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क्या प्रियंका कर पाएंगी करिश्मा

जागरण मेहमान कोना
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प्रियंका गांधी वडेरा को अलग-अलग नामों से पुकारा जा रहा है- अनइच्छुक बहू, मौसमी फल, मीडिया की प्रिय आदि। पेज-3 के पाठकों के लिए वह फैशन आइकन या सोशलाइट हैं। लेकिन जब वह अपने परिवार के परंपरागत चुनाव क्षेत्रों का दौरा करती हैं तो सूती साड़ी पहनकर अपनी दादी इंदिरा गांधी की याद दिला देती हैं। पिछले चुनावों में उन्होंने अमेठी और रायबरेली की अपनी पारिवारिक सीटों पर मां और भाई के लिए मोर्चा संभाला था ताकि सोनिया और राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के अन्य प्रत्याशियों के लिए देशभर में घूमकर चुनाव प्रचार कर सकें। इस बार भी फिलहाल उन्होंने अपने आपको सिर्फ इन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रखा है। हालांकि उनका कहना है कि अगर राहुल कहेंगे तो वह दूसरे चुनाव क्षेत्रों में भी जाकर चुनाव प्रचार कर सकती हैं। इससे जाहिर होता है कि प्रियंका खुद को सिर्फ परिवार की व्यक्तिगत राजनीतिक गतिविधियों तक ही सीमित रखना चाहती हैं। अपने परिवार के चुनाव क्षेत्रों में प्रियंका गांधी के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन सवाल यह है कि क्या वह कांग्रेस के लिए इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और लाभकारी हो सकती हैं? यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि भले ही प्रियंका अमेठी में चुनाव प्रचार करें, लेकिन उनकी गूंज भटिंडा तक महसूस की जाती है। बहरहाल, प्रियंका की कांग्रेस में सार्थकता को लेकर अलग-अलग राय है। जिन लोगों को प्रियंका में इंदिरा गांधी नजर आती हैं, उनका कहना है कि उनमें जन नेता बनने की भरपूर क्षमता है। वह इंदिरा गांधी की तरह ही न सिर्फ आवाम को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम हैं, बल्कि लोगों को प्रभावित भी कर सकती हैं।


जानकारों का कहना है कि कां प्रियंका गांधी के टैलेंट और उनके संभावित करिश्माई नेतृत्व का पूरा लाभ नहीं उठा रही है। दूसरी ओर प्रियंका के आलोचकों का कहना है कि जमीनी स्तर पर उनका प्रभाव बहुत सीमित है। उनका लुक्स जरूर इंदिरा गांधी जैसा है, आकर्षण भी राहुल से अधिक है और आवाम को अपनी ओर खींच भी सकती हैं, लेकिन आज की जाति आधरित राजनीति में वह अधिक भीड़ तो जुटा सकती ग्रेस, मगर उसे वोट में नहीं बदल सकतीं। अक्सर लोग उन्हें जिज्ञासावश देखने के लिए जाते हैं। इंदिरा गांधी की तरह आवामी लीडर बनने के लिए प्रियंका को सुंदर पैकेजिंग के अलावा और बहुत-सी चीजें चाहिए होंगी ताकि वह मुलायम और मायावती जैसे मझे हुए राजनीतिज्ञों का मुकाबला कर सकें। इसमें शक नहीं है कि सोनिया गांधी ने जबसे (1998) कां की कमान संभाली है, उनके दोनों बच्चों की राजनीतिक योग्यता की तुलना निरंतर हो रही है। कांग्रेस के कार्यकर्ता प्रियंका में राहुल से अधिक सियासी करिश्मा देखते हैं। उन्हें प्रियंका स्वाभाविक नेता प्रतीत होती हैं, जिन्होंने विरासत में अपनी दादी के नेतृत्व गुण, करिश्मा और लुक्स हासिल किया है।


