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संविधान में आस्था का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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26 नवंबर, 1949 को भारतीय संविधान जब अंगीकार किया गया तो महत्वपूर्ण बुनियादी मसौदे उसी दिन से लागू हो गए। तभी से इस दिन को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता आ रहा है। 62 वर्षो के दौरान इस किताब के पन्नों से कई महत्वपूर्ण विवाद उठे और उस पर देश में व हमारी विधायिका के सदस्यों द्वारा तमाम चर्चाएं हुई। इस क्रम में एक-दो बार ऐसे भी मौके आए जब पूरे तंत्र को झंझोड़ने और इस पर नए सिरे से विचार की कोशिश की गई। फिर भी यह संविधानिक पुस्तक हमारी आस्था का प्रतीक बनी हुई है। तमाम राजनीतिक और आर्थिक संकटों को दूर करने के लिए संविधान की व्याख्या और पुर्नव्याख्या होती रही, लेकिन इस पर हमारी आस्था का कवच मजबूत है, क्योंकि इसे बनाने में 2 वर्ष, 11 महीने और 17 दिन लगाए गए हैं। दरअसल यह समयसीमा उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि तमाम देशभक्तों की नि:स्वार्थ सेवा का निचोड़ जिसमें उनकी तमाम भावी कल्पनाएं साकार होती हैं, लेकिन 62 वर्षो बाद इस आस्था की दीवारे दरकने लगी हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि किताब तो वही है, लेकिन लोग बदल गए हैं और उनके मंसूबे और विचार परिवर्तित हो गए हैं। शायद यही एकमात्र कारण है कि इस देश में कुछ लोगों में संविधान के प्रति अनास्था या अविश्वास की बातें कहीं जा रही हैं और अपने-अपने पक्ष में तर्क रखे जा रहे हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों ने इस देश में रहते हुए भी कहा कि संविधानिक व्यवस्था पुरानी और अप्रासंगिक होने से अनुपयोगी हो गई है।


नक्सली आंदोलन ने न केवल देश की सुरक्षा को चुनौती देना शुरू कर दिया है, बल्कि संवैधानिक ढांचों व संस्थाओं को न मानने की वकालत भी शुरू कर दी है। दुर्भाग्य यह है कि उनकी बातों में आकर लाखों लोग भारतीय संविधान के प्रति अविस्वासी हो गए हैं। जम्मू-कश्मीर के नागरिक भी इसी अनास्था की श्रेणी में अपने आप को खड़ा कर रहे हैं जिसके लिए उनकी स्वत:स्फूर्त प्रेरणा की बजाय अलगाववादी और स्वार्थी तत्वों का योगदान अधिक है। हमें इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? 62 वर्षो के दौरान दो बार संवैधानिक विवाद राष्ट्रीय संघर्ष के रूप में सामने आ चुका है। पहला चरण था संसद बनाम सर्वोच्च न्यायालय का जिसमें अंतिम और सर्वोच्च शक्ति को परिभाषित करने का मुद्दा शामिल है। गोलकनाथ मामले से लेकर मिनरवा मिल मामले की सुनवाई के दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले दिए गए। हर मसले पर विवाद का मुख्य मसला अंतिम सर्वोच्चता पर आकर ठहर जाता था। सर्वोच्च न्यायालय ने लोगों के बुनियादी अधिकारों की अक्षुण्णता को स्थापित करने की पैरवी की और उसका समर्थन किया। वहीं संसद नदी की धारा की तरह खुद को बदलने की कोशिश करता रहा। यह सबकुछ एक व्यक्ति की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण होता रहा। इंदिरा गांधी सत्ता को अपने हाथ का खिलौना बनाकर रखना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने संविधान के नियमों की मनमानी व्याख्या की और संसद की शक्तियों का भी दुरुपयोग किया। यहां तक कि जब संसदीय शासन व्यवस्था में उनकी किरकिरी होने लगी तो उन्होंने अध्यक्षीय शासन व्यवस्था को बहाल करने की कवायद शुरू कर दी।


