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कैसे निपटें राष्ट्रीय शर्म से

जागरण मेहमान कोना
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कुपोषण देश के लिए राष्ट्रीय शर्म है। जब यह वाक्य उस मुल्क का प्रधानमंत्री कहता है, जिसकी पहचान आर्थिक सुधारों का चेहरा वाली हो तो उनकी नीतियों पर भी सवाल उठने लाजिमी हैं। यह कैसी नीतियां हैं, जिनके कारण एक तरफ हमें फख्र होता है कि हमारा मुल्क दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से उभरती अर्थव्यवस्था वाला है तो दूसरी तरफ यहां दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चों की मौजूदगी राष्ट्रीय शर्म की बात है। भूख और कुपोषण संबंधी ताजा सर्वे में खुलासा हुआ है कि देश के 9 राज्यों के 112 जिलों में पांच साल से कम उम्र के 42 फीसदी बच्चे अब भी कुपोषण के शिकार हैं। दो साल से कम आयु के कुल 59 प्रतिशत बच्चों का कद सामान्य ऊंचाई से बहुत कम है। नांदी फाउंडेशन नामक स्वयंसेवी संस्था की ओर से स्वास्थ्य सूचकांक की दृष्टि से सबसे खराब समझे जाने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा में कराए गए इस सर्वेक्षण की अंतिम रिपोर्ट हाल में प्रधानमंत्री ने जारी की और बच्चों में कुपोषण की ताजा स्थिति को शर्मनाक बताया।


कुपोषण पर हंगामा सर्वे रिपोर्ट-2011 में हिमाचल प्रदेश, केरल और तमिलनाडु भी शमिल हैं और इन राज्यों में स्वास्थ्य सूचकांक की दृष्टि से सबसे उम्दा प्रदर्शन करने वाले छह जिले भी शमिल हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार सामान्य ऊंचाई से कम कद वाले बच्चों में 50 प्रतिशत बच्चों का कद बहुत ही कम है। दो साल की उम्र वाले आधे बच्चों का वजन और कद सामान्य से कम पाया गया। निम्न आय वर्ग के परिवारों या अनुसूचित जाति-जनजाति व मुस्लिम परिवारों के बच्चों की स्थिति सबसे ज्यादा दयनीय पाई गई। इस ताजा सर्वे से पहले 2004 में जिला स्तरीय स्वास्थ्य सर्वे कराया गया था, जिसमें कुपोषण को केवल वजन के टर्म में देखा गया था और निष्कर्ष निकला गया कि इन जिलों में 53 प्रतिशत बच्चे कम वजन के यानी कुपोषित थे। जबकि ताजा सर्वे में पांच वर्ष से कम आयु के 42 प्रतिशत बच्चे ही कुपोषण से ग्रसित पाए गए हैं। यह संख्या अनुमानित कुपोषित बच्चों की संख्या से कहीं अधिक है। सबसे खराब सौ जिलों के कुल 10.90 लाख बच्चों में किए गए सर्वे में यह भी खुलासा हुआ है कि देश में अब भी दो साल से कम उम्र के 40 प्रतिशत नवजात कम वजन के शिकार हैं। इन नवजातों में 60 प्रतिशत बच्चों में शक्तिहीनता भी पाई गई है। इन नए आंकड़ों के अनुसार सबसे खराब जिलों में उड़ीसा के मलकानगंज में 57.75 फीसदी और बिहार के औरगांबाद में 49.47 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से काफी कम है।


उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती और रायबरेली में क्रमश: 72.31 व 70.40 प्रतिशत और उड़ीसा के कोरापट में 68.86 फीसदी व झारखंड के दुमका में 63.65 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम पाया गया है। बेशक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद में प्रभावशाली वृद्धि के बावजूद देश में कुपोषण का स्तर अस्वीकार्य रूप से अधिक है। लिहाजा, नीति-निर्माताओं और कार्यक्रमों को लागू करने वालों को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पेयजल और पोषण के बीच कई कडि़यों को स्पष्ट रूप से समझने व उनके मुताबिक अपनी गतिविधियों को आकार देने की जरूरत है। कुपोषण एक पुरानी समस्या है, लेकिन सवाल यह है कि प्रधानमंत्री ने जिसे राष्ट्रीय शर्म करार दिया है, उस समस्या के प्रति वह और उनकी संप्रग सरकार कितनी गंभीर है।


अक्टूबर 2008 में मनमोहन सिंह ने पोषण संबंधी एक राष्ट्रीय परिषद का गठन किया था, जिसका काम प्रधानमंत्री को कुपोषण दूर करने संबंधी सलाह देना था, लेकिन हैरत वाली बात यह है कि इस उच्च स्तरीय परिषद की बीते तीन सालों में महज एक ही बैठक हुई है। नवंबर 2010 में हुई इस बैठक में कुछ फैसले लिए गए थे। मसलन, आइसीडीएस को पुनर्गठित व अधिक मजबूत करना और गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और तीन साल से कम उम्र वाले बच्चों पर फोकस करना आदि। मगर अधिकतर फैसले कागजों तक ही सीमित रह गए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि आंगनबाड़ी कार्यक्रम कुपोषण से निपटने का एक अहम जरिया है, लेकिन अब सिर्फ इस पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता। कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि से भी है। इसलिए कई मोर्चो पर एक साथ मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा।


लेखिका अलका आर्य स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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