्रीय दलों का उभार ऐसा मुद्दा है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सत्ता का विकेंद्रीकरण अच्छी अवधारणा है लेकिन गैर जिम्मेदार राजनीति मधु कोड़ा जैसे लोगों को अवसर प्रदान करती है।
ऐन चुनाव के वक्त प्रदेश के विभाजन का मुद्दा उछालने से मायावती को कितना राजनीतिक फायदा मिलेगा यह तो निश्चित रूप से कहना कठिन है। पर मायावती सत्ता में लौट आईं तो यही मुद्दा उनके लिए भस्मासुर बन सकता है। फौरी राजनीतिक लाभ के लिए उन्होंने तेलगाना में काग्रेस की दुर्गति से कोई सबक लेने की जरूरत नहीं समझी। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को भी सोचने का मौका है कि समस्या प्रदेश का आकार है या राज्य के नेताओं का घटता राजनीतिक कद।
लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं
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