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बीमारी वही, जरिया नया

जागरण मेहमान कोना
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उत्तर प्रदेश में पूर्वाचल के सात जिलों में पहली जुलाई से नवंबर तक चली मौतों का सालाना जलसा अब सालभर मौत के सिलसिले में तब्दील हो गया है। संसद के शीतकालीन सत्र के आखिरी दिन यानी 29 दिसंबर को पूरे देश की निगाहें राज्यसभा पर लगी थीं। राज्यसभा में लोकपाल बिल पर गरमागरम बहस जारी थी, लेकिन कम ही लोगों ने गौर किया कि उसी दिन लोकसभा में एक अहम मसले पर बहस चल रही थी। ये बहस थी उस इनसेफेलाइटिस यानी जापानी बुखार पर जिसने यूपी के पूर्वाचल के सात जिलों में गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, कुशीनगर, सिद्धार्थगंज, संतकबीर नगर और महाराजगंज में मासूमों पर मौत का कहर बरपा रखा है। ये सिलसिला पिछले कई सालों से जारी है। सदन में मुद्दा उठाया गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ ने और जवाब दिया देश के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने। सदन में बिना किसी बाधा के खूब अच्छी बहस हुई। मौत के आंकड़ों पर आंकड़े दिए गए। एक-दूसरे के आंकड़ों को आंकड़ों से ही काटा गया। सरकारी आंकड़ों को निजी आंकड़ों से काटा गया। आंकड़ों की आड़ में इनसेफेलाइटिस से निपटने की योजनाओं पर चर्चा हुई। सियासी कलाबाजी भी खूब हुई।

सत्ता पक्ष ने अपनी उपलब्धियां गिनाई और विपक्ष ने अपनी। आखिरकार कुछ और आंकड़ों अगले कुछ महीनों में वैक्सीन आने जैसे आश्वासनों और राज्य-केंद्र की जानी-पहचानी सियासी कलाबाजियों के बीच चर्चा का अंत हुआ, लेकिन आंकड़ों और आश्वासनों से मौत नहीं थमती और ये थमी भी नहीं। जिस दिन देश की सबसे बड़ी पंचायत में चर्चा हुई उसी दिन बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में दो मासूमों ने दम तोड़ दिया और साल 2012 में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में होने वाली मौत का सरकारी आंकड़ा बढ़कर 647 पहुंच गया। ये डरावनी हकीकत है। अगर 2012 में जापानी बुखार से हुई मौतों का औसत निकालें तो हर महीने करीब 54 मौतें हुई। दिसंबर महीने में ही इस बीमारी से अकेले गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 47 मौतें हुई। मौत के सिर्फ सरकारी आंकड़ें अगर डराते हैं तो इसलिए, क्योंकि इलाके में नवकी बीमारी के नाम से जानी वाली इस 33 साल पुरानी बीमारी ने अब मौत देने का ट्रेंड बदल लिया है। पहले यहां बारिश के बाद जुलाई से नवंबर तक मौत का सालाना आयोजन होता था, लेकिन अब यह सालभर के सिलसिले में तब्दील हो गया है। जनवरी से शुरू हुआ मौत के आंकड़े इकट्ठा करने का सरकारी काम साल के आखिरी दिन भी जारी रहा। ऐसे में लोकसभा में हुई बहस में कई सवाल अनुत्तरित रह गए आखिर क्यों 33 साल पुरानी इस बीमारी को अब तक काबू में नहीं किया जा सका? आखिर क्यों पूर्वाचल में होने वाली नौनिहालों की इन मौतों पर केंद्र सरकार हमेशा नौ दिन चले अढाई कोस की मुद्रा में दिखती है। आखिर क्यों सूबे की सरकार को अपने ही लोगों की मौत उद्वेलित नहीं करती? जबकि पूर्वाचल के इस इलाके में पहली बार 1978 में जापानी बुखार का मामला सामने आया।

