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बिग बॉस के आगे बेबस सरकार

जागरण मेहमान कोना
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Abhishek Ranjan पिछले कुछ दिनों से रात साढ़े दस बजे के बाद यानी जब बिग बॉस कार्यक्रम शुरू होता है तो मेरे बगल के फ्लैट में खूब जोरों का ठहाका सुनाई देता है। हंसी और ठहाकों के बीच कभी-कभार दबी आवाज में इसके खिलाफ में भी स्वर सुनाई देते हैं। उस फ्लैट में रहने वाले वे सभी युवक दिल्ली के किसी कॉलेज में पढ़ते हैं। पिछले हफ्ते हद तब हो गई जब उन लोगों ने खूब शोर मचाया। अगले ही दिन सुबह चाय की दुकान पर अचानक उन लोगों से मेरी मुलाकात हो गई। मैंने उनसे रात के समय हल्ला मचाने की वजह पूछा तो उनमें से एक ने मुझसे कहा क्या बताएं बिग बॉस में पोर्न स्टार सन्नी लियोन की इंट्री होने से बिग बॉस में इंटरेस्ट पैदा हो गया है। हालांकि, उन युवकों का यह भी कहना था कि ऐसे कार्यक्रम देखना मजबूरी है, क्योंकि इसमें दिखाए जाने वाली ज्यादातर चीजें बड़े शहरों में एक चलन बन गई है जो उन्हें अच्छी लगने लगी हैं। उनकी की बातें सुनकर मेरे मन में कई ऐसे सवाल पैदा हुए जो मुझे परेशान करते हैं। पहली बात यह है कि टेलीविजन जगत और फिल्म उद्योग मनोरंजन के नाम पर पिछले कुछ वर्षो से कुछ खास वर्ग को केंद्रित कर जो प्रसारित किया जा रहा है, उसके समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है। दूसरी बात यह कि आर्थिक उदारीकरण के बाद सभी चीजों को एक प्रोडक्ट के रूप में देखा और बेचा जा रहा है।


आज से 20 साल पहले लोग कहते थे ऐसा जमाना आने वाला है कि अगर आप गाली बकने में उस्ताद हैं तो उसके खरीददार भी आसानी से मिल जाएंगे। अगर देखा जाए तो दो दशक पहले जिस बारे में कयास लगाए जा रहे थे वे बिग बॉस, रूडीज और इमोशनल अत्याचार जैसे कार्यक्रमों में अक्षरश: सत्य साबित हो रहे हैं। ठीक ऐसा ही असर हमारी हिंदी फिल्मों पर भी पड़ा है। निर्देशकों के स्कि्रप्ट में जन सरोकार की बातें अमूमन गायब हो चुकी हैं। फिल्म समीक्षकों के मुताबिक बॉलीवुड ने कई ऐसी बेहतरीन फिल्में दी हैं जिसकी अहमियत आज भी कम नहीं हुई है। पहले के निर्देशक फिल्मों की पटकथा किसी उपन्यास की मदद से लिखते थे। पूरी स्कि्रप्ट तैयार करने में उन्हें महीनों का वक्त लगता था, लेकिन आज के तथाकथित फिल्म निर्माता भला यह जहमत क्यों उठाएं? यही वजह है कि उनकी सतही सोच का असर हिंदी फिल्मों में साफ नजर आता है।


आमिर खान निर्देशित डेल्ही बेली में जिस तरह के अश्लील शब्दों का प्रयोग किया गया उसे किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता। दरअसल, नब्बे के दशक के बाद शुरू हुई नई आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार अपनी बुनियाद मजबूत करने की खातिर हर उस व्यवस्था की जड़ें हिला दी हैं जिसकी मजबूती हमारी सामाजिक और नैतिक मूल्यों के लिए बेहद जरूरी थीं। कलर्स टीवी पर दिखाए जाने वाले बिग बॉस सीजन 5 में भारतीय कनाडा मूल की पोर्न मूवीस्टार की अदाकारा सन्नी लियोन को शामिल करना रियलिटी शो की आड़ में खुल्लमखुल्ला फूहड़ता और नग्नता परोसकर उससे मोटी कमाई करना है। बिग बॉस जब शुरू हुआ था उसी दिन यह लगने लगा कि भारतीय टेलीविजन जगत के लिए यह किसी पतनकाल से कम नहीं है। बिग बॉस के पहले सीजन से लेकर मौजूदा 5वें सीजन तक को देखें तो उसमें बेशर्मी, बेहयाई और अश्लीलता लगातार बढ़ती गई है। अगर हालात यही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब बिग बॉस में नग्न दृश्यों के भी दर्शन हो जाएं और इस बात की भी आशंका है कि बिग बॉस के सीजन 6 में खुलेआम सेक्स होता भी दिखे।


