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आत्मनिर्भर सहभागिता की खोज

जागरण मेहमान कोना
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R Vikram singhग्रामीण भारत के विकास के लिए सही अर्थो वाले सहभागिता आंदोलन की जरूरत महसूस कर रहे हैं आर. विक्रम सिंह


भारतीय परिवेश में सहभागिता की बातें कहीं मात्र दिवास्वप्न या ख्यालीपुलाव ही तो नहीं रह गई हैं। सहभागिता की कोशिशें, संस्थागत व सरकारी प्रयास भी जमीन पर उतरते नहीं दिखाई देते। सहकारिता या को-आपरेटिव आंदोलन का अपने देश में जो हश्र हुआ है वह किसी से छिपा भी नही है। सहकारी संस्थाओं के राजनीतिकरण के शिकार हो जाने के बाद बैंकों, औद्योगिक क्षेत्र में कुछ जेबी किस्म की संस्थाओं पर सहकारिताओं के प्रयोग हुए, जिसका कहीं से कोई लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच पाया है। वैसे भी सहभागिता और सहकारिता अलग-अलग शब्द हंै। सहकारिता या को-आपरेटिव शब्द अपने यहां बदनाम कर दिया गया है और सहभागिता अभी जमीन पर नही उतरी है। ग्राम एक स्वनिर्भर इकाई था व आत्मनिर्भर सहभागिता हमारा आदर्श रहा है। प्रश्न है कि अगर हमारा इतिहास और हमारा लोकतंत्र भी सहभागिता को लेकर चलता है तो फिर आज समस्याएं क्यों हैं? क्यों ऐसा है कि आज सहकारिता और सहभागिता को अपनाकर चलने वाले संगठन नहीं हैं। यदि ऐसा हो सकता तो हमारे गवर्नेस पर जो इतना बड़ा भार है वह स्वत: काफी कम हो जाता। ग्रामीण भारत का संतुलन परस्पर जातीयनिर्भरता पर आधारित था जो ग्रामों के आत्मनिर्भर होने का आभास देता था। जातियों के भिन्न-भिन्न कर्म थे एवं जाति आधारित व्यवस्था में प्रत्येक जाति की आवश्यकता प्रत्येक दूसरे को थी। गांधी की ग्राम्य परिकल्पनाओं में हमें यही भारत दिखता है, लेकिन परिकल्पनाओं में बसे गांवों के सौंदर्य के अवलोकन में यह नहीं देखा गया कि वक्त के साथ किस प्रकार यह व्यवस्था ऐसी जातीय जकड़न का शिकार हो गई जिससे निकल पाना असंभव हो गया था। कारण यह कि यह ग्राम्य व्यवस्था आर्थिक आधारों को छोड़कर सामंतवादी शोषण का शिकार हो गई।


नगरीकरण, आजादी और लोकतंत्र का सर्वाधिक लाभ इसी सामंतवर्ग को मिला है। दुर्भाग्य से ग्रामीण भारत का यही अकर्मण्य, शोषक वर्ग आजादी के बाद लोकतंत्र का अगुवा भी बना। भारतीय राजनीति पर जब स्वप्नजीवी किस्म के लोगों का वर्चस्व हो गया तो कहीं कोई भी ग्रामीण भारत, उसकी सहभागिता, परस्पर निर्भरता आधारित अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता नहीं दिखा। शहर एक आकर्षण बना और उसने गांव के बाजार और पूंजी का नाश करना प्रारंभ कर दिया।


