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कांग्रेस पर भारी ममता की दीदीगीरी

जागरण मेहमान कोना
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Satish Pednekarक्या संप्रग सरकार का रिमोट सोनिया गांधी के हाथ से निकलकर ममता बनर्जी के हाथों में चला गया है या वह सुपर पीएम बनने की कोशिश में हैं? राजनीतिक पर्यवेक्षकों के दिमाग में ये सवाल काफी समय से कुलबुला रहे थे, लेकिन संसद में लोकपाल के लटकने के बाद उनकी धारणा पक्की होती जा रही है। दरअसल, ममता बनर्जी जिस तरह सरकार की नीतियों को निर्देशित कर रही हैं, उसे देखते हुए यही लगता है कि वह संप्रग की घटक भले ही हों, लेकिन इसके साथ वह सबसे खतरनाक और निर्मम विपक्ष भी हैं। इससे संप्रग-एक को बाहर से समर्थन देने वाले वाममोर्चे की याद ताजा हो जाती है। जिस ममता के माकपा से सांप-नेवले जैसे रिश्ते हैं और जिन्होंने कई दशकों तक निरंतर संघर्ष करके 34 साल से राज करने वाली वाम मोर्चा सरकार को पश्चिम बंगाल से उखाड़ फेंका, उसी के बारे में कहा जा रहा है कि वह संप्रग-दो का वाममोर्चा है, जो सरकार के तमाम फैसलों में टांग अड़ाकर उसे सुचारू रूप से काम नहीं करने दे रहा। लेकिन केवल 19 सांसदों के सहारे सरकार को चुनौती देने के लिए 206 सांसदों वाली कांग्रेस को चुनौती देने के लिए ममता बनर्जी का लोहा माना जाना चाहिए, मगर कांग्रेस ने भी इस ममता नामक चुनौती का सामना करने के लिए नए विकल्प खोजना शुरू कर दिया है। पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम देखें तो यह स्पष्ट होते देर नहीं लगेगी कि बंगाल में दीदी के नाम से मशहूर ममता बनर्जी दीदीगीरी पर उतर आई हैं और कोलकाता में बैठकर दिल्ली की राजनीति को चलाने की कोशिश कर रही हैं। इसमें वह सफल भी हैं। इस देश में शायद ही कोई ऐसा मुख्यमंत्री होगा, जिसके पास मान-मनौव्वल के लिए प्रधानमंत्री के इतने फोन आते होंगे।


ऐसा तो शायद ही कभी होता होगा कि केंद्रीय वित्तमंत्री एक मुख्यमंत्री से अपाइंटमेंट लेने की कोशिश करें और उसे एपाइंटमेंट न मिले। ऐसा भी बहुत कम ही होता है कि एक मुख्यमंत्री उस सरकार के केंद्रीय मंत्रियों की सार्वजनिक रूप से खिंचाई करे, जिसमें उनकी पार्टी भी एक घटक है। अब तक आनंद शर्मा, जयराम रमेश और अंबिका सोनी उन्हें मनाने, समझाने-बुझाने के लिए कोलकाता की यात्रा कर चुके हैं। भविष्य में भी कई मंत्रियों को ऐसी ही यात्राएं करनी पड़ सकती हैं, लेकिन ममता बनर्जी के मामले में यह अक्सर होता रहता है। पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के बाद वह ऐसे बर्ताव कर रही हैं, जैसे सरकार उनके निर्देशों पर चल रही है, न कि प्रधानमंत्री के। ममता बार-बार संप्रग सरकार के फैसलों के चुनौती दे रही हैं और सरकार को मजबूरी में उनके सामने झुकना पड़ रहा है। एक तरह से वह कह रही हैं कि मेरा रास्ता ही राजमार्ग है। सबसे पहले टकराव पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने को लेकर शुरू हुआ। ममता की धमकी के सामने घुटने टेक कर सरकार ने पहली बार पेट्रोल के दाम सवा दो रुपये कम भी कर दिए थे। पेंशन बिल पर तो सरकार की और भी ज्यादा भद्द पिटी। सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में पेंशन बिल पास कराना चाहती थी।


