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बेमतलब का आर्य-अनार्य विवाद

जागरण मेहमान कोना
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आर्यो की आनुवांशिकी खोज ने एक नया इतिहास सामने रखा है। शोध से पता चलता है कि भारतीयों की आनुवांशिकी ढांचा बहुत पुराना है। इसके पहले भी डीएनए के आधार एक महत्वपूर्ण खोज से साबित हुआ कि भारत के बहुसंख्यक लोग दक्षिण भारतीय दो आदिवासी समुदायों के पूर्वज हैं। मानव इतिहास के विकास क्रम में ये स्थितियां जैविक प्रक्रिया के रूप में सामने आई हैं। एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि भगवान श्रीकृष्ण हिंदू मिथक और पौराणिक कथाओं के काल्पनिक पात्र न होकर एक वास्तविक चरित्र नायक थे और कुरुक्षेत्र के मैदान में हकीकत में महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। विश्व इतिहास में यदि ये मान्यताएं स्वीकार ली जाती हैं तो आर्यो के गढ़े गए इतिहास और महाभारत युद्ध से जुड़ी मिथकीय अवधारणाओं की जड़ता टूटेगी।


आनुवांशिकीय संरचना के आधार पर हैदराबाद की संस्था सेंटर फॉर सेल्युलर ऐंड मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध से जो निष्कर्ष सामने आए हैं, उनसे स्पष्ट है कि मूल भारतीय ही आर्य थे। इस शोध का आधार भारतीयों की कोशिकाओं का आनुवांशिकी ढांचा है जिसका सिलसिलेवार अध्ययन किया गया। इससे तय हुआ कि भारतीयों की कोशिकाओं का संरचनात्मक ढांचा 5000 साल से भी ज्यादा पुराना है। इस आधार पर यह कहानी एकदम निराधार साबित हो जाती है कि भारत के लोग 3.5 हजार साल पहले किसी दूसरे देश से आक्रमणकारियों के रूप में यहां आए थे। यदि ऐसा होता तो हमारा आनुवांशिकी ढांचा भी 3.5 हजार साल से ज्यादा पुराना नहीं होता, क्योंकि जब वातावरण बदलता है तो आनुवांशिकी ढांचा भी बदल जाता है। इस तथ्य को इस मिसाल से समझा जा सकता है कि यदि हमारे बीच का कोई व्यक्ति आज अमेरिका या ब्रिटेन जाकर रहने लग जाए तो उसकी जो चौथी-पांचवी पीढ़ी होगी, उसकी सवा-डेढ़ सौ साल बाद आनुवांशिकीय संरचना अमेरिका या ब्रिटेन निवासियों जैसी होने लगेगी। इस शोध से निकले निष्कर्ष के बाद देखना यह है कि दुनिया भर के जिज्ञासुओं को आर्यो के मूल निवास स्थान का जो सवाल मथता रहा है, उसका कोई कारगर हल निकलता है या नहीं। भारत व भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में इसके पहले के शोधों ने तय किया था कि मूल भारतीय दो आदिवासी परिवारों की संताने हैं। भारतीयों की उत्पत्ति संबंधी इस सिद्धांत को आधुनिक डीएनए तकनीक के माध्यम से व्यापक स्तर पर किए गए एक अध्ययन से पुष्टि मिली है। आर्य-अनार्य के स्थापना संबंधी मूल्यों को नकारते हुए इस जांच से साबित हुआ है कि दक्षिण भारतीय पूर्वज 65 हजार वर्ष पहले भारतीय उप महाद्वीप में आए थे।


अध्ययन ने तय किया है कि देश की सवा अरब जनसंख्या अनेक भाषाओं, बोलियों, जातियों व धर्मो में बंटी होने के बावजूद गहरी आनुवांशिक समानताएं रखती हैं। प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक चा‌र्ल्स डार्विन ने विकासवाद के सिद्धांत को स्थापित करते हुए जाहिर किया था कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और यहां तक की मनुष्य भी हमेशा से आज जैसे नहीं रहे हैं, बल्कि रैंडम म्यूटेशन और नेचुरल सेलेक्शन द्वारा निम्नतर से उच्चतर जीवन की ओर विकसित हुए हैं। डार्विन ने इस बात पर भी जोर दिया कि नर वानरों की जिस खास प्रजाति से मानव का विकास हुआ उसके संबंधी आज भी अफ्रीका में मौजूद हैं। इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आदिमानवों ने सबसे पहले अफ्रीका में जन्म लिया। वानर इंसान के पुरखे थे, डार्विन के इस सिद्धांत को पचा पाना उस जमाने के धर्मगुरुओं को उसी तरह कठिन लगा था, जैसे आज हमारे पाश्चात्य व साम्यवादी पूर्वाग्रह से जुड़े मनीषियों के लिए भारतीयता से जुड़ा कोई भी पक्ष या अध्ययन पचा पाना मुश्किल होता है। यही कारण है कि इस तरह के जो भी नए दृष्टिकोण सामने आए हैं, उन्हें नजरअंदाज किया गया है। यदि आर्य और द्रविड़ के बीच आनुवंशिक रिश्ता जोड़ने वाले ये सिद्धांत सर्वमान्य हो जाते हैं तो इससे कई विवादित सिद्धांत और अवधारणाओं पर विराम तो लगेगा ही, भारतीय राष्ट्रराज्य की एकता के लिए भी वरदान साबित होगा।