गांवों में अशिक्षा दूर करनी थी, कृषि को बेहतर बनाकर, ग्राम्य उद्योगों को तकनीक सक्षम बनाकर उनके उत्पादों की गुणवत्ता सुधारते हुए बगैर दलालों के नगरों के बाजार तक ले जाना था। ग्राम्य कुटीर उद्योगों के सामानों का फैशन चल सकता था शहरों में। उद्योगों की शिक्षा, प्रशिक्षण के लिए विद्यालय आदि स्थापित किए जाते। अगर प्रयास किया गया होता तो हो सकता था कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों के बने हाथ के सामानों, हैंडलूम के कपड़ों का विदेशों तक में क्रेज हो गया होता वैसे ही जैसे कालीनों, चमड़े के सामानों और पीतल के बर्तनों की तरह बहुत से कुटीर उद्योगों का हो गया है, लेकिन सामंतवाद की गुलाम बनी भारतीय राजनीति में ग्रामीण सहभागिता व सशक्तीकरण की परवाह ही कहां थी। हमारी राजनीति इतने से ही चुप नहीं बैठी। उपभोक्ता उत्पादों की मशीनीकृत फैक्टि्रयां लगाई गईं। शहरी पूंजी के हित साधन के लिए ग्रामों को बाजार एवं सस्ते श्रम के माध्यम में बदल देने का कार्य किया गया। सहकारिता के संस्थान घोटाले और गबन की भेंट चढ़ गए। वेलफेयर स्टेट के अर्थशास्ति्रयों ने प्रारंभ से लेकर अब तक ग्राम्य भारत की क्षमताओं की अभिवृद्धि करने के प्रश्न को दरकिनार कर उसे सब्सिडी पर जिंदा रहने वाली कौम में बदल डालने की पूरी कोशिश की है। हमारे दिलोदिमाग में बिठाया गया कि हम गरीब हैं, हम ग्रामीण भारत हंै। अगर कृषि, ग्राम्य उत्पादों की सही कीमत किसान, कर्मकार को मिलने लगे तो गांव से पूंजी का पलायन रुक जाएगा। हमें जरूरत ही नहीं होगी कि सरकारें हमारी बेटियों की शादियां करवाएं।


क्या ग्रामीण भारत की सोच वाले अर्थशास्ति्रयों ने गांवों के संसाधनों के विकास के बारे में सोचा है? आज की राजनीति एफडीआइ वालमार्ट से परेशान हो गई मालूम पड़ती है। क्यों? हमें भारतीय वालमार्ट चाहिए, ग्रामीण भारत के प्रतिनिधियों, किसानों, ग्रामीण उद्योगों द्वारा संचालित। हर शहर हर कस्बे में ग्राम मार्ट खुलें, जहां गांव की उपज सीधे ग्राहकों को बेची जा सके। हर नगर में 50 से 100 एकड़ जमीन का परिसर हमें चाहिए, जिससे बिचैलियों के शोषण से मुक्ति मिले। आप देखेंगे कि विदेशी वालमार्ट का विरोध करने वाले देशी ग्राममार्ट का और तेज विरोध करेंगे। ग्राम्य सहभागिता का नया दर्शन अपनाते हुए अपने उत्पादों को सीधे ग्राहकों, उपभोक्ताओं तक पहुंचा कर ग्रामीण समृद्धि की दिशा में कदम बढ़ाने का वक्त आ गया है। हां, सहभागिता के लिए जातीय दुर्भावनाओं को तिलांजलि देनी ही होगी।


मंडियों को ग्राम्य उत्पादकों की सहभागिता आधारित संस्थाओं द्वारा अपने कब्जे में लिया जाना एक महत्वपूर्ण लक्ष्य नियत किया जा सकता है। यह ग्रामीण भारत की आत्मनिर्भरता की सोच रखने वाले कृषक समाज, ग्राम्य उद्योग प्रतिनिधियों और ग्राम्य अर्थशास्ति्रयों के लिए एक बड़ी चुनौती है। बड़े पैमाने पर प्रत्येक कस्बे-नगर में ग्राममार्टो की स्थापना एवं उनकी आपूर्ति चेन बनाए जाने व संपूर्ण संगठन खड़ा करने का दायित्व ग्रामीण भारत में आस्था रखने वाले सच्चे प्रतिनिधियों का है। गुजरात का डेरी आंदोलन हमारे सामने सहभागिता के हिंदुस्तानी उदाहरण के रूप में है। देखना है कि सहभागिता के प्रयोग के लिए अचानक उपस्थित हो गए इस स्वर्णिम अवसर का उपयोग हमारा ग्राम्य भारत किस प्रकार करता है।


लेखक आर. विक्रम सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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