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धर्म के नाम पर अधम आचरण

जागरण मेहमान कोना
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केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने दिल्ली में कैथोलिक संगठन कैरिटस इंडिया के स्वर्ण जयंती समारोह का उद्घाटन करते हुए आर्चबिशप, बिशप सहित कैथोलिक ननों, पादरियों की सभा में बोलते हुए कहा कि कैथोलिक चर्च द्वारा संचालित संगठन नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास करने में मदद करें, लेकिन लक्ष्मण रेखा का सम्मान करें और धर्मातरण की गतिविधियां नहीं चलाएं। उन्होंने कहा कि वह कैरिटस के बारे में कैथोलिक संगठन के रूप में नहीं, बल्कि कैथोलिक संचालित सामाजिक संगठन के रूप में देखते हैं। कैरिटस जलापूर्ति, आवास, पुनर्वास और प्राकृतिक आपदाओं के शिकार लोगों के लिए कार्य करता है। जयराम रमेश ने छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में रामकृष्ण मिशन द्वारा किए गए विकास कार्यो का जिक्र करते हुए कहा कि ग्रामीण विकास मंत्रालय झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में दीर्घकालीन आधार पर इनके साथ भागीदारी कर सकता है। उनके बयान के अगले ही दिन कश्मीर से खबर आई कि एक शरीयत अदालत ने धर्मातरण विवाद पर पादरी सीएम खन्ना, गयूर मसीह, चंद्रकांता खन्ना और पादरी जिम ब्रेस्ट के राज्य में प्रवेश पर पाबंदी का फैसला सुनाया और इसी के साथ घाटी के मिशनरी स्कूलों की निगरानी के साथ वहां इस्लामिक शिक्षा देने की पहल करने को भी कहा गया है। श्रीनगर स्थित ऑल इंडिया सेंटर्स चर्च के पादरी सीएम खन्ना पर मुस्लिम युवकों को प्रलोभन देकर धर्मातरण कराने के आरोप लगे थे। इस मामले में उनके विरुद्ध धारा 153-ए और 295-ए के तहत मामला दर्ज कर उन्हें जेल भी भेजा गया।


धर्मातरण की इस घटना से घाटी में महौल ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध होने लगा है। हुर्रियत के उदारवादी गुट के नेता मीरवाइज फारुक के नेतृत्व में कश्मीर के सभी इस्लामिक संगठनों के नेताओं, मौलवियों की बैठक हुई, जिसमें ईसाई मिशनरियों और अन्य गैर इस्लामिक ताकतों से निपटने के लिए तहफ्फुज-ए-इस्लाम नामक संगठन के गठन की घोषणा हुई। संगठन ने घाटी के मिशनरी स्कूलों को धर्मातरण का अड्डा बताते हुए राज्य सरकार से इनकी निगरानी के साथ वहां इस्लामी शिक्षा देने की पहल को कहा है। ऐसे किसी भी साहित्य पर रोक लगाने की मांग की गई है जो इस्लामिक शिक्षाओं और सिद्वांतों के विरुद्ध हो। कश्मीरी नेतृत्व धर्मातरण के प्रति चौकन्ना रहता है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक में छपी इस तरह की खबरों के कारण चर्च नेतृत्व को सफाई देनी पड़ी थी, लेकिन इस बार यह मामला शांत होता दिखाई नहीं दे रहा। घाटी से आ रही खबरों के मुताबिक कुछ अलगाववादी नेताओं और संगठनों ने मीरवाइज और गिलानी के बीच धर्मातरण के मुद्दे पर सुलह कराने कराने का प्रयास किया। एकता तो हुई नहीं, अलबत्ता दोनों गुट एक साझा रणनीति के तहत लोगों को सड़क पर लाने के लिए सहमत हो गए हैं।


जम्मू-कश्मीर कैथोलिक आर्चडायसिस के बिशप पीटर सेलेस्टीन एलमपसरी और चर्च ऑफ नार्थ इंडिया अमृतसर डायसिस के बिशप पीके सामानरी ने सरकार से इस मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है। घाटी में ईसाइयों की संख्या बेहद कम है। कुछ वर्ष पूर्व प्रसार भारती द्वारा प्रसारित एक वृत्तचित्र इन सर्च ऑफ सेल्फ रिस्पेक्ट में इस क्षेत्र के ईसाइयों को बेहद दयनीय स्थिति में दिखाया गया था। अधिकतर लोग आज भी सफाई कर्मचारी के रूप में जीवन निर्वाह कर रहे हैं, जबकि राज्य में कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट चर्चो के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं। केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश स्पष्टवादी और स्वतंत्र सोच के हैं। उनके बयानों से कई बार उनकी सरकार को भी असहज स्थिति से गुजरना पड़ा है। धर्मातरण पर उनके बयान के गंभीर अर्थ हैं। भारत में किसी को भी चर्च के काम से नहीं, बल्कि इसकी आड़ में दूसरे की आस्था में अनावश्यक हस्तक्षेप से आपत्ति है। भारत का संविधान किसी भी धर्म का अनुसरण करने की आजादी देता है और धर्मप्रचार को भी मान्यता देता है।


