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वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या की दृष्टि से भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है, लेकिन विज्ञान और तकनीक के मामले में वह काफी पिछड़ा है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विज्ञान कांग्रेस के 99वें अधिवेशन में भारत के चीन से पिछड़ने पर चिंता जाहिर की है। वह वैज्ञानिक अनुसंधान पर खर्च एक फीसदी से बढ़ाकर दो फीसदी करना चाहते हैं, लेकिन खर्च बढ़ा देने से ही देश में विज्ञान का विकास नहीं हो जाएगा। इसके लिए देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा। हमारे तमाम वैज्ञानिक विदेश चले जाते हैं। पिछली विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने विदेशों में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों से देश लौटने की भी अपील की थी, पर वे नहीं लौटे। हमारे वैज्ञानिक विदेश जाते ही क्यों हैं? इसका जवाब दो साल पहले रसायन में संयुक्त रूप से नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले भारतीय मूल के वैज्ञानिक वेंकट रमन रामकृष्णन ने दिया था। उन्होंने कहा था कि भारतीय वैज्ञानिकों को लालफीताशाही से मुक्ति और अधिक स्वायत्तता की जरूरत है। देश के वैज्ञानिक संस्थान और राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं जब तक नौकरशाही के चंगुल से ग्रस्त रहेंगी, तब तक भारत में नए विज्ञान और तकनीक के विकास का रास्ता नहीं खुल सकता है। देश में वैज्ञानिक खोज और आविष्कार के लिए उपयुक्त माहौल बनाना सरकार और खासकर प्रधानमंत्री का ही काम है कि वह देखें कि उनके वैज्ञानिक संस्थानों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में हो क्या रहा है।
आविष्कार में हम फिसड्डी अंतरिक्ष, परमाणु मिसाइल के क्षेत्र में हमारी कुछ उपलब्धियां भी हैं, लेकिन दुनिया को बताने लायक हमने कोई नई खोज और आविष्कार नहीं किया है। वैज्ञानिकों-इंजीनियरों की संख्या के हिसाब से भारत का दुनिया में तीसरा स्थान है, लेकिन सारा का सारा वैज्ञानिक साहित्य पश्चिमी देश के वैज्ञानिकों के कार्यो से भरा पड़ा है। उसमें किसी भारतीय का नाम नहीं मिलता है। अपने देश में आज कोई रामन, खुराना क्यों नहीं है? इतने सारे वैज्ञानिक संस्थानों में लगे हुए ढेरों वैज्ञानिक किस ऊहापोह में हैं। वे कुछ करते हैं, उसे मान्यता नहीं मिलती या वे कुछ कर ही नहीं रहे हैं? क्या हमारे देश में वैज्ञानिक प्रगति के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं है? दरअसल, सात-आठ दशक पहले ऐसा नहीं था। ब्रिटिश राज्य में तकलीफें कम नहीं थीं। परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल थीं। इसके बावजूद भारत ने रामानुजम, जगदीश चंद्र बोस, चंद्र शेखर वेंकट रामन, मेघनाद साहा, सत्येंद्र नाथ बोस जैसे वैज्ञानिक पैदा किए। इन वैज्ञानिकों ने भारत में ही काम किया और दुनिया में भारत का गौरव बढ़ाया था। लेकिन आजादी के बाद हम एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का वैज्ञानिक देश में पैदा नहीं कर सके? इस बारे में क्या कभी हमने सोचा है? दुनिया में अब वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान आर्थिक स्त्रोत के उपकरण बन गए हैं। किसी भी देश की वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता उसकी आर्थिक प्रगति का पैमाना बन चुकी है।
तकनीकी ज्ञान अब व्यापार के हथियार बन चुके हैं। इसलिए विज्ञान और तकनीक के विकास के बिना अब किसी देश की प्रगति नहीं हो सकती है। अब सवाल यह है कि क्या हमारी आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक प्रणाली में कोई ऐसी खामी है, जो भारतीय भूमि पर विज्ञान और तकनीक को पल्लवित नहीं होने देती? वास्तव में समाज ही वह ताकत है, जो यह निश्चित कर सकती है कि विज्ञान और तकनीक को किस दिशा में आगे बढ़ना है। आखिरकार विकास की प्रक्रिया समाज में ही तो शुरू होती है और जब एक बार विकास शुरू हो जाता है तो समाज भी बदलने लगता है तो फिर क्यों न हम अन्य देशों के साथ भारत की तुलना करके देखें कि विकास आखिर किस दिशा में हुआ है। पश्चिमी देश क्यों हैं आगे अगर ध्यान से देखा जाए तो पश्चिमी देशों की परिस्थितियां इतनी अनुकूल थीं कि वैज्ञानिक विकास जरूरी हो गया था। आजादी की खुशहाली के आलम में लोग साहसिक