वर्ष 1978 में पहली बार पूर्वाचल पहुंचे जापानी बुखार के वायरस को पूर्वाचल की गरीबी और गंदगी रास आ गई। नंगी आंखों से न देखे जा सकने वाले इन यमदूत वायरसों ने यहीं डेरा जमा लिया। तब से शुरू मौत का सिलसिला अब तक जारी है। कभी बारिश के बाद मौत का मौसमी सालाना आयोजन होता था तो अब सालभर मौत का आयोजन हो रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जापानी बुखार के शिकार हर 100 में से 25 बच्चे पर मौत का खूनी पंजा झपट्टा मार लेता ही है। बाकी बचे तकरीबन 40 बच्चे जो जिंदगी भर के लिए मानसिक और शारीरिक तौर पर अपाहिज हो जाते हैं। बुखार से होने वाली हर मौत का मातम तो गहरा होता है ही। वहीं अपाहिज बच्चों टीस भी जिंदगीभर का दर्द होती है। दरअसल स्थानीय आबोहवा के मुताबिक ढल जाने वाले और नए-नए रूप धरने में माहिर इन वायरसों को लेकर सरकार और शासन का नजरिया हमेशा से उपेक्षा भरा ही रहा। विकास के पैमाने पर हमेशा से उपेक्षित रहे पूर्वाचल में जिंदगी सस्ती है। भरोसा नहीं है तो मौत पर मिलने वाले सरकारी मुआवजे पर गौर फरमाइए। तस्वीर साफ हो जाएगी। यहां मौत की सरकारी कीमत तय है। कभी भी इसे जनस्वास्थ्य के नजरिए से नहीं देखा गया।

बीमारी मानकर सिर्फ इलाज करने की कवायद ही दिखी। हजारों सरकारी मौतों के बाद पहली बार 2006 में मौत से बचाने का टीका यहां पहुंचा। उस पर भी सरकारी भ्रष्टाचार और उदासीनता का आलम देखिए। राज्य सरकार ने दावे 90 फीसदी टीकाकरण के किए, लेकिन यूएन की एक एजेंसी ने जब जमीनी सर्वेक्षण किया तो हकीकत खुलकर सामने आ गई। सिर्फ 50 फीसदी टीकाकरण की पुष्टि हुई। नतीजा हजारों घर के चिराग बुझते रहे और सरकारी मदद अपनी ही मस्तानी चाल से चलता रहा। इधर सरकारी मदद की चाल से कई सौ गुना तेजी से जापानी बुखार का कहर जारी रहा। पूर्वाचल की इस आपदा से निपटने में तंत्र की तेजी का पता इसी से चलता है कि जब तक जापानी बुखार के एक वायरस की पहचान हुई तब तक ये वायरस सैकड़ों रूप बदल चुका है। 1978 में आई 33 साल पुरानी इस बीमारी को अगर पूर्वाचल का अनपढ़ गरीब नवकी बीमारी कहता है तो अनजाने में ही सही उसने इस घातक वायरस की फितरत को पहचान लिया, लेकिन सरकारी तंत्र को इसे पहचानने में 30 साल से ज्यादा लगे। अब जबकि जापानी इनसेफेलाइटिस से हो रही मौत के आंकड़े घटने के दावे किए जा रहे हैं तब ये जापानी बुखार का वायरस अधिक घातक रूप में एंट्रोवायरस इनसेफालिटिस के रूप में मौत बांट रहा है। रूप बदलने के साथ ही मच्छर से मौत बांटने वाली इस महामारी ने अब मौत देने का हथियार बदल लिया। अब इसने दूषित पानी को अपना हथियार बना लिया है। कभी पानी का कटोरा कहा जाने वाले इस इलाके में अब पानी ही मौत का कारण बन गया है। महज 20 फुट की बोरिंग पर पानी उगलने वाले हैंडपंप से अब मौत बंटती है।

हालांकि सरकारी सख्ती और दावे ऐसे हैंडपंपों के इस्तेमाल रोकने के लिए कड़े उपाय अपनाने के किए जा रहे हैं। अपील करीब 100 फीट की गहरी बोरिंग वाले इंडिया मार्का सरकारी हैंडपंपों का पानी पीने की हो रही है, लेकिन जिस देश में सरकारी हैंडपंप सांसदों और विधायकों की सियासत साधने का जरिया हो वहां जरूरतमंद इलाकों में इनके लगे होने की संभावना कितनी है ये आसानी से सोचा जा सकता है। पूर्वाचल के इनसेफेलाइटिस प्रभावित किसी भी जिले में चले जाइए वहां 20 फीट बोरिंग वाले हैंडपंपों से लोगों का पानी पीना बदस्तूर जारी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये उनकी मजबूरी है। जरूरत सरकारी आश्वासनों, सियासत और सरकारी चाल से आगे बढ़कर तेज कार्रवाई करने की है। सिर्फ इसे बीमारी न मानकर समग्र जनस्वास्थ्य के नजरिए से देखे जाने की जरूरत है।

लेखक विजय के. पांडेय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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