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शौर्य-बलिदान की गाथा

जागरण मेहमान कोना
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विभिन्न युद्ध प्रणालियों में भारतीय सेना संभवत: दुनिया की सबसे अनुभवी सेना है। औपनिवेशिक शासन से मुक्ति मिलने के बाद पिछले 65 सालों में भारतीय जवानों ने सीधे आक्रमण, कम तीव्रता वाले युद्ध, छद्म युद्ध, उग्रवाद और आतंकवाद का सफलतापूर्वक सामना किया है। इस अग्निपरीक्षा से भारतीय सेना न केवल अपने विभिन्न स्वरूपों में लड़ाई के कला-कौशल में पारंगत होकर निकली है, बल्कि जब कभी संयुक्त राष्ट्र चार्टर के दायित्वों को पूरा करने के लिए उसे बुलाया गया है, तब यह एक कुशल शांतिरक्षक के रूप में भी उभर कर आई है। युद्ध के लिए जन्मी भारतीय सेना अनुभवों की आंच में तप कर खरी निकली है। साहसी नेतृत्व में हथियारबंद जवानों का श्रेष्ठ दल इसे यूं ही नहीं कहा जाता। जम्मू-कश्मीर के कारगिल से बेहतर इसका दूसरा उदाहरण और क्या हो सकता है, जब 1999 में, कश्मीरी आजादी के लड़ाकुओं के रूप में पाकिस्तान सेना ने अपने राष्ट्रीय गौरव को त्याग कर चोरी-छिपे कारगिल पहाडि़यों पर कब्जा कर लिया था और भारतीय सेना के जवानों ने एकदम खड़ी चढ़ाई करके उन्हें वहां से बेदखल कर दिया था।


आजादी से पहले भी अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को एक अत्यंत श्रेष्ठ सैनिक पाया था। यूरोप, अफ्रीका, एशिया और दक्षिणपूर्व एशिया में दो विश्व युद्धों में उन्होंने इस बात को पूरी तरह साबित भी किया। इन लड़ाइयों में भारतीय सेना ने कई युद्ध सम्मान अर्जित किए। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इन शेरदिलों को प्रदत्त सम्मानों में 20 परम वीर चक्र, 52 अशोक चक्र शामिल हैं। शांति काल में परम वीर चक्र के समकक्ष अशोक चक्र पुरस्कार युद्ध में दुश्मन के सामने किए जाने वाले कृत्यों के अलावा अत्यंत उल्लेखनीय वीरता या उत्कृष्ट शौर्य के किसी साहसी कार्य या आत्म-बलिदान के लिए दिया जाता है। इनमें भारत के दुश्मन उसकी प्रभुसत्ता तथा प्रादेशिक अखंडता के दुश्मन देशों द्वारा उग्रवाद, घुसपैठ और आतंकी गतिविधियां आती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय सेना वैसी ही है, जैसे इसके जवान।


इन जवानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों को कुछ विशेषज्ञ विश्व की बड़ी शक्तियों के पास मौजूद हथियारों के मुकाबले हलका मानते हैं। किंतु भारतीय जवानों ने अपने शौर्य से इस कमी को पूरा कर दिया। इसका एक बढि़या उदाहरण 1965 में देखने को मिला, जब एक होनहार भारतीय अफसर के शानदार नेतृत्व में उत्तर की लड़ाई में अजेय कहे जाने वाले 100 के करीब पाकिस्तानी पैटन टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया गया। इन पैटन टैंकों को या तो नष्ट कर दिया गया था या उन्हें अपने कब्जे में ले लिया गया था। बाद में 1971 में जनरल मानेकशा ने पूर्व पाकिस्तान को आजाद करा कर और बांग्लादेश का निर्माण करके एक बार फिर इस बात को साबित कर दिया। इस युद्ध में उन्होंने 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बना लिया, जो तब तक इस मुगालते में रह रहे थे कि एक पाकिस्तान दस हिंदुस्तानियों के बराबर है।


1962 में चीन के हाथों हुई पराजय ने भारतीय सेना के इस इरादे को और मजबूत कर दिया कि ऐसा फिर से नहीं होने दिया जाएगा। तब से भारतीय सेना की तैयारियों में बड़ा अंतर आया है। 1987 में चीनियों को नाथुला में उस समय हमारी तलवार की धार का मजा चखना पड़ा, जब उन्होंने अति आक्रामक रुख अपनाया था। भारतीय सेना से सीधे टकराने से कतराते हुए दुश्मन पड़ोसियों ने परोक्ष युद्धों, उग्रवाद और इस्लामी जिहादी आतंकवादियों के अधिकाधिक इस्तेमाल के जरिए वह हासिल करने की कोशिश की है, जो वे युद्ध के सुस्थापित नियमों द्वारा प्राप्त करने में नाकाम रहे हैं। लेकिन अब भारतीय उस युद्ध के लिए भी तैयार हैं, जिसे वे फुल-स्पेक्ट्रम युद्ध का नाम दे रहे हैं।


लेखक पीएन खेड़ा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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