समाजसेवा की आड़ में दूसरों की आस्था पर हमले की इजाजत दी भी नहीं जा सकती। सेवाकार्य और धर्मातरण के बीच यही एक लक्ष्मण रेखा है जिसके सम्मान की आशा हर भारतीय चर्च संगठनों से करता है। आदिवासी समूहों में चर्च का कार्य तेजी से फैल रहा है। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि ईसाई आदिवासी और गैर ईसाई आदिवासियों के बीच के मधुर संबध समाप्त हो गए हैं और उनमें बैर बढ़ रहा है। इसे हम ओडिशा में ग्राहम स्टेंस और उसके दो बेटों की हत्या तथा कंधमाल में सांप्रदायिक हिंसा के रूप में देख चुके हैं। इस हिंसा के पीछे लक्ष्मण रेखा को पार करना ही मुख्य कारण रहा है, जिस ओर सुप्रीम कोर्ट ने भी इशारा किया है। चर्च संगठन लंबे समय से आदिवासी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अपने अनुकूल कार्य करने का माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। देश में चर्च और आरएसएस दो ही संगठन हैं, जिनकी पंहुच आदिवासी समूहों और दूर-दराज के क्षेत्रों तक है। इनके पास कार्यकर्ताओं का एक संगठित ढांचा है। आदिवासी समूहों और वंचित वर्गो के बीच कार्यरत आरएसएस धर्मातरण का लगातार विरोध करता आया है। कुछ साल पहले झारखंड के राज्यपाल ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को चर्च के माध्यम से अनाज बांटने की एक योजना बनाई थी, जिस पर इतना बवाल हुआ कि सरकार को अपने कदम पीछे हटाने पड़े। ईसाई मिशनरियों पर धर्मातरण के गंभीर आरोप लगते रहे हैं जिसका हिंदू समुदाय ही नहीं, मुस्लिम और सिख समुदाय भी विरोध कर रहा है।


हालांकि ईसाइयत की तरह इस्लाम भी अपनी संख्या बल बढ़ाने में विश्वास करता है, परंतु मीनाक्षीपुरम की घटना के बाद मुस्लिम धर्मातरण के तेवर ठंडे पड़ गए हैं, लेकिन ईसाई मिशनरियों के बारे में ऐसे समाचार लगातार आते रहते हैं। अधिकतर ईसाई कार्यकर्ता दलित ईसाइयों के प्रति चर्च द्वारा अपनाए जा रहे नकारात्मक रवैये से निराश हैं। हाल ही में एक राष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित लेख के मुताबिक योजनाबद्ध तरीके से धर्मातरण की मुहिम चलाने की रणनीति अपनाई जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में चार हजार से ज्यादा मिशनरी समूह सक्रिय हैं, जो धर्मातरण की जमीन तैयार कर रहे हैं। त्रिपुरा में एक प्रतिशत ईसाई आबादी थी जो एक लाख तीस हजार हो गई है। आंकड़े बताते हैं कि इस जनसंख्या में 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अरुणाचल प्रदेश में 1961 में दो हजार से कम ईसाई थे, जो आज बारह लाख हो गए हैं। धर्मातरण से न केवल धर्म, बल्कि भाषा और सामाजिक व्यवस्था भी पूरी तरह बदल जाती है जिसका परिणाम सांस्कृतिक परिवेश के बदलाव के रूप में होता है। मध्य एशिया में धर्मातरण आज राजनीति का आधार बनता जा रहा है। जिस रफ्तार से ईसाइयत फैल रही है और अपने पंथ को आधार बनाकर वे जिस तरह से दुनिया को चलाना चाहते हैं, आज यह एक बड़ी चुनौती है। जनसंख्या के आंकड़े देश और दुनिया को बदलते हैं। इसलिए धार्मिक उन्माद समस्त मानवता के लिए चुनौती है।


लेखक आरएल फ्रांसिस स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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