यात्राओं पर निकलने लगे। उनका संपर्क दुनिया में कुछ नया खोजने वाले कारीगरों से हुआ। धीरे-धीरे पुराने विश्वास, आदतें और सामाजिक मूल्य बदलने लगे। विकास की एक नई प्रक्रिया शुरू हो गई। उत्पादन के तौर-तरीकों और परिवहन के साधनों में सुधार की मांग तेजी से बढ़ती जा रही थी। उस समय युद्ध भी हो रहे थे। युद्ध में विजय के लिए जरूरी था नए से नए साधनों का उपयोग। अत्याधुनिक चीजें हासिल करने का जोर उमड़ पड़ा और खोजबीन तेजी से होने लगी। किसी भी दूसरे देश ने वैज्ञानिक विकास के लिए ऐसी जमीन नहीं दी, जैसी यूरोप और अमेरिका ने। इस नई वैज्ञानिक संस्कृति के लाभ साफ दिखाई दे रहे थे। यही वजह है कि कुछ और देशों ने इसे अपना लिया। इसे सबसे पहले जापानियों ने अपनाया।
जापान-चीन भी हैं मिसाल जापान ने यह जानने की कोशिश की कि आखिर पश्चिम में वैज्ञानिक क्रांति कैसे संभव हुई। यह पता लगाने के बाद उसी आधार पर सरकार ने देश के पूरे सहयोग से अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण की दिशा में कदम उठाए। उसने यह महसूस किया कि पश्चिम देशों की सैन्य शक्ति, पश्चिमी शिक्षा और पश्चिमी उद्योग तकनीक पर आधारित थे। इसलिए उन्होंने जापानी इतिहास तथा हालात द्वारा अपेक्षित सुधार करके उन बातों को अपनाया। जापान ने विज्ञान को राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार ढालने में असाधारण सूझ-बूझ दिखाई। जापान की ही तरह सोवियत संघ और अब रूस ने भी विज्ञान शासन और उद्योग की एकात्मता को आधार बनाया। उसने भी वैज्ञानिक शिक्षा के लिए जापान की तरह अपनी मातृ भाषा को आधार बनाया। नौकरशाही और लाल फीताशाही को खत्म करने के लिए नए-नए तौर-तरीके अपनाए। जापान और रूस के अनुभवों का चीन को बड़ा फायदा हुआ। चीनी इस बात में भी विश्वास करते हैं कि नई आधुनिक तकनीकों को जितनी जल्दी हो सके, अपना लेना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही जब तक नई तकनीक न अपना ली जाए, तब तक पुरानी तकनीक को प्रोत्साहन देते रहना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग काम कर सकें। आकार और आबादी के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी चीन और भारत के बीच कई चीजें एक जैसी रहीं हैं, लेकिन पचास साल पहले तक हमारे इस पड़ोसी देश में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे देखकर हमारे देश के लोगों को ईष्र्या हो। इन पांच दशकों में चीन ने अपने सामानों के उत्पादन की लागत गुणवत्ता में इतना सुधार किया कि अमेरिका और जापान जैसी महाशक्तियां भी पशोपेश में पड़ गई। भारत के लिए उन नीतियों पर नजर डालना फायदेमंद हो सकता है, जिन्होंने चीन के आर्थिक चमत्कार को संभव बनाया है।
आबादी नियंत्रण, शिक्षा प्रसार, आधारभूत विकास के साथ-साथ आर्थिक और प्रशासनिक सुधार ही चीन के विकास का माध्यम बने हैं। पिछले 50 साल में चीन ने जो कुछ कर दिखाया, उससे लगता है कि ऐसा कुछ नहीं है, जो संभव न हो। लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद हमने क्या विज्ञान को वैज्ञानिक रूप में विकसित किया है? आज देश के 900 से अधिक वैज्ञानिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों में विज्ञान और तकनीक के अनुसंधान का काम होता है, लेकिन फिर भी दुनिया के विज्ञान साहित्य में हमारा नामोनिशान नहीं है और तकनीक के लिए हम दूसरे देशों पर निर्भर हैं। हमने पंचवर्षीय योजनाओं का खाका रूस से उधार लिया, लेकिन उनके अनुभवों से कुछ सीखने कोशिश नहीं की। हमारे पास प्राकृतिक संसाधनों, खनिजों का विशाल भंडार है। दुनिया की सबसे अधिक उपजाऊ कृषि भूमि हमारे पास है। अंतरिक्ष उपग्रहों और मिसाइलों के निर्माण में हमारे वैज्ञानिकों की क्षमता जगजाहिर हो चुकी है। जरूरत इस बात की है कि सबसे पहले हम अपने देश की प्राथमिकताएं तय करें और उसके अनुसार अपनी नीतियां बनाएं। फिर पूरे संकल्प के साथ उसके अमल में जुट जाएं। यदि हमारे देश के राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों की इस देश की जरा भी चिंता है तो यह कार्य उन्हें तुरंत शुरू कर देना चाहिए। कोई भी देश अंततोगत्वा अपनी आंतरिक शक्ति और वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षमता से ही आत्मनिर्भर होता है।
लेखक निरंकार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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