संप्रग और भाजपा में इसे पास कराने को लेकर समझौता भी हो गया था, लेकिन दीदी अड़ गई तो फिर भला सरकार की क्या मजाल कि बिल पेश करती। वह ठंडे बस्ते में चला गया। ममता सरकार से अपनी शर्ते मनवाने के मामले में किस हद तक जा सकती हैं, यह तीस्ता के पानी पर बांग्लादेश के साथ समझौते के समय देखने को मिला। ममता बनर्जी ने ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री के प्रतिनिधिमंडल के साथ बांग्लादेश जाने से मना कर दिया। कारण यह था कि ममता ने केंद्र को बांग्लादेश को जितना पानी देने की इजाजत दी थी, केंद्र सरकार उससे ज्यादा पानी देने की तैयारी दिखाई। यह ममता कैसे बर्दाश्त करतीं। संप्रग सरकार पर ममता के प्रभाव का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की इजाजत देने के बारे में मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए फैसले का विरोध करने के कारण सरकार को अपना फैसला टालना पड़ा। राजनीतिक दबाव डालकर ममता केंद्र सरकार से गैर-संवैधानिक काम तक करवा लेती हैं। उसी हफ्ते केंद्र सरकार को पश्चिम बंगाल को 8,000 करोड़ रुपये का विशेष आर्थिक पैकेज देने की घोषणा करनी पड़ी। पहले प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री उन्हें समझाते रहे कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार इस तरह का विशेष पैकेज नहीं दिया जा सकता तो ममता ने दबाव डालना शुरू किया कि प्रधानमंत्री को इसे विशेष मामला मानकर मंजूरी देनी चाहिए और प्रधानमंत्री को मंजूरी देनी पड़ी। अक्सर कहा जाता है कि कांग्रेस सबसे बड़ा दल होने का फायदा उठाती है और संप्रग के अन्य और छोटे दलों से मशविरा किए बगैर फैसले कर लेती है। इसलिए कई बार घटक दलों को कठोर कदम उठाने को मजबूर होना पड़ता है।


तृणमूल के मामले में यह बात सही है।अक्सर तृणमूल के मंत्री कैबिनेट की बैठक में उपस्थित होते हैं और उनकी सहमति से फैसले होते हैं। इसके बावजूद ममता बाद में मुकर जाती हैं। खुदरा व्यापार पर हुए फैसले के बारे में भी ऐसा ही हुआ था। लोकपाल बिल पर तो सभी जानते हैं कि तृणमूल सरकार के साथ थी। लोकसभा में तो उसने लोकपाल बिल के पक्ष में मतदान भी किया, लेकिन राज्यसभा में पलटी मार दी, जिसके कारण सरकार की बहुत किरकिरी हुई। इस तरह ममता पहले किसी मसले पर समर्थन करें या विरोध, लेकिन आखिरी समय पर कोई स्टैंड लेकर अड़ जाती हैं। पिछले दिनों तो ममता ने इंदिरा भवन का नाम बदलकर नजरूल भवन करने की घोषणा करके कांग्रेस को जबरदस्त झटका दिया है। कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा कि वह क्या करे। ममता की राजनीति की विशेषता है कि उनका न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही कोई स्थायी दुश्मन। वह माओवादियों का समर्थन लेकर चुनाव जीतीं।


ममता केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाली संप्रग सरकार और राज्य में कांग्रेस पर हावी होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन कांग्रेस कुछ कर पाने में असमर्थ है। आखिर कांग्रेस ममता से इतना क्यों डर रही है। ममता की तृणमूल भले ही संप्रग की दूसरी बड़ी पार्टी है, लेकिन उसके पास केवल 19 ही सांसद हैं। इसलिए अगर ममता समर्थन वापस लेती हैं तो संप्रग की सरकार गिरेगी नहीं। फिर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को ममता की जितनी जरूरत है, उतनी ममता को भी कांग्रेस की जरूरत है। क्योंकि यदि वहां लोकतांत्रिक पार्टियों के वोट बंटे तो माकपा फिर जीत सकती है। लेकिन ममता की यह दबाव की राजनीति लंबे समय तक चल पाएगी, इसमें संदेह है। अभी से यह संकेत मिलने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद कांग्रेस ममता नाम की बीमारी का कुछ इलाज करने की सोच सकती है। यदि सपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरती है तो कांग्रेस उसे सरकार बनाने के लिए मदद कर सकती है और दूसरी तरफ उसे केंद्र सरकार में शामिल किया जा सकता है। इससे समाजवादी पार्टी संप्रग में नंबर दो बन जाएगी, जिसके पास 22 सांसद हैं। इससे सरकार ज्यादा स्थायी हो सकेगी और फिर ममता उसे बार-बार ब्लैकमेल भी नहीं कर पाएंगी। राजनीतिक समीकरणों में यह बदलाव जब तक नहीं होता, ममता की राजनीति को झेलना कांग्रेस की मजबूरी है।


लेखक सतीश पेडणेकर वरिष्ठ पत्रकार हैं


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