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भुखमरी पर शर्मसार

जागरण मेहमान कोना
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बीते दिनों प्रधानमंत्री ने हंगामा (हंगर एंड मालन्यूट्रिशन) रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट में बताया गया कि दुनिया का हर तीसरा कुपोशित बच्चा भारत का है। प्रधानमंत्री ने इस स्थिति को अस्वीकार्य और बहुत ही शर्मनाक बताया। दुर्भाग्य की बात है कि अगला दिन शुरू होते-होते उनकी इसी शर्मिंदगी को कई गुना बढ़ाने वाली एक और खबर सामने आ गई। अंडमान निकोबार की संरक्षित आदिम जाति जरावा के लोगों को भोजन के बदले बिना कपड़ों के नचाया गया। इनमें महिलाएं भी शामिल थीं। मामला सामने आते ही गृह मंत्रालय ने केंद्र शासित प्रशासन से जवाब तलब किया है। ये खबरें हमारी आत्मा को झकझोर देने के लिए काफी होनी चाहिए। बात की जाए हंगामा रिपोर्ट की, तो इस रिपोर्ट के जरिये ही कई और चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। गरीब सहारा अफ्रीकी देशों से भी बदतर स्थिति विश्व की उभरती ताकत भारत के बच्चों की है। यूनिसेफ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक तीन साल तक के भारतीय कुपोशित बच्चों की तादाद 47 प्रतिशत है। देश के 42 प्रतिशत से ज्यादा बच्चों का वजन सामान्य से कम है। बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बावजूद इस तरह के आंकड़े सामने आना निश्चित रूप से हैरान करते हैं।


प्रधानमंत्री ने इस स्थिति पर गौर फरमाते हुए इस दिशा में समग्र कार्यक्रम चलाने की घोषणा भी की। यहां देखने वाली बात है कि पहले से ही इस दिशा में चल रहे कार्यक्रमों के आकलन की प्रधानमंत्री ने जरूरत नहीं समझी, ताकि मौजूदा कार्यक्रमों की कमियां जानकर उन्हें हटाने के प्रयास किए जा सकें और सभी के लिए खाद्य और पोषण की व्यवस्था सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन सरकार इन सबके प्रति आंखें मूंद कर बैठी है, मानो ये कोई विचारणीय मुद्दे हैं ही नहीं। यह जगजाहिर है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) ने किस तरह गरीब जनता के मुंह का निवाला छीन रखा है। बीते समय में स्पष्ट किया गया कि पीडीएस के तहत दी जाने वाली 28,000 करोड़ रुपये की सालाना सब्सिडी का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्ट तत्वों की जेबों में चला जाता है। लेकिन राज्य व केंद्र सरकारें इस समस्या पर गंभीर नजर नहीं आतीं। हर साल लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है, लेकिन देश में अनाज भंडारण की व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कोई ठोस कदम सामने नहीं आता। खाद्य सुरक्षा बिल के तहत सरकार की और भी अनाज भंडार खोलने की योजना है। लेकिन मौजूदा गोदामों को दुरुस्त करने का कहीं कोई जिक्र नहीं। जब हम विकास का इतना लंबा रास्ता तय कर आए हैं, तब इस तरह की खबरें सामने आना बेहद गंभीर मामला है।


प्रशासन के हर स्तर पर भ्रष्ट तत्व इतने व्यापक रूप से फैल गए हैं कि कोई भी योजना लाई जाए जब तक उसके क्रियान्वन पर ध्यान नहीं दिया जाएगा उसका कागजों पर होना व्यर्थ है। जिस देश की संरक्षित जाति महज दो निवालों के लिए इस रूप में सामने आ गई तो अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि आजादी के इतने वषरें के बाद भी भूख से किस कदर बिलबिला रही है हमारी जनता। और जब तक व्यावहारिक तौर पर कोई पहल नहीं होगी तब तक हमें दुनिया के सामने इन तमाम शर्मिंदगियों के कड़वे घूंट पीने पड़ेंगे। चुनाव के इस दौर में पार्टियां वोट पाने के लालच में बहुत से लुभावने वादे कर रही हैं। राज्य को टुकडों में बांट देने से लेकर धर्म के नाम पर आरक्षण तक के वादे सामने आ रहे हैं। लेकिन पार्टियों द्वारा किया जा रहा कोई भी वादा इस भूखी जनता की समस्या के समाधान के रूप में नजर आता है? जवाब है नहीं। ये खबरें देखकर राजनीति पर आधारित एक फिल्म का एक दृश्य याद आ गया जिसमें चुनाव के दौरान गरीब जनता को भाषण दे रहे नेता को नायक कहता है, ये पेट की मारी जनता है नेता जी, बस दो रोटी का आसरा दे दीजिए किसी भी रंग का झंडा उठाने को तैयार हो जाएगी। सरकार सावधान रहे।


लेखिका आशिमा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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