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अंबेडकर से आगे

जागरण मेहमान कोना
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डॉ. धर्मवीर को लगभग तभी से जानता हूं जब 1990 में मैं दिल्ली आया। तब मुझे यह नहीं पता था कि वह दलित हैं। वह अच्छा लिखते हैं। उनके कई लेख मैंने छापे। बीच-बीच में उनसे संवाद भी होता रहा। उनमें प्रतिभा है। लिखने के पहले वह बहुत मेहनत करते हैं। किसी भी बात को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाना उन्हें प्रिय है और यही कोशिश मेरी भी रहती है। इसलिए हमारे बीच एक रागात्मक रिश्ता बना हुआ है। मैं जानता हूं वह मेरे आलोचक हैं। वह भी जानते हैं मैं उनका आलोचक हूं, लेकिन हमारी दोस्ती में कोई फर्क नहीं पड़ा। डॉ. भीमराव अंबेडकर के बारे में डॉ. राममनोहर लोहिया बराबर अफसोस जाहिर किया करते थे कि वह सिर्फ दलित मामलों तक क्यों सीमित रहते हैं, पूरे देश का नेतृत्व क्यों नहीं करते? दोनों महान नेताओं की बातचीत भी हुई थी कि मिलकर काम किया जाए। कुछ नतीजा निकले इसके पहले ही बाबा साहब नहीं रहे। ऐसे ही मैं धर्मवीर से अनुरोध करता रहता हूं कि वह पूरे भारतीय समाज के लिए काम क्यों नहीं करते, लेकिन उन्हें अपने दलित समुदाय की पीड़ा से फुरसत नहीं है। जब तक खुद आंख में दर्द है उसके देखने की सीमा रहेगी। धर्मवीर के दलित चिंतन से मैं कभी पूरी तरह सहमत नहीं रहा। उनकी वैचारिक क्षमता से भलीभांति अवगत हूं। इसीलिए उनकी प्रतिभा को गलत दिशा में जाते हुए देखकर कष्ट होता है। किसी-किसी चीज की उन्हें ऐसी धुन लग जाती है कि वह पटरी से उतरकर बहुत दूर तक चले जाते हैं। जारवाद एक ऐसा ही मुद्दा है जिस पर उनका बहुत समय जाया हुआ। अपनी बिरादरी में भी उन्हें लांछित और अपमानित होना पड़ा। कुछ हद तक वह अकेले भी पड़ गए। उनकी इस क्षति के लिए मुझे हमेशा दुख होता है।


अब धर्मवीर ने एक ऐसा मुद्दा उठा दिया है जिससे उन्हें और ज्यादा अलोकप्रियता का शिकार होना पड़ सकता है। हंस के हाल के एक अंक में उन्होंने पुनर्जन्म पर विचारोत्तेजक लेख लिखा है। जिसकी चर्चा इसलिए कम हुई है कि हमारी भाषा में ठोस और वास्तविक बहस के लिए जगह बहुत कम रह गई है। इस लेख में धर्मवीर का उद्देश्य पुनर्जन्म की प्रामाणिकता पर विचार करना नहीं है। यहां वह हिंदू दर्शन या वेदांत से लोहा नहीं ले रहे हैं। उनका इरादा अपने ही बाबा साहब अंबेडकर के विचारों की छानबीन करना है। बाबा साहब ने 1956 में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बाद में उन्होंने बुद्ध और उनके जीवन पर मूल्यवान लेखन भी किया। बुद्ध स्वयं जन्म-जन्मांतर में विश्वास नहीं करते थे। उनके लिए इस तरह के सवाल अव्याकृत प्रश्न यानी विचार से परे हैं, लेकिन बुद्ध के अनुयायियों ने उनके अनेकानेक जन्म खोज लिए। अंबेडकर ने भी इस सिद्धांत को स्वीकार किया। इस पर धर्मवीर को ऐतराज है। धर्मवीर का कहना है बाबा साहब ने दलित समाज को अनेक कुपाठों और अंधपाठों से मुक्त किया, उसे तर्क करना सिखाया और बुद्धि तथा विवेकवादी बनाने का गंभीर प्रयत्न किया। अंबेडकर एक तरफ हिंदू समाज की सड़ी-गली परंपराओं से लड़ रहे थे और दूसरी तरफ अपने दलित समाज को जागरूक बना रहे थे, लेकिन जब उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया तब यह उनका यू-टर्न था।


बौद्ध धर्म के साथ-साथ अंध आस्था भी आई, मूर्ति पूजा भी आई और जन्म-जन्मांतरवाद भी आया। इस तरह एक भौतिक प्रश्न पराभौतिक भटकाव का शिकार हो गया। दलित समाज में अंबेडकर की जो जगह है उसकी तुलना ईसाई समुदाय में ईसा मसीह की जगह से ही की जा सकती है। आज का दलित आंदोलन सिर से पांव तक अंबेडकर का ऋणी है। इसलिए कोई दलित लेखक या विचारक अंबेडकर की वैचारिकता के किसी पहलू की आलोचना करेगा तो ज्यादा संभावना यह है कि उसे चौराहे पर सरेआम जूतों की माला पहनाई जाएगी। इसीलिए मैं धर्मवीर की तारीफ करता हूं कि बिना इसकी परवाह किए कि समाज में इसकी प्रतिक्रिया क्या होगी उन्हें जो कुछ सही लगा उसे अभिव्यक्त करने से वह डरे नहीं। विचारक और अनुयायियों में हमेशा यह फर्क होता है कि विचारक कुछ नया सोचता है और अनुयायी पुराने से अलग नहीं हो पाते। इसीलिए प्रत्येक नए विचारक को अपनी बात रखने के लिए बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अंबेडकर को भी इस स्थिति का सामना करना पड़ा था। ऐसा नहीं है कि धर्मवीर अंबेडकर के महत्व को स्वीकार नहीं करते।


सवाल यह है कि हम अंबेडकर तक सीमित रह जाएं या उससे आगे जाने की कोशिश करें। किसी भी महापुरुष के बारे में यह दावा नहीं किया जा सकता कि अंतिम सत्य उसी के पास है। यथार्थ इतना बड़ा होता है कि वह किसी भी एक आदमी की मुट्ठी में नहीं समा सकता। इसलिए किसी को आगे के लिए कोई नई राह दिखाई देती है तो उस पर कुपित क्यों होना चाहिए? धर्मवीर कबीर, रैदास और फुले की तरह अंबेडकर का बहुत आदर करते हैं। इसलिए उनका यह नैतिक अधिकार और ज्यादा है कि उन्हें अंबेडकर के चिंतन में कोई कमी या खामी दिखाई पड़ती है तो वह उस पर तर्कसम्मत बहस शुरू करें। हिंदी के दलित क्षेत्र में जैसी जागरूकता दिखाई दे रही है उसके बल पर मैं यह उम्मीद प्रगट करता हूं कि धर्मवीर की इन स्थापनाओं पर गंभीरता से विचार किया जाएगा। छीछालेदर का एक और सिलसिला शुरू हो गया तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है।


इस आलेख के लेखक राजकिशोर हैं


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