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अगर कांग्रेस समाजवादी पार्टी, राजद और शिवसेना के पदचिह्नों पर चलते हुए घोषणा करती कि वह सर्व-शक्तिशाली लोकपाल बिल के खिलाफ है तो इससे बहुत से भारतीयों के मन में उसके लिए जगह बनती। अगर कांग्रेस कहती कि वह दिलोदिमाग से अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तुत कथित दानवी लोकपाल और अन्ना के प्रशंसकों के पक्ष में नहीं है तो गनीमत होती। यह भी साफ है कि कांग्रेस ऐसा कोई भी कारगर कदम नहीं उठाना चाहती, जिनसे उसकी शक्तियों पर सशक्त लोकपाल का अंकुश लग जाए। लंबे समय तक सत्तारूढ़ रहने के कारण कांग्रेस मानने लगी है कि वह स्वाभाविक रूप से शासन करने के लिए ही बनी है। वह अपनी अधिसत्ता में कटौती और जवाबदेही के सिद्धांत के खिलाफ है। अन्ना हजारे और उनके जनलोकपाल प्रस्ताव के संदर्भ में बहानेबाजी और टालमटोल कांग्रेस का मंत्र है। अन्ना को भयाक्रांत करने की कोशिश करने से लेकर उनके अभियान के खिलाफ ओछे हथकंडे अपनाकर कांग्रेस ने आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश की है। अपने इस प्रयास में वह आंशिक रूप से सफल भी रही है। मिथ्यारोप लगाकर और पैर खींचकर कांग्रेस ने लोकपाल के मुद्दे को बोरियत में बदल दिया है। लोकपाल प्रस्ताव के खिलाफ कांग्रेस के हथकंडों का राजनीतिक निहितार्थ है। लोग इसे पसंद करें या न करें, किंतु शायद ही कोई इससे इंकार करे कि यह सामान्य राजनीतिक खेल का एक हिस्सा है और यही कारण है कि राजनीति को नैतिक रूप से संदिग्ध माना जाता है।
पिछले दिनों तो कांग्रेस ने हद ही कर दी है। संसद में पेश लोकपाल की खामियों की तरफ से ध्यान बंटाने के लिए कांग्रेस ने तमाम विवादों की जड़-लोकपाल में आरक्षण का पासा फेंक दिया। इतिहास के जानकारों को पता है कि 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला इसलिए किया ताकि वह देवीलाल की किसान रैली की हवा निकाल सके। इतने हल्के-फुल्के कारण से दूरगामी परिणाम वाला फैसला ले लिया गया। इस बार भी उत्तर प्रदेश में तीसरे स्थान पर आने को छटपटा रही कांग्रेस ने अपने पूर्वजों के पदचिह्नों पर चलते हुए बंटवारे के विध्वंस की तर्ज पर पंथिक कार्ड खेला है। टोप से कोटे का खरगोश निकलने का वही नतीजा हुआ जिसकी कांग्रेस उम्मीद कर रही थी। बहस भ्रष्टाचार और इससे लड़ने के उपायों के बजाय अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के मुद्दे पर सिमट गई। अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के खिलाफ भाजपा का गुस्सा फट पड़ा और लालू प्रसाद यादव व मुलायम सिंह यादव सांप्रदायिक इनाम पाकर लोकपाल का विरोध भूल बैठे। आरक्षित नौकरियों और प्रवेश परीक्षाओं में 27 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे से 4.5 फीसदी हिस्सा अल्पसंख्यकों को देकर हताश और सनकी राजनीतिक तबके ने 1950 के संविधान की धज्जियां उड़ा दीं। इसमें शक नहीं कि मंत्रिमंडल के फैसले को अदालत में चुनौती दी जाएगी और इसका प्रभाव लोकपाल बिल के अंतिम प्रारूप पर पड़ेगा।
मंडल आयोग को लागू करने में भी कई साल लग गए थे और मुस्लिम कोटा (हमें साफ कर लेना चाहिए कि अल्पसंख्यकों के कोटे से मतलब मुस्लिम कोटे से ही है) अब लंबी अदालती कार्यवाही के मकड़जाल में फंस जाएगा और इसके लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता भी पड़ेगी। इस प्रस्ताव को अभी लंबा रास्ता तय करना है, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि सांसदों का स्पष्ट बहुमत अल्पसंख्यक आरक्षण के पक्ष में है। अदालत अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के प्रस्ताव का सार्वजनिक रूप से विरोध करने में हिचकिचा सकती है। संक्षेप में, धर्म आधारित कोटे पर विचारधारात्मक और राजनीतिक जंग शुरू होने से पहले ही इसमें हार हो गई है। इसके कारण स्पष्ट हैं। पिछले एक दशक से प्राकृतिक न्याय के आधार पर कम से कम मुस्लिम समुदाय के राजनेताओं ने मुस्लिम आरक्षण का अभियान छेड़ रखा है। इस प्रस्ताव के गुण-दोष पर ध्यान न दें तो यह साफ नजर आता है कि जो इसका समर्थन कर रहे हैं वे बेहतर रूप से संगठित हैं और चुनाव में संख्याबल बढ़ाने की स्थिति में हैं।
संख्या बल से असंगत मुस्लिम समुदाय सुनियोजित मतदान में अपना सिक्का चलाने में कामयाब हो जाता है। दूसरी तरफ ऐसा कुछ नहीं है जो हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर सके। अयोध्या दौर के अपवाद को छोड़कर हिंदू समाज हिंदू के रूप में एकजुट होकर वोट नहीं डालता। वे हिंदू पहचान के अलावा वर्ग, जाति और अन्य मुद्दों पर मतदान करते हैं। इससे सहज अभिप्राय है कि राजनेता अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति की प्रतिक्रिया की चिंता नहीं करते। मुस्लिम वोट कहीं अधिक उद्देश्यपूर्ण हैं। जब तक राष्ट्रवादी भारत नींद से नहीं जागता तब तक देश संभाव्य निर्णायक एजेंडे का सामना नहीं कर सकता। अगर पंथिक कोटे पर न्यायिक और राजनीतिक मुहर लग जाती है तो यह बस समय का फेर होगा कि न्यायपालिका, यूपीएससी, कैग और यहां तक कि विश्वविद्यालयों में भी मुस्लिमों के आरक्षण की मांग उठेगी। भारत का विभाजन अभी दूर की बात है, किंतु यह अनुमान लगाना सुरक्षित होगा कि भावनात्मक विभाजन की प्रक्रिया अंतिम चरण में है। अभी भी भारतीय पहचान अपना वजूद बनाए हुए है, किंतु कब तक! एक न एक दिन विशिष्ट पहचानें इस पर भारी पड़ने लगेंगी। मैं उम्मीद कर सकता हूं कि मैं गलत हूं, किंतु भारत के लिए लोकपाल बिल एक महंगा जोखिम साबित हो सकता है।
लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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