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विकीपीडिया को सलाम

जागरण मेहमान कोना
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सोमवार यानी 23 जनवरी से शुरू होने वाला हफ्ता क्या इंटरनेट का भविष्य तय करेगा? भारत में भी और दुनिया में भी। यह सवाल इसलिए, क्योंकि 23 जनवरी को गूगल इंडिया और फेसबुक की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई होने की संभावना है। निचली अदालत ने उन्हें आपत्तिजनक कंटेंट हटाने के मामले में समन जारी किए थे, जिसे इन कंपनियों ने हाईकोर्ट में चुनौती दी है। लेकिन इस मामले से इतर अमेरिका में स्टॉप ऑनलाइन पाइरेसी एक्ट को लेकर छिड़ी बहस गंभीर मोड़ पर पहुंच गई है। अमेरिकी कांग्रेस में पेश सोपा और प्रोटेक्ट आईपी एक्ट यानी पीपा को लेकर बहस अंतिम नतीजे तक पहुंचने की भी संभावना है। कई बड़ी इंटरनेट कंपनियां इन दोनों एक्ट का काफी दिनों से विरोध कर रही हैं। दरअसल, कॉपीराइट कानूनों का उल्लंघन करने वाली विदेशी वेबसाइट्स पर नकेल कसने के लिए ही अक्टूबर में हाउस ज्यूडिशियरी कमेटी के चेयरमैन लैमर स्मिथ ने सोपा को पेश किया था। इस विधेयक के मुताबिक रिकॉडिंग कंपनियां, टीवी और फिल्म कंपनियां, प्रकाशन गृह और दूसरे कॉपीराइट होल्डर अधिकारों का उल्लंघन करने वाली वेब साइटों का काम बंद करने की अदालत के निर्णय के बगैर मांग कर सकेंगे।


कॉपीराइट होल्डर कंपनियों की पहली मांग पर ऐसी वेब साइटों के ऑनलाइन खातों पर भुगतान रोकना संभव होगा। सर्च इंजन को उन्हें सर्च नतीजों से हटाना होगा। इंटरनेट कार्यकर्ता सोपा के विरोध में मुहिम छेड़े हुए हैं और कई बड़ी कंपनियों का उन्हें समर्थन मिल रहा है। इस कड़ी में बुधवार को दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन संदर्भकोश विकीपीडिया ने 24 घंटे का ब्लैकआउट कर डाला और लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने का संदेश दे डाला। विकीपीडिया को ब्लैकआउट के दौर में भी जबरदस्त समर्थन मिला। अमूमन बुधवार के दिन विकीपीडिया को 30 मिलियन पेज व्यू मिलते हैं, लेकिन इस बार 162 मिलियन पेज व्यू मिले। साल 2001 में शुरू हुई विकीपीडिया ने ऐसा विरोध कभी नहीं दिखाया था और उसके विरोध में रेडिट, कम्युनिटी ऑफ न्यूज क्यूरेटर्स, ऑटमील समेत कई साइट भी बंद रहीं। गूगल ने अपना लोगो काला कर विरोध जताया। फेसबुक ने भी विकीपीडिया का समर्थन किया। हालांकि फेसबुक ने ब्लैकआउट नहीं किया, लेकिन साइट के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग भी खुलकर सरकार से मोर्चा लेने लगे। जुकरबर्ग ने विरोध के साथ एक बहुत बड़ी मार्के की बात कही। वह यह कि अब दुनिया को इंटरनेट समर्थक राजनेताओं की जरूरत है। इसमें कोई शक नहीं है कि इंटरनेट की दुनिया में मुखर होते लोगों और संस्थाओं को सरकारों के लिए बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा है।


चीन में तो फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस और यूट्यूब पर पाबंदी है ही, कई दूसरे देशों में अलग-अलग तरीके से तानाशाही चल रही है। गैर सरकारी अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने 2006 में इंटरनेट के दुश्मनों की एक सूची जारी की थी। इसमें बर्मा, चीन, क्यूबा, इरान, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया, सीरिया, सऊदी अरब, तुर्कमेनिस्तान, वियतनाम समेत 13 देश शामिल थे। आज की तारीख का सच यह है कि इंटरनेट को सेंसर करने का ट्रेंड उफान पर है। दुनिया के करीब 40 देश इंटरनेट पर पसरी सूचनाओं को किसी न किसी हद तक फिल्टर कर रहे हैं। इन देशों में अमेरिका जैसा देश भी शामिल है, जो इंटरनेट पर सूचनाओं के निर्बाध प्रवाह का सबसे बड़ा हिमायती रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने समूह आठ की मुख्य बैठक से पहले आयोजित अंतरराष्ट्रीय वेब सम्मेलन में साफ कहा था कि इंटरनेट को निरकुंश नहीं छोड़ा जा सकता। अजीब इत्तेफाक रहा कि सोपा भी उसी वक्त चर्चा में आया, जब सरकोजी ने अपनी बात रखी। निश्चित रूप से इंटरनेट पर कॉपीराइट उल्लंघन एक बड़ी समस्या है, लेकिन सोपा या पीपा उसका हल नहीं है। इसी तरह आपत्तिजनक कंटेंट बड़ी समस्या है, लेकिन फेसबुक और गूगल पर पाबंदी इसका हल नहीं है। हल क्या हैं, इस पर बहस नदारद है। बहरहाल, विकीपीडिया के प्रतीकात्मक विरोध ने इन समस्याओं और इस बाबत सरकारी रुख पर आम लोगों का ध्यान खींचा है।


इस आलेख के लेखक पीयूष पांडे हैं


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