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भारत सरकार द्वारा खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की अनुमति देने के साथ ही इस मुद्दे पर विरोध की राजनीति शुरू हो चुकी है। विरोध का मूल कारण सरकार द्वारा लिया गया जल्दबाजी में फैसला ही है। यही कारण है कि विपक्षी दलों के साथ-साथ सरकार में शामिल कुछ सहयोगी पार्टियां भी इसके विरोध में उतर आई हैं। फिर एफडीआइ को लेकर सरकार के दावों ने आग में घी का काम किया। सरकार ने रिटेल में एफडीआइ की मंजूरी को आर्थिक सुधार के रूप में न लेकर रोजगार बढ़ाने, किसानों को उपज की लाभकारी कीमत और उपभोक्ताओं को महंगाई से राहत दिलाने की जादुई छड़ी के रूप में लिया जिससे इसके कई सकारात्मक पहलू भी विरोध की आग में झुलस गए। कायदे से देखा जाए तो इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार-विमर्श होना चाहिए था और सभी पक्षों की राय लेकर कोई संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए था। लेकिन सरकार ने औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डीआइपीपी) की वेबसाइट पर अंग्रेजी में परिचर्चा पत्र जारी कर अपने कर्तव्यों की खानापूर्ति कर ली। इसी तरह वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) मसले पर भी केंद्र व राज्यों के बीच तालमेल के अभाव में निर्णय नहीं हो पाया क्योंकि टैक्स सुधार के इस अहम मुद्दे पर राज्यों को लगा कि केंद्र उनकी वित्तीय स्वायत्तता में हस्तक्षेप कर रहा है।
भले ही संगठित रिटेल से मंहगाई रोकने और रोजगार पैदा करने का तर्क गले न उतरता हो लेकिन क्या वर्तमान बिचौलिया प्रधान और कमजोर आपूर्ति श्रृंखला वाले विपणन ढांचे को मान्यता दी जा सकती है। देश में खेत से लेकर भोजन की मेज तक पहुंचने में खाद्य पदाथरें को 5-6 चरणों से होकर गुजरना पड़ता है जो कि संगठित रिटेल वाले देशों में 2-3 ही है। जहां तक आपूर्ति व्यवस्था का सवाल है 2010 तक देश में 5,386 कोल्ड स्टोरेज थे और उनकी भंडारण क्षमता 2.36 करोड़ टन की थी। यह कोल्ड चेन भी पूरी तरह बंटी हुई है और इसके 80 प्रतिशत का इस्तेमाल सिर्फ आलू के भंडारण में होता है। इसी का परिणाम है कि हर साल 10 खरब रुपये से ज्यादा की फल और सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। अनुमान के मुताबिक 35-40 फीसदी फलों एवं सब्जियों तथा 10 फीसदी अनाज की बर्बादी रखरखाव की व्यवस्था न होने की वजह से होती हैं और इसकी सर्वाधिक मार किसानों पर ही पड़ती है। खुदरा क्षेत्र का कमजोर बुनियादी ढांचा रिटेल कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगा। खराब सड़कों से गुजरते हुए इन शहरों में सामान पहुंचाना काफी कठिन काम होता है। जब तक दिग्गज रिटेलर आपूर्ति श्रृंखला, प्रबंधन, भंडारण आदि में भारी पूंजी निवेश और किसानों से सीधे खरीद नहीं करेंगे तब तक उनका यहां टिकना संभव नहीं होगा। यदि वे भारी निवेश करेंगे तो उसका लाभ निश्चित रूप से पूरी अर्थव्यवस्था को मिलेगा।
2006 में जब देश के कई कार्पोरेट घराने रिटेल क्षेत्र में कूदे थे तो उन पर कोई शर्त नहीं थोपी गई थी। उस समय कहा गया था कि किराना दुकानदारों की रोजी-रोटी छिन जाएगी, लेकिन आज स्थिति उलटी है। पिछले तीन वषरें में बड़ी कंपनियों के 3000 से अधिक स्टोर बंद हो चुके हैं जिनमें 1600 स्टोर अकेले सुभिक्षा के हैं। एक ऐसे दौर में जब विकास रणनीति के केंद्र में ऊंची आर्थिक विकास दर रहने के कारण कृषि एवं ग्रामीण आधारभूत ढांचे में निवेश कम हुआ हो उस समय खुदरा ढांचे में विदेशी निवेश स्वागतयोग्य है। फिर कृषि विपणन तंत्र का मौजूदा ढांचा बाबा आदम के जमाने का है। भारत में औसतन 435 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के दायरे में महज एक कृषि बाजार है। यही कारण है कि किसानों को नजदीकी बाजारों में अपनी उपज को औने-पौने दामों पर बेचने के लिए बाध्य होना पड़ता है। ऐसे में खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आने से किसानों को न केवल उपज बेचने में सहूलियत होगी, बल्कि आपूर्ति श्रृंखला में सुधार से बर्बादी भी रुकेगी।
लेखक रमेश कुमार दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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