पिछले साल प्रियंका ने जब अपने बालों का स्टाइल इंदिरा गांधी की तरह किया तो दोनों में समानता अधिक मुखर हो गई और लोग अंदाजा लगाने लगे कि प्रियंका जल्द सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन जाएंगी। यह बात और है कि अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस बात का जवाब तो नेहरू-गांधी परिवार ही दे सकता है कि प्रियंका सक्रिय राजनीति में क्यों नहीं आ रही हैं और वह चुनावों के दौरान खुद को सिर्फ अपने परिवार की परंपरागत सीटों तक ही क्यों सीमित रखती हैं? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रियंका गांधी में राजनीतिक खूबियां हैं। वास्तव में उनकी शख्सियत ही ऐसी है कि वह किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकती हैं। जो लोग उनकी राजनीतिक क्षमता पर संदेह करते हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि राजनीति प्रियंका को विरासत में मिली है और इसका प्रदर्शन वह समय-समय पर करती रही हैं। मसलन, 1999 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने अकेले दम पर भाजपा के प्रत्याशी अरुण नेहरू, जो उनके नजदीकी रिश्तेदार भी हैं, का मुकाबला किया और रायबरेली में कांग्रेस प्रत्याशी सतीश शर्मा को विजय दिलाई। सतीश शर्मा की जीत का श्रेय प्रियंका को ही जाता है, लेकिन उनके परिवार ने तय किया कि सक्रिय राजनीति में राहुल जाएंगे, प्रियंका नहीं। यह स्थिति तभी से ऐसी बनी हुई है। तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और प्रियंका भी राजनीतिक दृष्टि से अधिक परिपक्व हो गई हैं। अब तो यह बात भी किसी से छिपी हुई नहीं है कि चुनावी रणनीति प्रियंका और राहुल दोनों मिलकर बनाते हैं।


प्रियंका चुनाव प्रचार में अधिक आक्रामक शैली अपनाना चाहती हैं। हालांकि राहुल आमतौर पर इस किस्म की शैली का प्रयोग नहीं करते। फिर भी जब प्रियंका चुनाव प्रचार करती हैं तो वह अपने परिवार का नाम लेने या देश की राजनीति में अपने परिवार की भूमिका की याद दिलाना नहीं भूलती। यह बात जनता को बहुत पसंद आती है। बता दें कि जिस राजसी अंदाज में प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार करती हैं, वह तेवर राहुल में देखने को नहीं मिलता। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि भले ही हमारा लोकतंत्र 6 दशक पुराना हो गया हो, लेकिन आज भी जनता राजसी ठाट-बाट वालों का सम्मान करती है। यही बात प्रियंका को राहुल से अधिक लोकप्रिय बना देती है। इसलिए यह विश्वास से कहा जा सकता है कि अगर प्रियंका पूरे उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करेंगी तो उसका निश्चित रूप से कांग्रेस को लाभ मिलेगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि प्रियंका की वजह से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सत्ता में लौट सकती है। कांग्रेस राजनीतिक कूटनीति के तहत भले ही अगली सरकार बनाने का दावा कर रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि कां अगर ज्यादा जोर लगाती है तो वह केवल इस स्थिति में आ सकती है कि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में अगली सरकार का हिस्सा बन जाए। वैसे यह भी कांग्रेस के लिए कम बड़ी उपलब्धि नहीं होगी, क्योंकि उत्तर प्रदेश में वह लगभग दो दशक से सरकार से बाहर है।


बहरहाल, प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने से कांग्रेस में नया जोश आ सकता है और वह पहले से अधिक सीटें भी ला सकती है, लेकिन कांग्रेस को यह भी डर है कि अगर प्रियंका को उत्तर प्रदेश के चुनावों में ज्यादा सक्रिय भूमिका दे दी भी जाए और उसकी सीटें पहले से भी कम हो जाती हैं तो वह अपने ब्रह्मस्त्र का प्रयोग भी कर चुकी होगी। वह भी नाकामी के साथ। इसलिए लगता यह है कि कांग्रेस प्रियंका पर फिलहाल रिस्क नहीं लेगी और उनका इस्तेमाल संसदीय चुनावों में करेगी। अभी तक कांग्रेस ने प्रियंका का प्रयोग केवल कॉस्मेटिक की तरह किया है और वह भी सीमित क्षेत्रों में। कांग्रेस उसी सूरत में प्रियंका गांधी का अधिकतम लाभ उठा सकती है, जब उन्हें यानी प्रियंका को सक्रिय राजनीति में उतारा जाए। लेकिन लगता यह है कि कांग्रेस फिलहाल राहुल और प्रियंका के रूप में सत्ता के दो केंद्र खड़े नहीं करना चाहती। उसे यह भी डर है कि प्रियंका में जो स्वभाविक करिश्मा है, अपने व्यक्तित्व और भाषा के कारण कहीं उससे युवराज की छवि फीकी न पड़ जाए। इसलिए प्रियंका को सिर्फ पारिवारिक चुनावी क्षेत्रों की देखभाल की जिम्मेदारी दी जाती है। लेकिन प्रियंका का व्यक्तित्व ऐसा है कि अमेठी और रायबरेली में रहते हुए भी उनकी चर्चा कश्मीर से कन्याकुमारी तक होती है।


लेखक शाहिद ए चौधरी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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