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मुस्लिम समाज में आजकल सलमान रुश्दी के भारत आगमन को लेकर गूढ़ चिंता बनी हुई है। अभी हाल ही में दारुल उलूम देवबंद के कुलपति मौलाना अबुल कासिम नोमानी ने इस बात की चिंता जताई कि सलमान रुश्दी ने जो काम किया है, उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है। उन्होंने हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की शान में जो गुस्ताखी की है और आज भी जिस तरह से वे उस पर कायम हैं, उससे पूरे मुस्लिम समाज को ठेस पहुंची है। यह बात जग जाहिर है कि एक मुसलमान के लिए उसके अस्तित्व की तीन अत्यंत महत्वपूर्ण इकाइयां अल्लाह, हजरत मुहम्मद (सल्ल.) और कुरान हैं। अगर इन तीनों में से किसी एक पर भी आंच आती है तो मुसलमान विश्व में कहीं भी हो, आंख बंद कर अपनी जान पर खेल जाता है। चाहे वह सलमान रुश्दी हों, तसलीमा नसरीन हों, कुरान को जलाने वाले टैरी जोंस हों या डेनमार्क का अखबार जायलैंडस पोस्टन हो जिसमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के कार्टून छपे थे, इन सभी गतिविधियों से मुस्लिम समाज को घोर कष्ट पहुंचा था। कई लोग तो अपनी जानें भी गंवा बैठे थे। यह घटना पुन: रुश्दी के आगमन पर दोहराई जा सकती हैं, जो किसी लिहाज से सार्थक नहीं है। क्योंकि मुसलमानों को इस प्रकार के प्रकरणों में प्राय: पुलिस के डंडे या गोलियां खाकर नुकसान उठाना पड़ता है। लिहाजा, इस प्रकार की गतिविधियों से उन्हें दूर रहना चाहिए।
उपर्युक्त घटनाओं का मुस्लिम समाज न केवल कड़ा विरोध हुआ था, बल्कि जनता सड़कों पर उतर आई थी। अब यहां यानी रुश्दी प्रकरण पर दो बातें एक-दूसरे से आमने-सामने टकराव पर हैं। यहां मजहब का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से टकराव है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के थिंक टैंक तरुण विजय की इस बारे में यह सोच है कि जहां तक रुश्दी के भारत आने की बात है तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है, न कि इस्लामिक जम्हूरियत। इसके अलावा भारत उनकी जन्मभूमि भी है और उनके पास भारत आने के लिए सभी दस्तावेज हैं। चाहे वह पासपोर्ट हो या पीआइओ कार्ड। वैसे भी भारत ने सभी धर्मो के लोगों को शरण दी है। रुश्दी के भारत आगमन पर आपत्ति जताने वाले वर्ग को इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जब भारत में उनका आगमन हुआ तो उन्हें यहां पर इसलिए स्थान दिया गया कि उन्होंने कहा था कि वे सूफी मत की विचारधारा में विश्वास रखते हैं और इस्लाम तलवार नहीं, बल्कि सूफियों की संभावना एवं सद्भावना के कारण विस्तृत हुआ है। इस विषय में शिक्षाविद् डॉ. प्रदीप जैन का मानना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे देश में मूल अधिकारों में से एक है, लेकिन संविधान में सभी धर्मो को समान स्थान दिया गया है। इसका अर्थ यह भी है कि एक-दूसरे के धर्म का पूर्ण रूप से सम्मान होना चाहिए। अत: यदि किसी वर्ग को किसी विवादास्पद विदेशी के आगमन से आपत्ति है तो उसकी रक्षा सर्वप्रथम की जानी चाहिए।
बकौल डॉ. जैन, यहां प्रश्न यह है कि अधिकार पहले किसके माने जाएं। चुनावों के समय इस मुद्दे को उछालना क्या संदेह उत्पन्न नहीं करता? भारत की लगभग 20 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है तो क्या इसे 1:20 का वाक्युद्ध माना जाए? यहां मतों का महत्व है और हमारा लोकतंत्र इसी पर टिका है, इस दृष्टि से एक व्यक्ति के आगमन को महत्व देना कहां तक उचित कहा जा सकता है। हमारा विश्वास वसुधैव कुटुंबकम में रहा है, लेकिन धर्म हंता से प्रतिकार लेने में भी हमारा विश्वास रहा है। कौटिल्य की उक्ति शठे शाठ्यम समाचरेत (दुष्ट के साथ दुष्ट जैसा बर्ताव करो) में भी हमारा विश्वास रहा है। रुश्दी को यह नहीं भूलना चाहिए। इंटर फेथ हॉरमनी फाउंडेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक डॉ. ख्वाजा इफ्तेखार अहमद के अनुसार, सलमान रुश्दी इस्लाम और मुसलमानों के निकट तौहीन-ए-रिसालत की बुनियाद पर इस्लाम से खारिज हो चुके हैं। उनका स्थान मुसलमानों में एक मातूब शख्स (शैतान) का है। ऐसे व्यक्ति का देश में बार-बार आगमन मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। डॉ. इफ्तेखार का मानना है कि सभ्य समाज और और सभ्य सिद्धांतों पर आधारित पर शासन प्रणाली के लिए यह किसी प्रकार से उचित नहीं कि तकनीकी आधार पर उसके आगमन को उचित न ठहराया जाए। विचारों के व्यक्त करने की स्वतंत्रता का कदापि यह अर्थ नहीं कि किसी की धार्मिक आस्था को आहत किया जाए। सलमान रुश्दी चूंकि इस्लाम से खारिज हैं और जब उन्हें इस्लाम और हुजूर हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की कोई परवाह नहीं तो उन्हें भी यह चाहिए वे अपना नाम बदल लें और इस्लाम से अपने संबंध को सदैव के लिए औपचारिक रूप तोड़ने का ऐलान करें।