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अफस्पा पर गतिरोध

जागरण मेहमान कोना
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राज्य में प्रशासनिक सुधार और साल भर की उथल-पुथल के बाद शांति बहाल करने की जीतोड़ कोशिशें करने वाले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को उम्मीद थी कि अफस्पा को हटाकर वह लोगों को संदेश दे सकेंगे कि वे अपने मालिक खुद हैं। दरअसल, राज्य में अलगाववादी लगातार प्रचार कर रहे थे कि कश्मीर घाटी पिछले दो दशकों से सेना के नियंत्रण में है इसलिए इसे हटाना जरूरी है। पाकिस्तान की ओर से चलाए जा रहे परोक्ष युद्ध का सामना करना कोई आसान काम नहीं था। पाकिस्तान के समर्थन से उग्रवादियों और भाड़े के सैनिकों ने वह सब करने की कोशिश की जो 1947-48, 1965 और 1971 में पाकिस्तान कर पाने में नाकाम रहा था। राज्य की प्रभुसत्ता की रक्षा करने के लिए 1990 में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम नागरिक प्रशासन की मदद के इरादे से लाया गया था। 1990 के दशक के आरंभ में परोक्ष युद्ध को दबाने और 1996, 2002 और 2008 में सफल चुनावों के बाद पूछा जा रहा है कि क्या इस अधिनियम का जारी रहना जरूरी है? पिछले दशक में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए सेना बाहरी इलाकों में तैनात हैं जिन्हें हालात बेकाबू हो जाने पर कहीं भी तैनात किया जा सकता है। राज्य में सामान्य व्यवस्था बहाल करने के लिए श्रीनगर जैसे शहरों से बंकर हटाने के लिए कदम उठाए गए। शांति बहाली से राज्य में पर्यटन बढ़ा और इस साल रिकॉर्ड संख्या में पर्यटक घाटी आए।


जम्मू-कश्मीर मुद्दे का राजनीतिक समाधान खोजने के लिए भारत सरकार ने पाकिस्तान के साथ वार्ता शुरू करने के लिए कदम उठाए। जब लगा कि कोई समझौता हो जाएगा तो जनरल परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व वाली सरकार बदल गई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई सरकार के साथ भी संपर्क बनाए और फिर से वार्ता शुरू की। तीन साल पहले मुंबई पर 26/11 के हमले के बाद से वार्ता प्रक्रिया भंग हो गई, लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के बीच थिंपू में बातचीत के बाद वार्ता फिर शुरू हुई। पाकिस्तान में असली ताकत सेना के हाथ में है जिसे साथ लिए बिना कोई समझौता संभव नहीं। खासतौर पर भारत के संबंध में तमाम फैसले सेना की मर्जी से ही लिए जाते हैं।


भारत सरकार ने दिलीप पडगांवकर की अध्यक्षता में मध्यस्थों की एक टीम गाठित की। टीम ने राज्य के लोगों से मिलकर कई महत्वपूर्ण उपाय सुझाए। सरकार मध्यस्थों की इस रिपोर्ट पर गौर कर रही है। सफल पंचायत चुनाव और शांतिपूर्ण पर्यटन सीजन निकल जाने से उत्साहित उमर अब्दुल्ला शांतिपूर्ण इलाकों से अफस्पा हटाना चाहते हैं। फील्ड कमांडरों के बयानों से जाहिर होता है कि सेना इन इलाकों को गैर अधिसूचित किए जाने के पक्ष में नहीं है। उसका मानना है कि भाड़े के सैनिक अब भी उन इलाकों में अपने ठिकाने बना लेंगे। चिंता पाकिस्तान की घटनाओं को लेकर भी है। प्रशिक्षण शिविर अभी भी चल रहे हैं और लश्करे तैयबा जैसे आतंकी संगठन अब भी फल-फूल रहे हैं।


पाकिस्तान के अंदरूनी इलाकों और पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर तालिबान के करीब सौ गुट सक्रिय हैं। सेना इन पर निगाह रख रही है। अफ-पाक सीमा पर तालिबान के ठिकानों पर 26 नवंबर को हुए नाटो हमले, जिनमें 24 पाक सैनिक मारे गए थे उन सभी के लिए चिंता का विषय बने हुए हैं जो इस क्षेत्र में शांति की उम्मीद लगाए बैठे हैं। इस घटना के बाद, पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में रणनीति पर चर्चा के लिए बुलाए गए बॉन सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया। समझा जा रहा है कि वहां सेना फैसले ले रही है। उधर, उमर अब्दुल्ला इस मुद्दे को राज्य के परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं। चिदंबरम ने कहा है कि इलाकों को गैर अधिसूचित करने के बारे में फैसला राज्यपाल द्वारा लिया जाएगा। इससे राज्य सरकार द्वारा चुने गए चार जिलों में अफस्पा को हटाने का रास्ता साफ हो जाएगा, लेकिन इसे हटाने का फैसला पाकिस्तान शासकों की कार्रवाई पर निर्भर करता है।


लेखक गजनफर बट्ट स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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