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आखिरकार सरकार ने देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न खिलाडि़यों को देने का रास्ता साफ कर दिया है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस सम्मान को पाने वाला पहला व्यक्ति कौन होना चाहिए? हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद या फिर मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर? सचिन महान हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। पर इस मामले में यदि स्वयं सचिन ही सामने आकर कहें कि मुझसे पहले मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए तो इससे उनके व्यक्तित्व में और निखार आ जाएगा। उनकी महानता सर्वग्राही हो जाएगी। मेरा विश्वास है कि सचिन ऐसा ही करेंगे। क्योंकि आज नहीं तो कल सचिन को यह अवार्ड मिलना ही है। जब इतने वर्ष का विलंब हुआ तो एक वर्ष और सही। मेजर ध्यानचंद को मरणोपरांत यह पुरस्कार मिलता है तो खेल जगत में उनके नाम के साथ-साथ सचिन का नाम भी उतने ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाएगा, इसमें कोई शक नहीं। सचिन तो भारत रत्न हैं ही, इसे सभी मानते हैं। देश को उन पर गर्व है। जो महान होते हैं, लोग उनसे महानता की ही अपेक्षा करते हैं। ऐसी बात नहीं है कि इस तरह की महानता का परिचय देने वाले सचिन अकेले होंगे। भारत के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद को जब भारत रत्न देने की बात आई तो उन्होंने जोर देकर मना कर दिया, क्योंकि उस समय वे इसकी चयन समिति में थे। उन्होंने इसका विरोध किया। उस समय तो उन्हें यह सम्मान नहीं दिया गया। बाद में 1992 में उन्हें मरणोपरांत इस पुरस्कार से नवाजा गया।
वर्ष 1992 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को इस पुरस्कार से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था, लेकिन उनकी मृत्यु विवादित होने के कारण पुरस्कार के मरणोपरांत स्वरूप को लेकर प्रश्न उठाया गया था। इसीलिए भारत सरकार ने यह पुरस्कार वापस ले लिया। यह पुरस्कार वापस लिए जाने का यह एकमेव उदाहरण है। इसी तरह मेजर ध्यानचंद का नाम हॉकी की दुनिया में इसलिए विख्यात है, क्योंकि हॉकी को लेकर ऐसी कई किवदंतियां हैं, जो उन पर हैं। हॉकी का जादूगर उन्हें ऐसे ही नहीं कहा गया है। उनके पिता सेना में थे। ध्यानचंद के नाम में चंद शब्द चांद से जोड़ा गया है। हुआ यों कि हॉकी को लेकर उन पर एक जुनून सवार रहता था। वे चांदनी रात में भी हॉकी की प्रैक्टिस किया करते थे। यही चांद शब्द धीरे-धीरे चंद के रूप में सामने आया। 1928 के ओलंपिक फाइनल में भारत हॉलैंड को 3-0 से हराकर चैंपियन बना, जिसमें 2 गोल ध्यानचंद ने दागे थे। 1932 के लॉस एंजिल्स में भारत ने अमेरिका को 24-1 से रौंदा था। इस ओलंपिक में भारत के कुल 35 गोलों में से 19 गोलों पर ध्यानचंद का नाम अंकित था तो 1936 बर्लिन ओलंपिक में भारत के कुल 38 गोलों में से 11 गोल दादा ध्यानचंद ने दागे थे।
मेजर ध्यानचंद को मरणोपरांत यह सम्मान मिलता है तो निस्संदेह यह भारतीय खेल इतिहास, हॉकी इतिहास और राष्ट्रीय खेल का सम्मान होगा। सचिन तो अभी खेल रहे हैं और आने वाले कई वर्षो तक वे अपना जलवा दिखाते रहेंगे। सरकार के पास सचिन को सम्मानित करने के और भी अवसर रहेंगे, लेकिन भारतीय खेल इतिहास हमेशा अपने आप पर गौरव करता रहेगा कि खेलों में पहला भारत रत्न हॉकी के उस महान खिलाड़ी को दिया गया, जिसने पूरी दुनिया में तिरंगे का मान बढ़ाया। इस पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए, कोई विवाद नहीं होना चाहिए और किसी तरह की कोई दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। पुरस्कार ठुकराने वालों में कई प्रख्यात नाम भी हैं। देश के एक और प्रतिष्ठित सम्मान पद्मश्री और पद्म भूषण को ठुकराने वालों में रोमिला थापर, दत्तोपंत ठेंगड़ी, उस्ताद विलायत खां, निखिल चक्रवर्ती, रतनथियाम, सुकुमार अजीकोड, खुशवंत सिंह, के. सुब्रमण्यम, कनक सेन डेका और सितारा देवी भी शामिल हैं। सितारा देवी ने यह कहते हुए पुरस्कार ठुकरा दिया कि मुझे भारत रत्न के अलावा और कोई पुरस्कार नहीं चाहिए। अब तक जिन्हें भारत रत्न मिला है, उनमें शामिल हैं- 1954 डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, 1954 चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, 1954 डॉ. सीवी रमण, 1955 पं. जवाहरलाल नेहरू, 1962 डॉ. राजेंद्र प्रसाद, 1963 डॉ. जाकिर हुसैन, 1963 डॉ. पांडुरंग वामन काणो, 1966 लालबहादुर शास्त्री, 1971 इंदिरा गांधी, 1980 मदर टेरेसा,1983 आचार्य विनोबा भावे, 1990 डॉ. भीमराव अंबेडकर, 1990 नेल्सन मंडेला, 1991 राजीव गांधी, 1991 सरदार वल्लभ भाई पटेल, 1992 जेआर डी टाटा, 1997 डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, 2001 लता मंगेशकर।
लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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