भारतीय संस्कृति के निर्माता और वेदों के रचयिता आर्य भारत के मूल निवासी थे। यदि प्राचीन भारतीय इतिहास को भारतीय दृष्टि से देखें तो आर्य ही भारत के ही मूल निवासी थे। पाश्चात्य इतिहास लेखकों ने पौने दो सौ साल पहले जब प्राच्य विषयों और प्राच्य विद्या का अध्ययन शुरू किया तो बड़ी कुटिल चतुराई से जर्मन विद्वान व इतिहासविद मैक्समूलर ने पहली बार आर्य शब्द को जाति सूचक शब्द से जोड़ दिया। वेदों का संस्कृत से जर्मनी में अनुवाद भी पहली बार मैक्समूलर ने किया। ऐसा इसलिए ताकि आर्यो को अभारतीय घोषित किया जा सके जबकि वैदिक युग में आर्य और दस्यु शब्द पूरे मानवीय चरित्र को दो भागों में बांटते थे। प्राचीन साहित्य में भारतीय नारी अपने पति को आर्यपुरुष या आर्यपुत्र नाम से संबोधित करती थी। इससे साबित होता है कि आर्य श्रेष्ठ पुरुषों का संकेत सूचक शब्द था। ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, पुराण व अन्य संस्कृत ग्रंथों में कहीं भी आर्य शब्द का प्रयोग जाति सूचक शब्द के रूप में नहीं हुआ है। वैदिक युग में तो वैसे भी जाति व्यवस्था थी नहीं। हां, वर्ण व्यवस्था जरूर थी। इसके अलावा वेद तथा अन्य संस्कृत साहित्य में कहीं भी उल्लेख नहीं है कि आर्य भारत में बाहर से आए। ताजा शोध बताते हैं कि सबसे पहले 65 हजार साल पहले अंडमान और दक्षिण भारत में लोगों का आगमन शुरू हुआ। इसके करीब 25 हजार वर्ष बाद उत्तर भारत में लोग आए। इस अध्ययन दल के निदेशक डॉ. लालजी सिंह का कहना है कि हम सब दक्षिण के इन आदि पुरखों की संतान हैं। सवर्ण-अवर्ण जातियों और आदिवासियों के आनुवांशिक गुण व लक्षण कमोबेश एक जैसे हैं। इसलिए आर्य और द्रविड़, अनार्य के परिप्रेक्ष्य में कोई विभाजित रेखा खींचने की जरूरत नहीं रह जाती। इस अध्ययन से सामने आया है कि जब भारतीय समाज में निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तब अलग-अलग कबीलों में जातियों का उदय हुआ। इसलिए अखंड भारत का उत्तर और दक्षिण भारत में विभाजन तो व्यर्थ है ही, कबीले और जातियां भी बेमानी हैं। ये शोध भाषा, रंग और नस्ल जैसे भेदसूचक विभाजन का नामंजूर करते हैं।


दरअसल, उत्तर और दक्षिण के विभाजन की बात तो अंग्रेज हुक्मरानों ने बांटों और राज करो की नीति के तहत की थी। 19वीं शताब्दी में यूरोपीय विचारकों ने अपने लोगों को श्रेष्ठ साबित करने के नजरिये से रंग व नस्ल की अवधारणा गढ़ी। मसलन गोरा रंग श्रेष्ठ माना गया और उसी के अनुसार गोरे, गेहुएं और तांबई त्वचा वाले उत्तर भारतीय श्रेष्ठ और काले या सांवले रंग वाले दक्षिण भारतीय हेय मान लिए गए। उत्तर की भाषा संस्कृत और दक्षिण की भाषाओं को भिन्न परिवारों में रखा गया, जबकि इन सभी भाषाओं की जननी संस्कृत रही है। इस शोध से भारत का नया सामाजिक व सांस्कृतिक पुनर्जन्म होने की संभावना है।


लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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