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यहां शोध का मतलब बोझ

जागरण मेहमान कोना
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भुवनेश्वर में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि पिछले कुछ दशकों में विज्ञान के क्षेत्र में भारत की स्थिति में गिरावट आई है और चीन जैसे देशों ने हमें पीछे छोड़ दिया है। इसी प्रकार 2010 में 97वीं विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि विज्ञान और देसी शोध व विकास को आगे बढ़ाने में निजी क्षेत्र की भूमिका निराशाजनक है। देखा जाए तो विज्ञान के पिछड़ेपन और निजी क्षेत्र की कंजूसी में गहरा संबंध है। विज्ञान के क्षेत्र में जिस चीन से पिछड़ने की बात प्रधानमंत्री ने की है, वहां शोध और विकास (आरएंडडी) पर होने वाले कुल खर्च का 65 फीसदी निजी क्षेत्र द्वारा किया जाता है, जबकि भारत में यह अनुपात 25 फीसदी ही है। कुल खर्च में भी भारत चीन से बहुत पीछे है। उदाहरण के लिए 2011 के दौरान चीन ने शोध और विकास पर 153.7 अरब डॉलर की भारी-भरकम राशि खर्च की। वहीं भारत का खर्च महज 36 अरब डॉलर रहा।


जीडीपी में हिस्सेदारी को देखें तो जहां चीन अपनी जीडीपी का 1.4 फीसदी शोध और विकास पर खर्च करता हैं, वहीं भारत 0.9 फीसदी। कुछ साल पहले एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज ऑफ इंडिया द्वारा किए गए अध्ययन में पता चला था कि 80 फीसदी से ज्यादा भारतीय कंपनियां आरएंडडी पर कोई खर्च नहीं करती हैं। आज जब अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ती जा रही है, उस दौर में शोध एवं विकास में निजी क्षेत्र की कंजूसी देश को पीछे धकेल रही है। उदाहरण के लिए एक दशक पहले तक अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिकाओं में भारतीय वैज्ञानिकों के लेखों की संख्या 11,000 हुआ करती थी, जबकि चीनी वैज्ञानिकों के सिर्फ 10,000 लेख होते थे। लेकिन ताजा आंकड़े पूरी तरह अलग कहानी बयां करते हैं। 2010 में भारतीय वैज्ञानिकों के 19,000 लेख छपे, वहीं चीनी वैज्ञानिकों के लेखों की संख्या 50,000 को पार कर गई।


कम खर्च के साथ-साथ विज्ञान व शोध-विकास में पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि इन क्षेत्रों में आकर्षक कैरियर का घोर अभाव है। उदाहरण के लिए देश में विज्ञान में पीएचडी करने वाली दो हजार महिलाओं में से 60 फीसदी बेरोजगार हैं। इसीलिए 12वीं के बाद विज्ञान के प्रतिभाशाली छात्र-छात्राएं भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान के बजाय तकनीकी व प्रबंधन से जुड़े पाठ्यक्रमों को प्राथमिकता देने लगे हैं। इन क्षेत्रों में भारी-भरकम पैकेज के साथ-साथ सामाजिक प्रतिष्ठा भी हासिल हो जाती है। इसी का परिणाम है कि विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के विज्ञान संकाय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में छात्रों के दाखिले में 80 फीसदी तक की कमी आई है। विज्ञान और शोध-विकास क्षेत्र से प्रतिभाओं के पलायन का दुष्परिणाम शोध क्षेत्र में दिखाई देने लगा है। फिक्की की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में हर वर्ष भारत से दस गुना, चीन में सात गुना और ब्राजील में तीन गुना ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित होते हैं। गौरतलब है कि शोध पत्र प्रकाशन में वैश्विक स्तर पर हमारी हिस्सेदारी महज 2.11 फीसदी है। पीएचडी के मामले में भी हमारा देश इन देशों की तुलना में पिछड़ता जा रहा है।


दरअसल, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में पीएचडी करने वाले छात्रों की संख्या लगातार घट रही है। स्थिाति यहां तक आ गई है कि प्राध्यापकों और अनुसंधानकर्ताओं को अपनी परियोजनाओं के लिए प्रोजेक्ट फेलो नहीं मिल रहे हैं, जिससे उनका कार्य प्रभावित हो रहा है। वैज्ञानिकों की कमी के कारण डीआरडीओ को उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने वाले कई प्रस्तावों को रोकना पड़ा है। अच्छे वैज्ञानिकों की कमी का एक कारण प्राध्यापकों की कमी भी है। प्राध्यापकों की कमी के लिए वे सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं, जो वेतन और रिसर्च फंडिंग के मामले में हर किसी के साथ एक जैसा व्यवहार करती हैं। दूसरी ओर चीन में स्टार सिस्टम लागू है, जिसके तहत अग्रणी शिक्षाविदें को ऊंची तनख्वाह व रिसर्च फंडिंग मिलती है। हालांकि अब भारत ने भी विज्ञान का चेहरा बदलने की योजना बनाई है। इसके तहत निजी क्षेत्र के सहयोग से 12वीं पंचवर्षीय योजना के आखिर तक शोध और विकास पर खर्च दो गुना किया जाएगा, लेकिन निजी क्षेत्र की मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति और विज्ञान के प्रति नकारात्मक महौल को देखें तो यह योजना शायद ही कामयाब हो। दरअसल, विज्ञान की शिक्षा व शोध-विकास का तभी कायाकल्प होगा, जब सरकार इस क्षेत्र में सुधारों को लागू करे और एक कैरियर के रूप में इसे आकर्षक बनाए।


लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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