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पिछले दिनों जब सोनिया गांधी अपने इलाज के लिए अमेरिका गई थीं, तब उन्होंने पार्टी चलाने की जिम्मेदारी कांग्रेस के चार नेताओं की एक कमेटी को सौंपी थी। इस कमेटी के संयोजक की हैसियत में थे एके एंटनी। एंटनी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी हैं और सोनिया गांधी के गुड बुक में भी। लेकिन यही एंटनी साहब जब रिटेल क्षेत्र में 51 फीसदी विदेशी निवेश को मंजूरी दिए जाने वाली कैबिनेट बैठक में इस प्रस्ताव का विरोध करते हैं तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें खारिज कर देते हैं। यह उदाहरण बताता है कि सरकार चला रहे मुखिया का जोर इस प्रस्ताव को पास कराने पर था। लिहाजा, किसी की भी नहीं सुनी गई, क्योंकि कांग्रेस के अंदर महज एके एंटनी ही नहीं हैं, जो इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे थे। कैबिनेट की बैठक में केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली और मुकुल वासनिक ने भी इसका विरोध किया था। इसके अलावा विपक्ष के अधिकांश राजनीतिक दल इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। इन विरोधों को नजरअंदाज करते हुए केंद्रीय कैबिनेट ने मल्टी ब्रांड रिटेल कारोबार में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी। इसके अलावा कैबिनेट ने सिंगल ब्रांड स्टोर में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भी मंजूरी दी है।
मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआइ का मोटा-मोटी मतलब यह हुआ कि अब वॉलमार्ट, कारफोर, टिस्को जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों के स्टोर हमारे देश में भी नजर आएंगे। हालांकि इसके लिए समूह के लिए न्यूनतम निवेश की सीमा 10 करोड़ डॉलर के निवेश की रखी गई है। इसमें से आधा निवेश आधारभूत सुविधाओं के निर्माण पर करने का प्रावधान भी शामिल है। वहीं सिंगल ब्रांड में 100 फीसदी से भी अलग-अलग ब्रांडों के अलग-अलग आउटलेट भारत में नजर आएंगे। कैबिनेट के प्रस्ताव मुताबिक आने वाले 2-3 सालों में देश के अंदर एक करोड़ नई नौकरियां आ जाएंगी। सरकार यह भी कह रही है कि देश के अंदर लाखों डॉलर का विदेशी निवेश होगा। किसानों की आमदनी बढ़ेगी। आम लोगों को सस्ता सामान मिलेगा और महंगाई पर अंकुश लगेगा। लेकिन एक अहम सवाल यह है कि जब सरकार को इतनी समस्याओं का हल जादू की छड़ी के तौर पर रिटेल में एफडीआइ को मंजूरी दिया जाना ही था तो इसका संसद के अंदर और बाहर, सरकार में शामिल और विपक्ष के लोग इतना विरोध क्यों कर रहे हैं। इसकी दो वजहें हो सकती हैं। पहली, हम भारतीय हमेशा की तरह भावुक हो रहे हैं। नई चीजों के आने का मोह तो है, लेकिन हम पुरानी चीजों को छोड़ना नहीं चाहते। तो इस भावनात्मक उफान के चलते नारेबाजी और विरोध शुरू हो गया है। दूसरी वजह यह है कि क्या ये बदलाव एकतरफा होंगे। इसके लिए हमें क्या कीमत चुकानी होगी। यह एक वास्तविक संकट की ओर इशारा कर रहा है। सरकार ने यह कदम उठाने से पहले जो अध्ययन किया है, उसमें इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया गया है।
सरकार की ओर से यह जरूर कहा जा रहा है कि उन्होंने दुनिया के अन्य देशों की तरह रिटेल में मल्टी ब्रांड स्टोरों के लिए सौ फीसदी निवेश को मंजूरी नहीं दी है, जिसके चलते एक हद तक उन मल्टी स्टोरों पर अंकुश लगा रहेगा। सरकार ने यह भी कहा है कि इन स्टोरों को खुलने की इजाजत महज उन शहरों के लिए है, जहां की आबादी 10 लाख से ज्यादा है। इसलिए रिटेल कारोबारियों के लिए कोई बहुत बड़ा संकट नहीं आने वाला है। इन बड़े स्टोरों को 30 फीसदी सामान स्थानीय छोटे उत्पादकों से खरीदने होंगे। सरकार के इन दावों के बीच सबसे बड़ा सवाल यह उभरता है कि क्या हमारे रिटेल कारोबार को विदेशी निवेश की जरूरत थी? अमूमन विदेशी निवेश उन क्षेत्रों के लिए खोला जाता है, जहां विकास की रफ्तार मंद हो गई हो या उसमें लगातार गिरावट देखी जा रही हो। हालात को सुधारने के लिए विदेशी पूंजी की जरूरत हो रही हो, लेकिन भारतीय रिटेल के लिए ऐसी कोई चिंता नहीं थी।