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. राकेश सिन्हा का मानना है कि किसी भी विवादास्पद व्यक्ति या विषय के बारे में निर्णय देश के संविधान और न्याय प्रक्रिया के अंतर्गत होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से सलमान रुश्दी के संबंध में कुछ एक धार्मिक संस्थाओं ने संविधान एवं न्याय प्रक्रिया से परे जाकर उन्हें दोषी घोषित कर दिया है, जो मूलत: लोकतांत्रिक अधिकारों के विरुद्ध है। सलमान रुश्दी को अपनी अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। उन्हें जयपुर के सम्मेलन में आने से रोकने की मांग करने का एक ही अभिप्राय है कि उनका मूल्यांकन मात्र शरीयत के आधार पर किया जा रहा है, न कि देश की लोकतांत्रिक एवं धर्म निरपेक्ष परंपराओं के आधार पर। इस प्रकार की तमाम विचारधाराओं को परास्त किया जाना चाहिए। वरना देश का संविधान अपनी वैधानिकता खो देगा। जामा मस्जिद, दिल्ली के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी कहते हैं कि भारत के संविधान में अधिनियम है कि किसी भी धर्म एवं संप्रदाय के विरुद्ध कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जाएगा, जिससे उसकी भावनाएं आहत हों, लेकिन सरकार इस प्रकार के प्रकरणों में दोहरा मापदंड अपनाती है। पिछले दिनों जब रूस में वैदिक ग्रंथ गीता के पढ़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था तो तुरंत ही न केवल समस्त हिंदू संप्रदाय, बल्कि भारत सरकार का विदेश मंत्रालय भी सक्रिय हो गया। जब सरकार इस प्रकार की धारणा को अनुचित ठहराती है और जैसा कि होना भी चाहिए तो आखिर रुश्दी और तसलीमा जैसे इस्लाम के दुश्मनों को तरजीह देकर सरकार आखिर क्या संदेश देना चाहती है? इसी तरह दिल्ली की फतेहपुरी शाही मस्जिद के शाही इमाम डॉ. मुफ्ती मुकर्रम अहमद का कहना है कि सलमान रुश्दी के भारत आने की खबर पर भारत के मुस्लिम संप्रदाय में जबर्दस्त रोष है।
रुश्दी ने अपनी पुस्तक द सैटेनिक वर्सेस में पैगंबर-ए-इस्लाम (सल्ल.) की शान में जो गलत और तौहीन आमेज़ कलिमात बयान किए और लिखे हैं, उन्हें पढ़कर हर मुसलमान को गुस्सा आना स्वाभाविक है। डॉ. अहमद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राजस्थान सरकार से अपील करते हैं कि सलमान रुश्दी के भारत आने पर रोक लगाई जाए ताकि यहां की गंगा-जमुनी परंपरा एवं सद्भावना बनी रहे। मुस्लिम वर्ग की रुश्दी आगमन पर यह विचारधारा भी बन रही है कि कांगे्रस उत्तर प्रदेश चुनाव से पूर्व रुश्दी को भारत बुलाकर हाराकीरी यानी आत्महत्या कर रही है। यदि मुसलमानों का कुछ झुकाव मायावती और मुलायम सिंह से वैमनस्य के बाद कांग्रेस की ओर हुआ है तो इसे ज्यों का त्यों रहने देना चाहिए। सलमान रुश्दी को किसी बहाने यहां आने से रोकने से कांग्रेस को फायदा हो सकता है। पटना विश्वविद्यालय के प्रो. अब्दुस्समद के मुताबिक अगर केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस सरकार ने सलमान रुश्दी को इस समय भारत आने की अनुमति दे दी तो न केवल उत्तर प्रदेश में वह मुंह की खाएगी, बल्कि आने वाले आम चुनावों मं भी मुसलमान उससे विमुख रहेगा। केंद्र की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को पहले से इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि सलमान रुश्दी, तसलीमा नसरीन आदि विख्यात हस्तियों को बुलाने के क्या नतीजे होंगे। उधर, मुस्लिम वर्ग को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह कुछ हदों को पार न करे और उस तरह की उदाहरण न स्थापित करें, जैसे उत्तर प्रदेश के पूर्व विधायक हाजी याकूब कुरैशी ने किया था। इस प्रकार के भड़कीले बयानों से मुस्लिम समाज की सभ्य छवि को बट्टा लगता है।
लेखक फिरोज बख्त अहमद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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