सेंसर बोर्ड और टीवी मानक निर्धारित करने वाली समितियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसे हर घर में देखा जाता है। ऐसे में टीवी पर ऐसी अश्लीलता बहुत भयानक प्रभाव डाल सकता है। ऐसे कार्यक्रमों का टेलीविजन पर आना यह साबित करता है कि टीवी चैनलों के आगे सूचना प्रसारण मंत्रालय पूरी तरह से दंतविहीन महकमा बन चुका है। इतना ही नहीं सूचना प्रसारण मंत्रालय की इस खामोशी से यह संदेह भी पैदा होता है कि अन्य मंत्रालयों की तरह उसे भी कहीं कमाई का चस्का तो नहीं लग गया है। कार्यक्रम का प्रसारण भारत के युवाओं को पूरी तरह लिव-इन-रिलेशनशिप से वाकिफ कराना है। बिग बॉस महज एक कार्यक्रम नहीं है, बल्कि यह इस देश के करोड़ों लोगों के साथ एक बड़ी साजिश है जिसका नेतृत्व वैश्वीकरण के बाद पश्चिमी पूंजीपति ताकतें कर रही हैं। देश मे आर्थिक उदारीकरण के दौर में बेलगाम बाजार मीडिया का जिस तरह उपयोग करता है उसका ज्वलंत उदाहरण यह रियलिटी शो हैं जिनमे बच्चों तक का शोषण किया जाता है। अब सवाल यह है कि रियलिटी शो के नाम पर दिखाई जा रही नई किस्म की अश्लीलता को रोकने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय क्या पूरी तरह लाचार हो चुका है। पिछले दो-तीन वर्षो में मनोरंजक कार्यक्रमों के नाम पर टेलीविजन चैनल घर-घर में अश्लीलता फैलाने का काम कर रहे हैं। सवालिया निशान मंत्रालय के उन नियमों पर भी उठता है जिसमें चैनलों को इस तरह की सीरियल दिखाने की छूट दी जा रही है।


जिस तरह के अश्लील शब्दों का इस्तेमाल इन कार्यक्रमों में हो रहा है उसे किसी भी सूरत में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं कहा जा सकता। दरअसल इस तरह की मोटी कमाई करने वाले कार्यक्रमों को दिखाने के पीछे भी उसी टीआरपी का फंडा है जिसके पीछे न्यूज चैनलों से लेकर सभी इंटरटेनमेंट चैनल फिलहाल दौड़ लगाते दिख रहे है। आज यह एक अंधी दौड़ में तब्दील हो चुका है। पिछले कुछ सालों में फिल्म, धारावाहिक और न्यूज चैनलों से आम आदमी दूर होता जा रहा है। इसके लिए खुद यह चैनल जिम्मेदा हैं, क्योंकि इनमें दिखाए जाने वाले कार्यक्रम वास्तविकता के साथ-साथ व्यावहारिकता से भी परे होते हैं। अमीर लोगों पर केंद्रित चेहरे को देखकर एक बड़ी आबादी एक ऐसी निराशा से घिरती जा रही है, जहां उसके देखने के लायक कुछ भी नहीं। इतना ही नहीं किसी भी सीरियल को चर्चित करने और उसका टीआरपी ग्राफ बढ़ाने में खबरिया चैनलों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है। इसमें कोई शक नहीं कि लिव-इन- रिलेशनशिप की आधी-अधूरी तस्वीर को कलर्स चैनल बिग बॉस के जरिए युवाओं को वाकिफ करा रहा है ताकि आने वाले समय में इसे पूरी तरह अपनाने में युवाओं में किसी तरह का संकोच न रहे, लेकिन मुनाफा कमाने की बेहिसाब प्रवृत्ति ने चैनल मालिकों को अंधा बना दिया है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय भी पिछले कुछ सालों से मीडिया की आजादी के नाम पर रेवडिय़ों की तरह धड़ल्ले से प्रसारण का अधिकार दे रही है। जबकि प्रसारण नियमों में इस बात का साफ उल्लेख है कि ऐसे कोई कार्यक्रम न दिखाए जाएं जिसमें अश्लीलता और फूहड़ शब्दों का इस्तेमाल हो रहा हो।


आखिर मंत्रालय की ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसका फायदा न्यूज चैनलों से लेकर मनोरंजन चैनल तक उठा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसे रियलिटी शो दिखाने वाले टीवी चैनलों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाती? ऐसे कार्यक्रमों को वयस्कों की श्रेणी में रखने और इनका प्रसारण रात साढ़े दस बजे के बाद करने का आदेश देने मात्र से ही कुछ नहीं होने वाला। यह आदेश ठीक वैसा ही है जैसे किसी शराबी को यह कहा जाए कि तुम शराब रात में पियो दिन में नहीं। अब वक्त आ गया है कि सरकार बिना किसी दबाव के बिग बॉस सरीखे नग्नता फैलाने वाले कार्यक्रम निर्माताओं पर कानूनी कार्रवाई करे ताकि आने वाले समय में इससे भी खराब कार्यक्रमों के निर्माण को रोका जा सके और नसीहत के रूप में मिसाल दी जा सके।


लेखक अभिषेक रंजन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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