भारत में मौजूदा रिटेल कारोबार 23 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का है। इस क्षेत्र में पिछले कुछ सालों से लगातार 10 से 15 फीसदी की ग्रोथ देखी जा रही है। भारत की कुल जीडीपी में भी इसकी हिस्सेदारी 10 से 13 फीसदी के बीच रही है। यह सही है कि भारत में रिटेल बाजार का क्षेत्र असंगठित कारोबार के तौर विकसित है, जिससे सरकारी राजस्व को हर साल करोड़ों रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है, लेकिन हमें यह देखना होगा कि इस क्षेत्र में करोड़ों लोगों की आजीविका भी जुड़ी हुई है। उनका क्या होगा? वॉलमार्ट, कारफोर जैसी अरबों डॉलर का कोराबर करने वाली कंपनियां एक बड़े बैकअप प्लान के साथ भारत में आएंगी। वह इसलिए आएंगी, क्योंकि भारत 130 करोड़ लोगों का दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है। जब उनके पास बैकअप के लिए पैसा ज्यादा होगा तो वे बड़े पैमाने में खरीददारी करेंगे और उसे सस्ती कीमतों पर बेचेंगे। वॉलमार्ट सरीखी कंपनियां दुनिया भर में यही कर रही हैं और अमेरिका में उसके खिलाफ कई बार आंदोलन हो चुका है। ऐसे में कुछ सालों के अंदर ही बाजार पर उनका एकाधिकार हो जाता है और उसके बाद वे ग्राहकों से मनमानी कीमत वसूलते हैं। जब वे एग्रेसिव मार्केटिंग के जरिए सस्ती कीमतों पर सामान बेचने लगेंगे तो छोटे मोटे रिटेल कारोबारी उनके सामने टिक नहीं पाएंगे। वैसे एक पहलू ऐसा है, जो बताता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इतनी जल्दी मल्टी ब्रांड स्टोरों के चुंगल में नहीं फंसेगी। पिछले पांच सालों में रिलायंस, भारती जैसे समूहों ने भी बड़े स्टोर खोले हैं, लेकिन इससे रिटेल कारोबार पर बहुत ज्यादा असर पड़ा हो, यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन स्टोरों से आसपास की दुकानों पर असर नहीं पड़ा हो।
मुंबई का एक अध्ययन बताता है कि बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स खुलने की वजह से आसपास की दुकानें बंद हो गई। देश के दूसरे शहरों में इस तरह का अध्ययन अभी नहीं हुआ है, लेकिन मुंबई के उदाहरण से डर जरूर पैदा होता है। दुकानदारों के अलावा अभी करोड़ों लोग रिटेल कारोबार में मिडिल मैन का काम करते हैं। बिचौलिए के तौर पर काम करने वाले लोग नकारात्मक मतलब वाली दलाली नहीं करते, बल्कि मेहनत करके आजीविका चलाते हैं। ऐसे लोगों का रोजगार छिन जाएगा, क्योंकि बड़े स्टोर सीधे किसानों से ही खरीददारी करेंगे। मतलब छह सात बिचौलिए की जगह एक बड़ा बिचौलिया आ जाएगा, जो कहीं ज्यादा मुनाफा लेगा। सरकार यह भी दावा कर रही है कि रिटेल में एफडीआइ से किसानों को काफी फायदा होगा और खाद्य सुरक्षा का भरोसा भी मजबूत होगा। मौजूदा प्रस्ताव में इसका ध्यान रखा गया है कि बड़े स्टोर भारतीय किसानों से सीधे अनाज और फल-सब्जी खरीद सकें। इससे उन्हें अपनी उपज की बेहतर कीमत मिलेगी। अभी बिचौलियों के चलते किसानों को अपनी उपज का 10 से 15 फीसदी कम मूल्य मिलता है, लेकिन क्या भरोसे से कहा जा सकता है कि किसानों को हमेशा फायदा होगा? मान लीजिए वॉलमार्ट पंजाब के किसानों से कहती है कि हम आपसे टमाटर खरीदेंगे और आपको 30 फीसदी ज्यादा कीमत देंगे। हो सकता है कि दो साल बाद वह कहे कि आप जो देसी टमाटर हमें दे रहे हैं, उसे उपजाने की जरूरत नहीं। एक बड़ा दावा यह भी किया जा रहा है कि इससे उपभोक्ताओं को काफी फायदा होगा। उनके पास एक उत्पाद के मनचाहे विकल्प मौजूद होंगे। उन्हें ज्यादातर सामान सस्ता मिलेगा।
सस्ते सामान के चक्कर में ऐसे मल्टी स्टोर चीनी सामानों को प्राथमिकता देंगे। इससे भारत का घरेलू और हस्तशिल्प उद्योग पूरी तरह से खत्म हो सकता है। हालांकि 30 फीसदी सामान देश के स्थानीय छोटे उत्पादकों से खरीदना होगा, लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियां साम-दंड-भेद का सहारा लेकर ऐसे प्रावधानों को दरकिनार कर सकती हैं। जहां तक उपभोक्ताओं को सस्ते उत्पाद मिलने की बात है, वे सस्ता सामान कब तक खरीद पाएंगे। इसे लेकर आशंकाएं कम नहीं हैं। उपभोक्ताओं का ख्याल रखने के लिए इस देश में इतने लचर प्रावधान हैं कि आम लोगों के लिए मुश्किलें बढ़ेंगी ही, कम नहीं होंगी। साफ है कि रिटेल के कारोबार में एफडीआइ के फैसले से एक तस्वीर को जितना चमकदार बताने की कोशिश हो रही है, दूसरी तस्वीर उतनी ही बदरंग दिख रही है।
लेखक प्रदीप कुमार टीवी पत्रकार हैं
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