दरअसल, इंदिरा गांधी अपने दुश्मनों को तोड़तीं उसके पहले ही दुश्मन खुद-ब-खुद विखंडित हो गए। इस क्रम में एक और नया विवाद 2011 में अन्ना के आंदोलन के रूप मे सामने आया। इस आंदोलन में संविधान और संसद की सर्वोच्चता को लेकर पुन: सवाल उठने शुरू हो गए। इस बार सर्वोच्चता का सवाल संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच नहीं, बल्कि जनता और संसद के बीच था। यह विवाद अभी भी जारी है। संविधान के मुताबिक-हम भारत के लोग की व्याख्या अलग-अलग खंडों में भिन्न-भिन्न शब्दों में की जाने लगी। इस क्रम में अन्ना टीम ने कहा कि भारत का नागरिक संसद से ऊपर है। दूसरी तरफ संसद के भीतर लालू प्रसाद जैसे नेताओं ने ताल ठोककर संसद की सर्वोच्चता की बात कही। क्या इस विवाद को समझने और परिभाषित करने का कोई ठोस आधार है? दरअसल, भारत में राजनीतिक विकास का चरण अत्यंत सीमित और संकुचित रहा है। भारत में राजनैतिक विकास की वह परंपरा नहीं रही जो यूरोप में है। यूरोप की प्रणालियां छह-सात सौ वर्षो के निरंतर संघर्ष से बनी हैं। वहां तमाम संघर्षो और गृह युद्वों के बाद प्रजातंत्र का विकास हुआ, जिसे भारत के संविधान में ज्यों का त्यों नकल किया गया।


प्रजातंत्र हम उधार ले सकते हैं, लेकिन उसके पीछे जो लंबा इतिहास है, वह हम कैसे उधार ले सकते हैं? यहां पर जब सर्वोच्चता का प्रश्न उठता है तो यह बात उठती है कि लोकतंत्र संविधान के द्वारा स्थपित होगा या जनता द्वारा। आज भारत के राजनीतिक पटल पर विवाद का मुख्य मसौदा यही है। जिन देशों में राजनीतिक विकास की लंबी परंपरा है वहां संविधान का मूल्य-महत्व कम है और जनता का ज्यादा है। अगर संविधान हो तो सबकुछ गड़बड़ जरूर होगा, लेकिन जनता प्रणाली का तुरंत निमार्ण कर लेगी। वहां जनता सर्वोच्च है संविधान नहीं, लेकिन भारत की स्थिति भिन्न है। उदाहरण के तौर पर 60 वर्षो में इस बात को सुनिश्चित तौर पर यह मान लेना कि जनता संविधान से ऊपर है खेदजनक होगा। अब जनता संविधान से ऊपर नहीं है, वह संविधान का अभिन्न अंग है। अभिन्न अंग होने के नाते संसद की सर्वोच्चता पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है लेकिन उसे खारिज नहीं किया जा सकता। यहां पर यह प्रश्न भी अहम है कि संविधान एक नकाब है, जो हमने स्वेच्छा से पहन रखा है, क्योंकि इसे बनाने वाले यह नहीं जानते थे कि इसे ओढ़ने वाले कभी भेडि़यों की शक्ल में जनता का शोषण और शिकार करेंगे। लेकिन पिछले तीन दशकों में यही हुआ है। इसलिए कई लोगों में इस किताब के प्रति आस्था कमजोर होने लगी है। आज देश की तादाद उससे कहीं ज्यादा है जितनी कि आजादी के समय देश की जनसंख्या थी। आज लोग पहले से कहीं ज्यादा संविधानिक व्यवस्थाओं के पेंच से आहत हैं। गरीबी और बुखमरी के दलदल में देश फंसा हुआ है।


सामाजिक विसंगतियों के बहुमुखी मकड़जाल में देश आज भी अटका हुआ है। देश के पूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने कहा था-गरीबी की पीड़ा से आहत जनसमूह को कभी भी अपने संविधान पर गर्व नहीं हो सकता। संविधान सभा में 25 नवंबर 1949 को डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था- अगर इस संविधान के जरिए आर्थिक और सामाजिक विसंगतियो को दूर करने की कोशिश नहीं की जाती तो इस संविधान पर से लोगों का विश्वास उठ जाएगा। और इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि कि भारत में संविधान के प्रति लोगों में बढ़ रही अनास्था का कारण भी आज यही है।


लेखक सतीश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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